वृद्धावस्था में सामंजस्य की समस्या क्या है?

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“सामंजस्य की समस्या” अर्थ

“सामंजस्य की समस्या” (adjustment problem) का सामान्य अर्थ है परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पाना। यह एक सामान्य प्रवृति होती है। नए हालात के अनुसार अपने को ढालने में थोड़ी-सी हिचकिचाहट, थोड़ा-सा डर होना स्वाभाविक है। लेकिन जब यह इतना अधिक हो जाय कि जीवन के सामान्य गति को, व्यक्ति के स्वभाव और स्वास्थ्य को प्रभावित करने लगे, तब यह सामंजस्य की समस्या बन जाती है।

एक ही समस्या या परिस्थिति को कई लोग सफलता से पार कर लेते हैं जबकि कुछ अन्य लोग ऐसा नहीं कर पाते। इस असफलता का परिणाम व्यक्ति के पारिवारिक और सामाजिक जीवन के साथ-साथ शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। यहाँ तक कि कुछ लोग आत्महत्या जैसे अतिवादी कदम भी उठा लेते हैं। बिजनेस में हानि, नौकरी छूटना, परीक्षा में असफलता, नजदीकी रिश्तों का टूटना जैसे छोटी समस्याओं पर भी कुछ लोग ऐसा करते हैं। यह समस्या नहीं बल्कि समस्या के साथ सामंजस्य बनाने (adjustment), उसका सामना करने (cope up with) की मनोवृति का अभाव दिखाता है। जो व्यक्ति इन छोटी समस्याओं से भी टूट जाते हैं वे वास्तव में इस समस्या के लिए तैयार नहीं होते हैं, और जब समस्याएँ आ जाती हैं तो उसे स्वीकार नहीं कर पाते और समर्पण कर देते हैं।

सामंजस्य यानि एडजस्टमेंट शब्द को लेकर कई बार लोगों को थोड़ी गलतफहमी (misunderstanding) हो जाती है। इसे कुछ अन्य मिलते-जुलते शब्दों; जैसे, समझौता (compromise), समर्पण (surrender), सहनशीलता (tolerant) आदि समझ लिया जाता है। जबकि ऐसा नहीं है।      

वृद्धावस्था और सामंजस्य की समस्या

यह यद्यपि हर उम्र में हो सकती है। लेकिन वृद्धावस्था में सबसे ज्यादा होती है। कारण यह है कि इस समय जीवन में शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, आर्थिक और सामाजिक आदि कई परिवर्तन होते है जो नकारात्मक होते हैं। इस अवस्था में एडजस्टमेंट प्रौब्लम के दो स्तर होते हैं।

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पहले स्तर पर ये अपने परिवार के सदस्यों और समाज के लोगों से भी ठीक से व्यवहार नहीं कर पाते। परिवार में तनाव होता है। कई बार उनका व्यवहार इतना समस्याजनक हो जाता हैं कि वे अपने बच्चों और पति/पत्नी के साथ भी नहीं रहना चाहते हैं। परिणाम यह होता है कि अन्य सदस्य भी उनसे दूरी बनाने लगते हैं।

कई बार उनकी समस्या इतनी बढ़ जाती है कि बीमारी का रूप ले लेती हैं। जिसे एडजेस्टमेंट डिसऑर्डर (adjustment disorder) कहते हैं।

बुजुर्गों में होने वाले सामंजस्य की समस्या के प्रकार

ये प्रकार कोई विशेष प्रौब्लम के नहीं हैं बल्कि उनके जीवन में आई कमियों के साथ एडजस्ट नहीं कर पाना है। इस समय की विशेष समस्याएँ या कमियां इस तरह होती हैं:

स्वास्थ्य संबंधी कमियाँ

डाईबीटीज़, ब्लड प्रेसर, हृदय रोग, आदि स्थायी बीमारियाँ, विभिन्न प्रकार के क्रोनिक दर्द, जैसे जोड़ों का दर्द, सामान्य कमजोरी, आँखों और कान की क्षमता कम हो जाना, दाँत की समस्या इत्यादि के साथ-साथ enlarge prostate gland आदि उम्र से संबंधित समस्याएँ भी होने लगती है।

आने-जाने संबंधी गतिविधियाँ भी कम हो जाती हैं। 

 उनके खाने-पीने पर भी कई पाबंदियाँ स्वास्थ्य कारणों से लग जाती हैं। लगातार ऐसी तकलीफ़ों से व्यक्ति निराश और चिड़चिड़ा हो जाता है। वह अपने युवावस्था के शरीर से तुलना करने लगता है। अपने हम उम्र लोगों और कई बार अपने बच्चों से भी अपनी तुलना करने लगता है। उसकी यह प्रवृति उसकी निराशा और बढ़ा देती है। दूसरे लोग भी उसकी इन आदतों से परेशान होने लगते हैं।

उपयोगी नहीं रहने की भावना

माता-पिता सारी उम्र इस प्रयास में लगते हैं कि बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो जाए। लेकिन जब वह समय आता है जब बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं। अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने लगते हैं। उनके दोस्तों और रिश्तेदारों की सूची बढ़ने लगती है। अब वे माता-पिता के लिए समय नहीं निकाल पाते। उनसे बिना पूछे काम करने लगते हैं।

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नौकरी या बिजनेस के लिए भी वे (माता-पिता) अधिक उपयोगी नहीं रह जाते हैं। ऐसे में उनमें अपने अनुपयोगी होने का एहसास होने लगता है। उन्हें अपने जीवन की कुछ भूलें भी याद आने लगता है। उन्हें लगता है उनके परिवार के लोग अब उन्हें इतना आदर नहीं करते जितना पहले करते थे। (हालाँकि यह सच नहीं होता है)

इस स्थिति को कई बुजुर्ग स्वीकार नहीं कर पाते। वे अभी भी अपने घर का मुखिया बने रहना चाहते हैं।

आर्थिक कमजोरी

जो लोग नौकरी में होते हैं। उनमें आर्थिक दृष्टि से सुरक्षा की भावना होती है। जब वे सेवानिवृत (retire) होते हो जाते हैं। तब उनके उनकी वह जीवनचर्या बादल जाती है, जो उन्होने वर्षो तक जिया था। उनके मित्र मण्डली दूर हो जाते है। इस भावनात्मक समस्या के साथ उनमें आर्थिक असुरक्षा भी आ जाती है। अगर पेंशन मिलता भी है, तो वो भी वेतन से कम होता है। कई नौकरी में वो भी नहीं मिलता।

जो लोग किसी व्यवसाय (business) या स्वरोजगार (self-employment) में होते हैं, उनके लिए यद्यपि सेवानिवृति की कोई अनिवार्य उम्र नहीं होती है। लेकिन एक समय पर शारीरिक रूप से कमजोर होने पर उन्हें भी आर्थिक गतिविधियाँ कम करनी होती है।

आर्थिक रूप से कमजोर या दूसरों पर निर्भर होना, भी एक ऐसा सामान्य परिवर्तन है, जिसे कई लोग स्वीकार नहीं कर पाते।

भावनात्मक समस्याएँ

जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है वैसे-वैसे हमारे अपने लोग दुनियाँ छोड़ कर जाने लगते हैं। पहले माता-पिता, फिर भाई-बहन, दोस्त-सहयोगी आदि। यहाँ तक कि जीवन साथी भी साथ छोड़ कर चले जाते हैं। उनकी स्मृतियाँ उनके साथ होती है। वे उस समय की तुलना अपने वर्तमान एकाकी जीवन से करते हैं। अनजाने में ही एक खालीपन और अवसाद उनमें आ जाता है।

अपने हमउम्र लोगों की लाचारी और मृत्यु बुजुर्गों में एक भय उत्पन्न कर देता है।

सामंजस्य की समस्या का परिणाम

  1. चिंता, अवसाद, निराशा आदि नकारात्मक भावनाएँ;
  2. दूसरे लोगों की खुशी देख कर खुश होने के बदले चिढ़ जाते हैं;
  3. या तो हमेशा अपनी समस्या बताते रहते हैं या परिवार और समाज से कट जाते हैं। वे लोगों से बातचीत करना, मिलना-जुलना नहीं चाहते।
  4. कभी-कभी छोटी-छोटी बातों पर अपनी बात मनवाने के लिए जिद पर अड़ जाते हैं। अपनी प्रतिदिन की आदतें और कार्य आदि नहीं बदलना चाहते हैं, भले ही इस कारण परिवार के अन्य सदस्यों को समस्या हो। दूसरों को बात-बात पर रोकने-टोकने लगते हैं।
  5.  कुछ बुजुर्ग इन मानसिक समस्याओं के कारण खाना-पीना या तो बहुत अधिक बढ़ा देते हैं या फिर बिल्कुल ही छोड़ देते हैं। खाना पसंद नहीं आना, अपने पसंद के खाने की जिद करना आदि समस्याएँ भी होती हैं।
  6. नींद संबंधी अनियमितता कई तरह के शारीरिक और मानसिक समस्याओं की जड़ होती है। कुछ बुजुर्गों को सोने के समय नींद नहीं आती है, लेकिन बाद में आती रहती है। कुछ नींद में बार-बार जागते रहते हैं। आदि। 
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सामंजस्य की समस्या का समाधान

इन विभिन्न कारणों से उन्हें स्वयं को तो समस्याएँ होती ही है, उनके परिवार वालों को भी होती है।            

  1. अपने जीवन का कोई न कोई लक्ष्य निर्धारित करें और अपने को हमेशा व्यस्त रखें;
  2. अपने दिमाग को कभी खाली नहीं रहने दें। कुछ-न-कुछ नया सीखने का प्रयास करें। दिमागी पहेली आदि को सुलझाए। हो सके तो कोई नई भाषा आदि सीखें। शरीर की तरह दिमाग को भी व्ययाम की जरूरत होती है। 
  3.  शैशववस्था, किशोरावस्था, युवावस्था और प्रौढ़ावस्था की तरह वृद्धवस्था भी जीवन क्रम में स्वाभाविक रूप से आता है। इसे सहज भाग से स्वीकार करें। न तो अनावश्यक रूप से युवा और ऊर्जावान दिखने का प्रयास करें और न ही वृद्ध होने का;
  4. अपने स्वास्थ्य को समझे और उसके अनुसार भोजन, व्यायाम, दवाएँ, चेक-अप आदि समय पर करें जिससे आपका स्वास्थ्य ठीक रह सकें। भोजन में तेल-मसालों के बदले मौसमी फल और सब्जियों की मात्र बढ़ाएं। इस बात का विशेष रुप से सावधानी रखें की आप कहीं गिरने न पाएँ। 
  5. नींद संबंधी अनियमितता न करें। समय पर और पर्याप्त नींद लें।
  6. लोगों से मिलते-जुलते रहें। लोगों के विचारों, भावनाओं, समस्याओं को सुने और समझे। अपनी समस्याएँ ज्यादा न तो सुनाएँ और न ही इस पर स्वयं सोचें।                                  

अगर आप इस तरह के दृष्टिकोण के साथ जिएंगे जो आप जीवन के अन्य फेज की तरह इस अंतिम फेज को भी एंजॉय करेंगे।

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