रामायण का एक प्रसंग है। सीता हरण हो चुका था। राम और लक्ष्मण दोनों भाई उनकी खोज में थे। कबंध ने उन्हें इसके लिए सुग्रीव से मिलने की सलाह दी। किन्तु, सुग्रीव उस समय अपना राज्य ही नहीं बल्कि अपना घर और परिवार भी खो कर अपनी जान बचाने के लिए यहाँ-वहाँ भाग रहे थे। ऐसे में उनके पास ऐसा क्या हो सकता था जिससे वे राम की सहायता कर सकते थे? कबंध को सुग्रीव पर इतना भरोसा क्यों था? इसका कारण था सुग्रीव का भूगोल का ज्ञान।
अपने भाई बाली से जान बचा कर भागने के क्रम में अपनी सुरक्षा के लिए वे कभी भी एक स्थान पर ज्यादा दिनों तक नहीं रहते थे। वे प्रायः दुर्गम स्थानों पर रहते थे। इसी क्रम में उन्हें किष्किंधा से लेकर लंका तक के, यानि समस्त दक्षिण भारत के, भौगोलिक स्थिति का बहुत अधिक व्यावहारिक ज्ञान हो गया था। यह ज्ञान उन्हें किसी कॉलेज या यूनिवर्सिटी से नहीं बल्कि जीवन की कठिनाइयों से सीखने के लिए मिला था। जब उनके पास कुछ नहीं था, फिर भी यह ज्ञान और सूचना उनके मस्तिष्क में थी। इसीलिए कबंध को इतना भरोसा था कि उनका ज्ञान सीता की खोज में अवश्य काम आएगा।
कबंध का यह भरोसा सच साबित हुआ। सीता की खोज में दक्षिण दिशा की ओर जाने वाले दल को सुग्रीव ने रास्तों और उनके कठिनाइयों के विषय में बहुत अच्छे से निर्देश दिया था। इससे सीता की खोज में बहुत सहायता मिली। इतना ही नहीं, इसी ज्ञान के कारण उन्हें भगवान राम से मैत्री का अवसर मिला। जिसके परिणाम स्वरूप वे अपना खोया हुआ राज्य और परिवार फिर से पा सके।
स्पष्टतः, जब व्यक्ति अपना सब कुछ खो देता है, फिर भी अगर उसके पास कोई विशेषज्ञता हो, कोई ज्ञान हो, और शांतचित्त होकर उसका उपयोग करने का धैर्य हो, तो व्यक्ति बहुत कुछ प्राप्त कर सकता है।
स्टीव जॉब्स ने एक बार अपने जीवन के कुछ ऐसे वाक्यों/घटनाओं को उद्धृत किया था जिनका उनके जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा था। ऐसा एक वाक्य था “stay foolish, stay hungry”। अर्थात हमेशा मूर्ख रहो, हमेशा भूखे रहो। मूर्ख क्यों? क्योंकि अगर हम अपने को मूर्ख मानेंगे तभी तो कुछ नया सीखने के लिए हमेशा तैयार रहेंगे। भूख किस चीज की? कुछ नया सीखने की।
अगर हम अपने ज्ञान को अपूर्ण मानते हुए कुछ नया सीखने के लिए तत्पर नहीं रहते, कुछ नया जानने के लिए उत्सुक नहीं रहते, इसका अर्थ है हमने अपना उत्थान रोक लिया है। कुछ नया सीखते रहना ही तो जीवंत होने की निशानी है।
कई बार बुजुर्ग सोचते हैं, अब वे कुछ नया सीख कर क्या करेंगे, या, इस उम्र में वे कुछ नया नहीं सीख सकते। ये दोनों ही विचार सही नहीं है। ऐसा करने से तो बुढ़ापा मृत्यु के लिए एक प्रतीक्षालय मात्र बन जाएगा। हम जिंदा तो होंगे लेकिन मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए। लेकिन अगर हम इस उम्र में ही कुछ नया सीखेंगे कुछ नया प्रयास करेंगे तो सही अर्थों में हम ज़िंदगी को जी पाएंगे। सीखने की खुशी हमें संतुष्टि और आत्मविश्वास देती है।
तभी तो भारतीय संस्कृति में चार आश्रम की व्यवस्था में वानप्रस्थ को तीसरा और संन्यास को चौथा आश्रम माना गया है। तीसरे वानप्रस्थ अवस्था में हम जो सीखते हैं चौथे संन्यास अवस्था में उसका प्रयोग हम समाज के लिए करते हैं। लेकिन यह तीसरी और चौथी अवस्था पहली और दूसरी अवस्था से अलग होती है। पहली अवस्था (ब्रह्मचर्य आश्रम) में भी हम कई विद्या और व्यवसाय सीखते हैं, लेकिन उसका उपयोग दूसरी अवस्था (गृहस्थ आश्रम) में अपने और अपने परिवार के लिए करते हैं। लेकिन चौथी अवस्था में हम अपने समस्त ज्ञान और अनुभव का उपयोग अपने और अपने परिवार के लिए नहीं कर के समस्त समाज के लिए करते है। लेकिन सीखने का क्रम कभी रुकता नहीं है।
सच है ‘जीवन चलने का नाम’, जिसे वेदों में कहा गया है “चरवैति चरवैति”।