मनु अपने घर में सबकी दुलारी थी। उसके आगे के दो दाँत बाहर की तरफ थे इसलिए सब उसे चीकू बुलाया करते। छोटे बच्चे सौंदर्य से परिभाषित नहीं होते, उनका देवत्व उन्हे सर्व प्रिय बनाता है। पर जैसे-जैसे बड़े होते हैं सापेक्षता का सिद्धांत लागू होने लगता है।

लखनऊ, यूपी
यही सिद्धांत मनु पर भी लागू हुआ और अधिकांश बराबर दाँत वाले लोगों में वह विचित्र हो गयी। स्कूल में सब उसे चिढ़ाते। क्रोध से भरी जब वो घर आती तो माँ बड़े प्यार से समझाती। उसके अन्यान्य गुणों को बताती, सर्वश्रेष्ठ जताती और मनु सब भूलकर खेल में लग जाती।
बचपन में मानस पटल पर लिखना और मिटाना अधिक सहज होता है। इसलिए स्कूल की बातें मनु घर आते भूल जाती। पर युवा होने पर शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक परिवर्तन सब बदल देते हैं। मुखर क्रोध का स्थान शर्मिंदगी ले लेती है। यही हो रहा था मनु के साथ। युवा मनु अब क्रोध से नहीं भरती। घर आकर चुपके से कमरे में घुस जाती। दरवाजा बंद कर देर तक अपने को देखती। दाँतों को जबरदस्ती होठों में कैद करने की कोशिश करती, फिर थककर बैठ जाती।
माँ का बहलाना अब काम नहीं करता। सब मिथ्या लगता। माँ बखूबी उसकी इस परेशानी को समझती पर उनका प्रौढ़ मन कभी कभी खीजता। उन्हें पता था मनु अपने इस नक्शे के अनुरूप धीरे धीरे हो ही जायेगी पर तब तक उहापोह लगी रहेगी।
कॉलेज की पढ़ाई समाप्त होने को थी। अब रिश्ते की बातें होने लगीं। नाते-रिश्तेदार सबके कान में डाला गया कि कोई अच्छा रिश्ता हो तो बताये। मनु चुपचाप सब देखती, समझती। अपने चयन का कोई प्रश्न नहीं था। मनु ने स्वयं को कभी इस योग्य समझा ही नहीं। रिश्तेदारी बड़ी थी सो आये दिन किसी ना किसी का रिश्ता आता।
मनु शुरुआत में बड़े मन से अपने को सवाँरती। होठों को ढँककर देखती तो अपने पर नाज होता पर चेहरे के इस अहम हिस्से को कैसे छिपाती? सबकी भाव भंगिमा देखकर उसे पहले ही पता हो जाता कि उत्तर ना है। एक के बाद एक ना ने उसे इसका आदी-सा बना दिया। अब ना तो उसे तैयार होने का उत्साह होता, ना ही किसी से मिलने का। हंसमुख और सरल स्वभाव पर अब चिड़चिड़ापन अपना डेरा डाल रहा था। माँ भी धैर्य खोकर अब कभी-कभी कुछ भला-बुरा कह जाती। बाद में पछताती पर मनु के छलनी हुए हृदय का क्या? बातों के तीर जब चलाये जाते हैं तो यह कहाँ याद रहता है कि बेधन में पल का दशांश लगता है, पर उसका घाव भरने में अधिकाधिक समय लग जाता है।

दो वर्ष ऐसे बीत गए। अब रिश्ते में सर्वप्रथम वो बता दिया जाता जो प्रायः सबको अस्वीकार्य था। भीड़ कम हो गयी। अब इस मुद्दे पर चुपके से बात होती क्योंकि मनु अगर विस्तार सुनती तो दुःख से भर जाती। दाँतों की इस जरा ऊँचाई ने उसके जीवन को इतना नीचा कर दिया था कि संतुलन के लिए अब कुछ खोट लिए रिश्ते आने लगे। ना अब हाँ में बदलने लगा। पर ना तो कोई उत्साह था ना ही खुशी।
मनु का कोमल मन इस उथल-पुथल से चोटिल हो चुका था। निराशा ने उसे घेर लिया था। मनु की एक सहेली ने उसे समझाया कि इतने निराश मन से नए जीवन का आरंभ सर्वथा अनुचित था। मित्रता का रिश्ता कई मामलों में सब रिश्तों पर भारी होता है। तभी मनु ने अपना हृदय अपनी सहेली के आगे खोलकर रख दिया था। उसकी सहेली उसे अपने एक मित्र- शरद, के पास लेकर गयी। शरद ने हाल में ही मनोविज्ञान मे डॉक्टरेट की डिग्री ली थी। अब उसने अपना निजी क्लिनिक खोला था। प्रैक्टिस की शुरुआत होने से वह भी अधिक व्यस्त न थे। मनु की समस्या सुनते और बिना हड़बड़ी के उसकी काउंसलिंग करते।
इसी क्रम में उनकी मुलाकात होती और घंटों बात होती। दोनों में मित्रवत भाव पैदा हुए और एक-दूसरे से कब सहज हो गए उन्हें पता ही नहीं चला। मनु अब भी हीनता से पूरी तरह उबर नहीं पायी थी। शरद से मित्र भाव तो था पर कृतज्ञता और लाचारी के भाव भी पीछा नहीं छोड़ते थे। शरद मनोचिकित्सक होने के साथ-साथ एक अति उदार हृदय के व्यक्ति थे। उन्हे मनु की कृतज्ञता से प्रेम हो गया था। उनका प्रेम शारीरिक सीमाओं से ऊपर उठकर मनु को हृदय के सिंहासन पर बिठाना चाहता था। निराशा से भरे उसके जीवन में चंद्रमा का शीतल प्रकाश भरना चाहता था।
शरद ने जब मनु के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा तो उसे लगा जैसे वह कोई स्वप्न देख रही हो। वह कोई उत्तर ना दे सकी, बस सजल हो गयी आँखों को झुकाकर मौन स्वीकृति दे दी। बहुत धूमधाम से विवाह सम्पन्न हुआ। जो सपने शरद ने मनु के लिए बुने थे, विवाहोपरांत सब सच हुए जाते थे। पर उनकी दिशा अलग थी। मनु को किसी सिंहासन की अभिलाषा न थी, उसने तो अपने मन मन्दिर में शरद को तभी बिठा दिया था जब उसने उसके हृदय से प्रेम किया था।
शरद का जीवन मनु के प्रेम प्रकाश से आलोकित हो रहा था। यह प्रकाश इतना शीतल और धवल था जिसकी शरद ने कभी कल्पना नही की थी। वह अपने निर्णय पर गौरवान्वित था।
****