शोभना ने अपना जीवन अपनी गृहस्थी के हवाले कर दिया था। सौ प्रतिशत का उसका यह प्रयास बेहतर परिणाम दे रहा था। एक आदर्श नींव पर उसका परिवार भली प्रकार फल-फूल रहा था और क्यों ना हो, शोभना अपने खून-पसीने से इसका सिंचन जो कर रही थी।

यूँ तो सास-ससुर साथ नहीं रहते थे पर नित्य उनकी कुशल क्षेम पूछना, एक अंतराल पर उनके पास जाना, हर छोटी-बड़ी जरूरत को व्यवस्थित करना एक वीक एंड प्लान की तरह थे। पति और बच्चों के लिए भी वो किसी एंजल से कम नहीं थी। प्रातः सबसे पहले उठकर वो घर की सकारात्मकता पर कार्य करती। इसके लिए वह फूलों और सुगंध का अधिकतम उपयोग करती। आँख खुलने पर किसको किस चीज की जरूरत होगी, इसका विशेष ध्यान रखती। दिन भर में किसे क्या खाना, क्या पहनना है, सारे प्रबंधन की रूपरेखा एक दिन पूर्व ही बना लेती अर्थात उसकी सोच, उसका मस्तिष्क भी यही ताना-बाना बुना करता कि कैसे वह एक स्वस्थ, सुंदर, मुस्कुराता जीवन अपने परिवार को दे पाए।
समय का पहिया घूमता जा रहा था और अपनी छाप छोड़ता आगे बढ़ रहा था। बच्चे बड़े हो रहे थे और अपने भविष्य के सपने बुन रहे थे। पति का प्रेम परिमार्जित होकर समर्पण से एकाकार हो चला था। उद्गम पर चंचला नदी जैसे आगे का मार्ग शांत बहकर तय करती है, वैसे ही शोभना और अधिक गांभीर्य से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करती जा रही थी। विवाह से पूर्व की शिक्षा का उपयोग भी उसने अपने बढ़ते बच्चों के मनोविज्ञान को समझने और उनके बेहतर समायोजन में लगाया जिसके परिणामस्वरूप बच्चे अपने शरीरिक व मानसिक परिवर्तनों को सहजता से स्वीकार पाए।
बच्चों की शिक्षा पूरी हो गयी। बेटी ने शिक्षिका बनना तय किया था और बेटे ने इंजीनियर। दोनों के व्यावसायिक सपने पूरे हो गए। समय के थपेड़े अपना प्रहार कर रहे थे। एक पीढी पर ये प्रहार उदयवादी तो दूसरे पर अवसानवादी था। एक के कपोल पर रोज नई चमक तो दूसरे की आभा कम होती जाती थी। एक आँखें चुन्धिया देने वाला ऊर्जा पुंज था तो दूसरा टिम-टिम करता अपना अस्तित्व बरकरार किये था।

जिस माँ ने बच्चों को एक गढ़न दी थी अब वो माँ को सलीका सिखाते थे। कभी बेटी आधुनिक तकनीक से साड़ी बांधने को कहती तो कभी बेटा बाल रंगने की सलाह देता। शोभना उन स्त्रियों में थी जो सबका मुस्कुरा कर स्वागत करे चाहे वो आगत यौवन हो या विगत। लीप-पोत का भ्रम उसे स्वीकार नहीं था। अक्सर बच्चे कह देते, “ऐसे जाना हो तो मेरे साथ ना चलो।” घटता सौंदर्य पति को भी सालता था सो वह भी बच्चों की हाँ-में-हाँ मिलाते। उम्र ने अस्थि, मज्जा की लचक को ही कम नहीं किया था, दिल दिमाग में भी एक जकड़न प्रभावी था। अब हर किसी की हर बात को बिना किसी तर्क के मानना संभव नहीं हो पा रहा था।
विवाह योग्य बेटे के लिए रिश्ते आने लगे थे, आदर्शवादी सोच लिए शोभना ने चयन का अधिकार बेटे को ही दिया। विवाह संपन्न हुआ। कुछ शोभना के मन अनुरूप हुआ कुछ विपरीत। बहु का गृह प्रवेश हुआ, जिसकी रूप-रेखा आदतन पहले से तय थी। सब अच्छा रहा। शोभना ने एकदम से कोई जिम्मेदारी बहु को ये सोचकर नहीं दी कि अभी एक नया रंग आया है जीवन में, धीरे-धीरे चढ़ेगा तो ज्यादा पक्का होगा।
बेटी ने एक दिन अपना चयन स्वयं ही सबके समक्ष रखा। बेटी काफी समझदार थी सो चयन भी सर्वमान्य हो गया। बेटी का विवाह संपन्न हुआ। खूब धूम मची। पर विदाई के वक़्त शोभना हाहाकार कर उठी। उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसका कोई अंग बेरहमी से काटा जा रहा हो। दुःख मनाने की भी एक सीमा होती है, उसके बाद संतोष करना ही पड़ता है।
अपना दुःख और अकेलापन गृह कार्य में व्यस्त होकर कम करना चाहा तो महसूस हुआ अब करने को बहुत कुछ रहा नहीं। कुछ काम डॉक्टर ने मना कर दिये थे, कुछ बहु ने हल्के कर डाले थे। शृंगार को सादगी ने विस्थापित कर दिया था चाहे घर हो या वो स्वयं। बुझे- बुझे दिनों में एक और वज्रपात हुआ जब बेटे बहु ने नौकरी के सिलसिले में विदेश जाने की सूचना दी। एक और विस्थापन हुआ था जो बहुत अहम था। अब पूछने और इजाजत लेने की जगह सूचना दी जाने लगी थी। फिर वो दिन भी आ गया जब बेटा बहु विदा होने वाले थे। आज आँखों मे आँसू नहीं उदासी थी। सब यंत्रवत जान पड़ता था। आज मन मस्तिष्क पूछ रहे थे, क्या जीवन का यही फलसफा है? क्या माँ को अपने लुटाये वात्सल्य का मूल्य चाहिए? नहीं, शायद प्रेम के वय मे हुए परिवर्तन को समझकर अनपेक्षित उसे शुभेच्छा से एकाकार कर लेने की जरूरत है।
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