लक्ष्मीपूजा (लघुकथा)

Share
टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”
व्याख्याता (अंग्रेजी)
घोटिया-बालोद (छत्तीसगढ़)
 

धनतेरस का दिन था। ऐसा लग रहा था मानो, कार्तिक मास की काली रातों ने सच में रंजन के घर-परिवार को ढँक लिया हो। रंजन की पत्नी मालती छ:-सात माह से डायलिसिस पर थी। पूरे परिवार की हालत खराब थी। फिर आज तो उसकी कंडीशन कुछ और ज्यादा ही क्रिटिकल हो गयी। वह बार-बार करवटें बदल रही थी। “ऋषभ के पापा! मेरी सेवा तो कर रहे हो जी। मेरे जाने के बाद तुम्हारा क्या होगा; सोच कर तुम्हारे लिए मुझे बहुत दुख होता है।” मालती रंजन के हाथ को अपने हाथों में लेते हुए बोली। 

“चुप रहो ना मालती। कैसी बात करती हो? अरी पगली, सीता के बिना तो राम की मूर्ति अधूरी होती है। फिर तो मैं…” रंजन ने मालती के बालों पर उंगलियाँ फेरते हुए कहा। “सो जाओ ना अब जी, मेरे लिए कितनी रातें जागोगे?” मालती ने अपनी आँखें मूँद ली; और अपना सर रंजन की दाई जांघ पर पर रख लिया।

“ठीक है…” कहते हुए रंजन मालती के सिरहाने पर बैठे दीवार पर टिक गये। कितने समय उनकी नींद लगी, उन्हें पता नहीं चला। जब उनकी नींद खुली तो देखा मालती की साँसें थम चुकी थी। उन्होंने रात को किसी को कुछ बताना उचित नहीं समझा। सुबह दस बजे मालती की अर्थी उठी।

श्मशान भूमि में उठती चिता की लाल-पीली लपटें रंजन को मालती की गौरवर्ण देह पर लिपटी साड़ी के पल्लू की याद दिला रही थी। त्यौहार होने के कारण सामाजिक नियमों के चलते आज एक ही दिन में संपूर्ण शोक कार्यक्रम संपन्न हुआ। 

दूसरे दिन शाम को रंजन के तीनों बेटे ऋषभ, सौरव, पूर्वेश व बहुएँ रंजन के करीब आये; बोले- “पापा जी! चलिए ना, पूजा की तैयारी हो चुकी है। लक्ष्मीपूजा करेंगे अब।” रंजन की तरह तन्द्रा भंग हुई। रंजन की आँसुओं के दरिया में घायल हंस सरीखी आँखें तैर रही थी। बोले- “घर में लक्ष्मी ही नहीं रही, फिर लक्ष्मी पूजा का क्या मतलब…?” वे आगे कुछ और कह ही रहे थे कि तीनों बेटे रंजन की छाती से लिपट गये।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top

Discover more from

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading