भारत में रहने वाले सभी लोगों ने ‘अवतार’ शब्द जरूर सुना होगा भले ही हिन्दू हों या अहिंदू। विष्णु के अवतार सबसे लोकप्रिय हैं हालांकि अन्य देवताओं के भी अवतार हुए हैं। लेकिन ज़्यादातर हम इसका अर्थ धर्म से जोड़ कर लगाते हैं। अपने व्यावहारिक जीवन से जोड़ कर इसे नहीं देखते। अगर ‘अवतार’ के सिद्धांतों को अपने जीवन में किंचित मात्र भी उतार सकें तो हमारा जीवन शायद अधिक आसान हो जाएगा।
अवतार क्या होता है?
अवतार का अर्थ है ‘अवतरण लिया हुआ शरीर।’ तो फिर, अवतरण क्या है? अवतरण दो शब्दों से मिल कर बनता है, ‘अव’ और ‘तरण’। ‘अव’ का अर्थ है ‘कम’ या ‘नीचे’ जैसे अवमान, अवगुण। ‘तरण’ का अर्थ होता है, ‘तैरना’, जैसे- तरणताल। इसका आशय कहीं जाने या पहुँचने से भी होता है, अगर तैर कर पहुंचे नहीं तब तो डुबना हो जाएगा। इसलिए ‘अवतरण’ शब्द का अर्थ हुआ ‘नीचे’ या ‘कम’ होना।

लेकिन ईश्वर कहाँ से नीचे आएगा? वह तो हर जगह है। वास्तव में वह अपने ‘ईश्वरत्व’ से नीचे उतर कर ‘मनुष्यत्व’ को ग्रहण करता है। आकार, समय और स्थान से परे अपने अनादि, अनंत और अरूप रूप को छोड़ कर इससे बंधे सीमित शक्ति वाले मनुष्य का रूप लेता है। पर उसका यह आना पतन नहीं है क्योंकि इसका उद्देश्य होता है उद्धार (upliftment)। अन्य व्यक्ति के उद्धार के उद्देश्य के लिए हम अगर अपनी स्थिति से नीचे आते हैं तभी वह अवतरण होता है, नहीं तो वह पतन हो जाता है।
साधारण शब्दों में कहें तो ईश्वर हमारे रूप में, हमारी भाषा में, हमारी परिस्थितियों में, आकर हमारा उद्धार यानि हमें ईश्वरत्व की तरफ उठाने का रास्ता दिखाता है। यही है अवतारवाद। इसीलिए अवतारी के कार्यों को लीला यानि नाटक (drama) कहते हैं। दूसरे अर्थों में उसका जीवन सामान्य मनुष्य की तरह होकर भी उससे अलग होता है क्योंकि उसके जीवन की घटनाएँ उसकी मर्जी से होता है, जबकि सामान्य मनुष्य के जीवन की घटनाएँ उसके नियंत्रण में नहीं होती है।
अवतार और सुपरहीरो में अंतर
कई लोग अवतार को फिल्मों के सुपर हीरो की तरह समझते हैं। किंतु दोनों में मौलिक अंतर है। सुपर हीरो आम इंसान होते हैं जिनमें विशेष शक्ति आ जाती है। अवतार विशेष शक्ति होते हैं जो किसी विशेष उद्देश्य के लिए आम इंसान बनते हैं।
अवतार से हम क्या प्रेरणा ले सकते हैं?
आम इंसान के लिए अवतार बनाना संभव भले ही न हो पर अपनी क्षमता के अनुसार उससे हम प्रेरणा तो ले सकते हैं। ईश्वर अपने ‘ईश्वर’ के रूप में रहते हुए भी लोगों को रास्ता बता सकता था, लेकिन तब क्या उसकी बात लोगों को प्रभावित करती? अगर लोग उनकी बात सुनते भी तो शायद डर से, न की प्रेम से। या शायद यह कहते कि आप तो सर्वशक्तिमान हो आप हमारी परिस्थितियों को नहीं जानते।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, बच्चों से बच्चे बनकर बात करेंगे तभी हम उन तक पहुँच सकते हैं। अगर हम उनसे बड़े बन कर बात करेंगे तो शायद वह हम से डर जाए, लिहाज या सम्मान के कारण कुछ बोले नहीं लेकिन हमारी बातें उन पर उतना असर नहीं करेगी जब तक हम अपने आप को उनके स्तर तक ले जाकर उनके मन-मस्तिष्क में झांक कर न देखें। हम उनके विचारों और भावनाओं को समझ सकेंगे, यह विश्वास जब उन्हें हो जाएगा तभी वे हम से अपना विचार और अपनी भावनाएँ साझा कर सकेंगे और हमारी बातें और हमारा कार्य उन्हें प्रभावित कर पाएंगे।
गांधी जी अगर केवल सफाई पर भाषण देते तो शायद उसका उतना प्रभाव नहीं होता जितना उनके द्वारा हरिजनों की बस्ती में रहने और उनके साथ काम करने से हुआ। वे गंदी बस्तियों से नफरत नहीं करते थे, उनके साथ रह कर उनकी भूलों की तरह उनका ध्यान दिलाते थे। सुलभ इंटेरनेशनल के संस्थापक बिंदेश्वरी पाठक का जीवन भी उसी तरह का रहा।
अन्य व्यक्तियों से, भले ही वह हमारा परिवार हो, पड़ोसी हो या फिर मित्र, हम जब तक अपनापन का संबंध नहीं बना लेते हैं, उसकी परिस्थितियों में अपने आप को रख कर उसे नहीं देखते तब तक शायद हम उसकी भावनाओं को नहीं समझ सकते।
आजकल रिश्ते बिखरने का ये भी एक बड़ा कारण है। माँ-बाप तो हमेशा बच्चों की भलाई ही चाहते हैं, बच्चे भी माँ-बाप को दुखी देखना नहीं चाहते, फिर क्या कारण है कि एक दूसरे की समस्याओं और भावनाओं से इतने अंजान हो जाते हैं? भाई-भाई में केवल औपचारिक संबंध हो जाता है। दोनों पक्षों की शिकायतें अपनी जगह सही होती हैं, केवल एक-दूसरे को समझ नहीं आती हैं।
काश! बड़े लोग अपनी बड़प्पन से नीचे उतर कर छोटों की समस्या और भावनाओं को समझ सके। छोटे भी अपनी दुनिया से निकल कर कभी बड़ों लोगों की दुनिया में झांक कर देख सके। दूसरों को समझाने और सुनाने के बदले स्वयं भी सुन लें और समझ ले तो रिश्ते बोझ नहीं बल्कि शक्ति बन सकते हैं।
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