अय जिंदगी!

हैदराबाद
तुम्हारें बख़्शे हुए
हर एक लम्हा।
जश्न हैं इसलिए
तुम हो जश्ने जिंदगी॥
किंतु अय जश्ने जिंदगी,
खफ़ा हूँ मैं तुझसे, क्योंकि…
पता नहीं देती तू, मेरी खता का।
कभी तू आईने-सी
साफ़ निर्मल झील।
कभी समंदर सी-गहरी
रहस्यमयी बोझिल।।
कलकल करती बहती सरिता
सहेली-सी सुगम।
और कभी, झील के उद्गम-सी,
पहेली दुर्गम।।
जश्ने जिंदगी तू कभी,
खूशबू भरा गुलाब।
और कभी काँटों का शूल
गुलाब के गुलशनों में॥
मेरी नादानियत पर
हँस कर बोली जश्ने जिंदगी
“खफ़ा मत हो, मुझ पर नादान!
पता देती हूँ मैं,
तेरी खता का…
ढूंढता है तू मेरा पता
झील में प्रतिबिंबित, आईनों में,
गुलों की खुश्बुओं में,
रहस्यमयी इस जाल में,
सहेली-सी सरल हूँ मैं,
फिर भी तू ही मुझे,
पहेली-सी जटिल दुर्गम बनाता है।”
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