समकालीन हिंदी कविता में वसंत

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महानगर में हूं तो “कूलन में केलिन में बगर्यो बसंत है” का आभास तो दूर-दूर तक नहीं है। अलबत्ता ईस्वी कैलेंडर में छुपा विक्रमी पंचांग जरूर बता रहा है कि वसंत पंचमी आ रही है। कुछ पारंपरिक घर हैं कि पूजन करेंगे, तो बाजार से पूजाकर्म की चीजों का दिखना हो जाएगा। बहुत हुआ तो शालाओं में प्रवेश का दिन भी हो सकता है दक्षिण में। कुछ साहित्य प्रेमी निराला को वसंत का अग्रदूत मान कर श्रद्धांजलि दे दें। मगर वो जो बयार है, फूलों-कलियों पर भौंरों की गुंजार है, सरसों के पीले खेत हैं, नई धानी चूनर है, नासिका में सुगंध की उठान है, प्रकृति की मधुमती सज्जा है, वह तो आभासी दुनिया में ड्राइंग रूम के संचार साधनों में ही इतराते हैं। और शहराती दुनिया में जैसे होली का रंगीन छींटा दिन भर में कपड़ों पर छकता नहीं है, वैसे ही जीवन भी ऋतुराज के सारे एंद्रिय स्पंदन से अछूता सा है।

बी.एल. आच्छा
पेरंबूर, चेन्नई (तमिलनाडु) 

पर यादें गमक जाती हैं। कालिदास ने ऋतुसंहार में घोषित किया था- “सर्वप्रिये चारुतरं वसंते”। रासो- साहित्य से लेकर रीति साहित्य तक, बारहमासा से लेकर मुक्तक छंद तक, आलंबन से लेकर उद्दीपन तक रसराज वसंत जीवन का नया संवत्सर बन जाता है। वसंत तो जीवन की आकांक्षाओं का प्राणभूत है। गंध का समारोही उल्लास है। पंखों की थिरकती आकाशचर्या है। बीज का पुष्पोत्सव है। पूरी प्रकृति, मानव और जीव-जंतुओं के लिए खिलने का मौसम है। यह वसंत केवल बौराई अमराई का उल्लास नहीं है। पलाश की आभा भर नहीं है। मनुष्य की जीवनीशक्ति की निर्बंध आकांक्षा का सूत्रपात है। वरना क्या निराला यह कह पाते- “अभी न होगा मेरा अंत/अभी अभी तो आया है मेरे जीवन में नव वसंत। “कामायनी की श्रद्धा की माधुरी वाणी सुनकर चिंताक्रांत मनु क्या कह पाते- “कौन हो तुम वसंत के दूत!” और अज्ञेय भी प्रकृति को इस रूप में सजा पाते-” पीपल की सूखी खाल स्निग्ध हो चली/सिरिस ने रेशम से वेणी बांध ली/ नीम की बौर में मिठास देख /हंस उठी कचनार कली /टेसुओं की आरती सजा /बन गई वधू वनस्थली।”

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मगर आज इस वनस्थली वाले बसंत का पता महज कैलेंडर से चल रहा है। समय बदलता है, जीवन शैली बदलती है। सभ्यताएं अलग से करवट लेती हैं। प्रकृति का प्रभासी सौंदर्य तकनीक में आभासी बनता चला जाता है। फूलों के रंग कागज में उतर आते हैं। जंगल की पुष्पगंध और फलों के रस बोतलबंद रसायनों में एसेंस बनते चले जाते हैं। जिंदगी ड्राइंग रूम में सूर्य किरणों को ढकते परदों के भीतर ऑडियो- वीडियो की आभासी दृश्य तरंगों में वैभव मनाती है। तो लगता है जंगल से आ रहा वसंत टोल नाके पर ही सहमा सा बैठा है।

कितना बदलाव है दृश्यों में। अनुभूतियों में। जीवन के स्पंदन में। हाल ही में तो मंगलेश डबराल ने रचा था-” हमारी स्मृति में /ठंड से मरी हुई इच्छाओं को फिर से जीवित करता/धीमे -धीमे धुंधवाता/ खाली कोटरों में /घाटी की घास फैलती रहेगी रात को/ ढलानों के मुसाफिर की तरह /गुजरता रहेगा अंधकार।” धूमिल जैसा बेलाग कवि जब वसंत से बात करता है, तो उस लम्हे में कितना उत्तेजन भर देता है-“/ नीचे उतर/ आदमी के चेहरे को /हंसी के जौहर से/ भर दे /परती पड़े चेहरों पर /कब्जा कर/ हलकू को कर जबर।” पर इसके ठीक उलट समय के बदरंग को पहचानता मनोज श्रीवास्तव का एहसास सच्चाई से परे नहीं है-” दरवाजे पर आ बैठा वसंत/ झूठी शान से ग्रस्त/ शब्दकोशों से परित्यक्त/ अप्रिय तत्सम शब्द की भांति/ वसंत/ जिसके प्रदूषण साये में ढल रहा है/ एक पोलियोपीड़ित देश/ जिसका बहुरंगी परिवेश।”और इसकी परिणति के साथ वे समूची सांस्कृतिक यात्रा इस कठघरे में सवालों से गिर जाती है-” नव संस्कृति के बेशुमार बदतमीज शब्द /जो आए दिन सार्थक होते रहते हैं /तमतमाते रोजनामचे में/……. महानगरीय चौराहों पर /अजूबे जीवनादर्शों में।”

यों वसंत में वन कितना छिटका होगा, यह ठाकुरप्रसाद सिंह ‘दिन बसंत के’ में जरूर कहेंगे -“फूल चंद्रमा का झुक आया है धरती पर /अभी अभी देखा मैंने वन को हर्ष भर।” मुझ में भी फिल्मी संगीत की ध्वनित हो जाता है-” आधा है चंद्रमा रात आधी, रह न जाए तेरी मेरी बात आधी।” मगर यह तो अरमानों का मधुरिम संगीत है। चांदनी और चंद्रमा मेरी खिड़की से कहां झांक पा रहे हैं। एयर कंडीशन लगे बेडरूम में खिड़की पर पर्दे जो लटके हैं। मन के आकाश में छिटका चंद्रमा गीत गाने को मजबूर कर रहा है। पर परदों की नयी सभ्यता चांद-चांदनी को बाहर ही रोके है। मल्टी सभ्यताओं में तो वह दुर्लभ दर्शन है। बकौल चंद्रकांत देवताले- “वसंत कहीं नहीं उतना असर कर रहा /जितना चिड़ियों की चहक-फुदक में /अखबार के मुखपृष्ठ पर तो कुछ भी नहीं।” और ऋषभदेव शर्मा तो दो टूक कह जाते हैं स्वयं को जीव- भक्षी पौधा मानकर- “वसंत मुझ पर मत आना /मेरे रंग झूठ हैं- इंद्रजाल हैं/ खींचते हैं अपनी और मासूम तितलियों को /चहचहाते परिंदों को/ उन्हें क्या पता- मेरे रंग मौत के रंग है।”

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अब कितने बदल गए एहसास, वसंत के रंग-राग। नई सभ्यता की नई हवाओं, बाहर-भीतर की नई परतों ने केवल इतना ही नहीं कहलवाया है -“यह उपमान मैले हो गए हैं, देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच।” बल्कि सभ्यता की मल्टियों में, मॉल के रंगीन बाजारों में, श्रव्य-दृश्य के नये आविष्कारों में, अभिनय के परदों पर ये उपमान गायब से ही नहीं हो रहे, उपभोक्ता संस्कृति का बाजार बन वसंत की समानांतर संस्कृति का राग-रंग बन गये हैं। अमित जैन ‘मौलिक’ जब लिखते हैं -“नये फूल गुंचे तितली कुछ/ ख्वाहिश हो मचली मचली कुछ/ इन सबका मकरंद बनाकर/ शीशी में गुलकंद बनाकर।” महानगरीय संस्कृति के यह चमचमाते रंग, शीशियों में भरे स्वाद, कतरब्योत वाले फैशन वस्त्रों में चलते-फिरते शोरूम की तरह वसंत वनस्थली से कहीं दूर अटका है।

पर सारे नये उपमानों के बाद भी हिंदी कविता में वसंत के उर्वर अंतस्तल को धकेला नहीं जा सका है- “दो रागिये- बैरागिये/ हेमंत और शिशिर/ अधोगति के तन में जाकर पता लगाते हैं उन /जड़ों का/ जिनके प्रियतम-सा उर्ध्वारोही दिखता है अगला/ वसंत।” लीलाधर जगूड़ी की कविता में वसंत अंदर में जमा है। निराला इस अंत:प्रसारको पूरी प्रकृति और हिंदी कविता में देख रहे थे- “रूखी री यह डाल वसन वासंती लेगी।” वसंत में जीवन की आकांक्षा उपभोक्ता संस्कृति में, तकनीक के ब्रह्मांड में, परदों की सभ्यता में कितनी ही दबी-छुपी हो; याकि निपट गरीबी के रंगहीन जीवन में, मगर ओम पुरोहित कह ही जाते हैं- “आ ऋतुराज! बाप की खाली अंटी पर /आंसू टलकाती /सूरज की अधबूढ़ी बिमली के /हाथ पीले कर दे/ पहिना दे भले ही/ धानी सा सुहाग जोड़ा।”

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हिंदी कविता में छायावादी कवि-मन गा उठता था- “प्रथम किरण का आना रंगिणि तूने कैसे पहचाना” या कि प्रसाद के गीत की तरह- “तुम कनक किरण के अंतराल में लुकछिप कर चलते हो क्यों!” पर बदलते समय में प्रतिमान और उपमान बदल गए। प्रकृति- संस्कृति उपभोक्ता- संस्कृति में बदल गई है। जीवन के  उद्दाम रंग अब सिनेमाई अभिनय रंगों में उतर आये हैं। पर सारे तीखे, मटमैले, प्रदूषण से धूमिल, एहसासों में कृत्रिम मनोभावों में भी वसंत चाहे रफूघर बनकर आए या लीलाधर जगूड़ी की कविता में आदिम चर्मकार बनकर। मगर वसंत हिंदी कविता का अंतरंग पैरोकार है। जो न जीवन से छिटकता है, न कविता से नदारद हो पाता है‌” पंक्ति दर पंक्ति पेड़ों के आत्म-विवरण की नई लिखावट /फिर से क्षर-अक्षर उभार लाई रक्त में/ फटी, पुरती एड़ियों सहित हाथ चमकने लगे हैं/ पपड़ीली मुस्कान स्निग्ध हुई/ आत्मा के जूते की तरह शरीर की मरम्मत कर दी/ वसंत ने/ हर एक की चेतना में बैठे आदिम चर्मकार /तुझको नमस्कार‌।” आदिम चर्मकार की यह वासंती जीवट चाहे रीतिकाल के किलकंत बसंत की तरह न उभरे, मगर आकांक्षा का चमकदार संसार अंत:संसार इसमें सचेतन है। भले ही जल गया हो कामदेव, पर सखा वसंत इसी अनंग की आनंद की काम चेतना को सूखने नहीं देता।

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