वृद्धावस्था और खुशियों की चाबी

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वृद्धावस्था में प्रायः ऐसा देखने मे आता है कि अपनी जरूरत की हर छोटी-बड़ी चीज के लिए दूसरों पर निर्भरता बढ़ती चली जाती है। यहाँ तक कि अपने मन की खुशियों के लिए भी हम दूसरों पर निर्भर रहने लगते हैं, चाहे वह अपना कोई पारिवारिक सदस्य हो या रिश्तेदार या फिर कोई मित्र या अन्य परिचित व्यक्ति हो। अपनी जरूरतों और खुशियों के लिए हम दूसरों से कोई-न-कोई अपेक्षा रखने लगते हैं। बाद में जब ये अपेक्षायें पूरी नहीं होती तो मन स्वाभाविक तौर पर दुखी होता है।

      वृद्धावस्था में, खासकर बुजुर्ग महिलाओं के लिए, जो पति या बच्चों पर आश्रित होती हैं या दुर्भाग्यवश जिनका इस दुनिया मे अपना कोई नही होता, उनके साथ तो ये मजबूरी होती है कि अपनी हर छोटी-से-छोटी जरूरत के लिये दूसरों पर ही निर्भर रहे। ऐसी स्थिति में किसी से जो सेवा-सत्कार मिल जाये वही गनीमत है। बड़ी अपेक्षायें पालने से यहाँ  कोई विशेष लाभ नहीं होने वाला।

      यहाँ दिगर यह भी है कि जिनका भरा-पूरा परिवार होता है, घर मे पति, बेटे, बहुएँ और उनके बच्चों के होते हुए भी वृद्धावस्था में कई लोगों को उपेक्षा और एकाकीपन का सामना करना पड़ता है। ऐसे भी कई वृद्ध देखने को मिल जाते हैं जिनकी माली स्थिति अच्छी होती है, उनके पास पेंशन या फिर किराये के रूप में आय आदि की ठीक-ठाक व्यवस्था होती है, फिर भी भावनात्मक रूप से वे परिवार में कहीं-न-कहीं अपने आप को उपेक्षित और आत्मीयता से दूर अलग-थलग से महसूस करते हैं।

      यहाँ ये भी गौरतलब है कि एक अवस्था के बाद जब बच्चों की हमसे सारी जरूरतें पूरी हो जाती है, तो एक आम धारणा बनती है कि बच्चे बड़े होकर अपने वृद्ध माता-पिता का पूरा ख्याल रखेंगे। माता-पिता को भी स्वाभाविक रूप से अपने बच्चों से ऐसी अपेक्षायें होती ही है। आखिर जिस बच्चे को माता-पिता जन्म से लेकर युवावस्था तक, फिर उसकी शादी और घर बसाने के बाद उसके बच्चों तक का ख्याल रख सकते हैं क्या वो बेटा वृद्धावस्था के आखिरी समय में उनकी थोड़ी भी सेवा नहीं कर सकता है?

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      सभी ऐसा सोचते हैं कि हमने इनके लिए इतना किया तो इन्हें भी हमारे लिए कम-से-कम इतना तो करना ही चाहिए। मन-ही- मन हम बच्चों से अपनी अपेक्षाओं की एक पूरी लिस्ट तैयार कर के बैठे होते हैं। फिर जब ये अपेक्षायें पूरी नहीं होती है या आधी-अधूरी पूरी होती है तो मन में एक विषाद, खिन्नता औऱ तनाव की भावना पनपने लगती है। जिसका एक बहुत ही नकारात्मक प्रभाव हमारे दैनिक जीवन के व्यवहार और क्रियाकलापों पर देखने को मिलता है।

      इससे बचने का यही एकमात्र उपाय है कि हम अन्य लोगों से, चाहे वह परिवार का कोई नजदीकी सदस्य हो या फिर दूर का कोई रिश्तेदार हो या फिर अन्य कोई भी व्यक्ति, उनसे हम अपनी अपेक्षाओं को कम-से-कम तक सीमित रखें या फिर नगण्य कर लें। अपना जो भी खुद का काम हो उसे स्वयं करने का प्रयास करें और अपने कार्यों में व्यस्त और खुश रहें। जब किसी से कोई अपेक्षा ही नहीं रहेगी तो मन हल्का भी रहेगा औऱ संतुष्ट भी।

      कहने का सार सिर्फ यही है कि हमारी खुशियों की चाबी हमारे अपने ही हाथों मे है। इसे दूसरों के पास ढूँढने की कोई जरूरत नहीं होती। दूसरों के कार्य या व्यवहार हमें प्रभावित जरूरत करते हैं, लेकिन उसे अपने ऊपर हावी होने देने की जरूरत नहीं है। हमें तो अपने अंदर झांकने की जरूरत है कि कहीं हमने अपने मन की खुशियों की  चाबी ईधर-उधर तो नहीं रख दी है या किसी ऐसे के हाथों में तो नहीं सौंप दी है जिसे हमारी कोई परवाह ही नहीं है। यदि ऐसा है तो एक नई पहल करने की जरूरत है।

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      अक्सर हम किसी विशेष और बड़ी खुशी की तलाश में खुशियों के छोटे-छोटे मौके को नजरअंदाज कर देते हैं। छोटी-छोटी खुशियों के अवसर तलाशने के प्रयास करें। उन्हें जीने का प्रयास करें। इस बात की पहचान करने की कोशिश करें कि किन चीजों से हमें खुशी मिलती है? अपने आसपास उन्हें तलाशें। वे बिखरी पड़ी हैं, उन्हें देखने और पहचान करने का नजरिया विकसित करें।

      कमियाँ औऱ खूबियाँ सभी व्यक्ति में होती है। कमियों को नजरअंदाज कर हमें दूसरों के गुणों को देखने का प्रयास करना चाहिये। किसी की कमियाँ गिनने और शिकायत करने बैठेंगे तो खुशियों के कई सारे मौके अगल-बगल से निकल जायेंगे। उन्हें अपने हाथों से न जाने दें। उन्हें संजोने का प्रयास करें। अपने जैसे मित्रों से बराबर मिलते रहें। अपना एक ग्रुप बना लें। आपस मे बातें करें। मन हल्का रहेगा। अपनी रूचियों को भी तलाशें। उनमें इन्वॉल्व रहने का प्रयास करें। फिर देखें कि मन कैसे प्रसन्नचित्त रहता है और खुशियों की सारी चाबियां अपने हाथों मे रहती है।

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