‘नहीं है’ का होना  

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महाभारत का एक बहुत ही विशिष्ट पात्र हैं कर्ण। वह एक विरल वीर और दानी थे  लेकिन इतिहास में वह नायक नहीं बल्कि दुखांत नायक के रूप में याद रखे गए। कारण था उनका सामाजिक स्तर क्रम में छोटी (शूद्र) मानी जाने वाली जाति “सूत” का होना। ऐसा कारण स्वयं कर्ण ने माना। ऐसा मानने में वह कितना सही थे, यह उस समय के ही दो अन्य पात्रों से तुलना करके देख सकते हैं। पहले पात्र थे स्वयं भगवान कृष्ण और दूसरे पात्र थे, रोमहर्षण सूत।

      कर्ण को द्रौपदी ने जब स्वयंवर में भाग लेने से मना कर दिया तब इस अपमान से वह इतना व्यथित हो गए कि दुर्योधन के “दिए हुए” “अंग” देश को स्वीकार कर अपने को राजवंशियों के समकक्ष बनाने का प्रयास किया। ऐसा कर उन्होने अपने समस्त पराक्रम को दुर्योधन के एहसान तले दबा दिया। उनमें इतनी क्षमता थी कि वह अपने बल पर राज्य स्थापित कर सकते थे। लेकिन उन्होने ऐसा नहीं किया क्योंकि उनमें इतनी क्षमता नहीं थी कि एक स्त्री द्वारा किए गए अपमान को सह सके और शांत होकर अपने पराक्रम के सही उपयोग करने के लिए सोच सके।

      जाति के मामले में कृष्ण भी तीसरे वर्ण में आते थे। उनका बचपन एक ग्वाला मुखिया के घर साधारण गौ पालकों के बीच ही बीता था। यहाँ तक कि कंस को मारने तक उन्होने न तो कोई औपचारिक शिक्षा ली थी और न ही युद्ध या किसी अन्य तरह का कोई प्रशिक्षण। कृष्ण का वंश भी कोई बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं था। शिशुपाल, जयद्रथ आदि प्रतिद्वंद्वी उन्हें कई बार कुल को लेकर ताने भी मारते थे।

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      लेकिन कभी कृष्ण ने इन तानों को गंभीरता से नहीं लिया और न ही कभी उनका आत्मविश्वास कम हुआ या समाज के प्रति कोई द्वेष भाव आया।  गोवर्धन पर्वत को अँगुली पर उठाने का दम रखने के बाद भी कृष्ण को रणभूमि से भाग कर “रणछोड़” बनने में कोई शर्म नहीं आई क्योंकि कभी-कभी पीछे हटना या अपमान सह लेना भी दीर्घकालीन जीत के लिए जरूरी होता है। शायद यही कर्ण नहीं समझ सके थे।  

      चलो मान लेते हैं कृष्ण भगवान थे, इसलिए कर्ण की उनसे तुलना नहीं की जा सकती है। तो दूसरा उदाहरण एक अन्य “सुतपुत्र” रोमहर्षण का है। अगर शूद्र वर्ण के लिए क्षत्रिय का कर्तव्य (जैसा की कर्ण कर रहे थे।) वर्जित था तो ब्राह्मण के लिए आबंटित धर्म ग्रंथों का पठन-पाठन भी अनुमत नहीं था। लेकिन ऐसे समय में रोमहर्षण ने न केवल इन ग्रंथों का ज्ञान प्राप्त किया बल्कि ब्राह्मणों को उन ग्रंथों को उपदेश भी दिया। वे संभवतः भारत के सबसे सफल कथा वाचक हुए हैं। इतना ही नहीं इसी समाज के ब्राह्मणों ने उन्हे “ब्राह्मण” का पद दिया।

      सामाजिक स्तर पर ये तीनों लगभग समान थे। लेकिन इनकी सोच ने इन्हे अलग बनाया। कर्ण में हमेशा यह भावना रही कि वह जो सम्मान या उपलब्धि पाने के हकदार थे, केवल इसलिए नहीं पा सके क्योंकि वह एक छोटी जाति के थे। अपने ऊँची जाति का “नहीं होने” का भाव उसमें इतना गहरा था, कि वह अपने शौर्य और सद्गुणों के “होने” का फायदा नहीं उठा सके। स्पष्ट है कि कर्ण ने यह सोचा कि उनके पास क्या “नहीं है”। जबकि कृष्ण और रोमहर्षण जैसे लोग ये सोचते थे कि उनके पास “क्या है।”

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      हमलोग भी अपने जीवन में यही करते हैं। हमारे पास जो नहीं होता है, उसके विषय में अधिक सोचते हैं। और प्रकृति का नियम है कि हम जो सोचते है वही हमे मिलता है। इसलिए क्यों न हम उन चीजों या क्षमताओं पर ध्यान केन्द्रित करें जो हमारे पास है।  

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