
था बिछोह दो दशकों का भारी,
विलग हो हुई अधूरी;
बस साँसे थी तन में,
शक्तिहीन मन-प्राण।
थे कुछ शिकवे और शिकायत,
उस अनंत सत्ता से;
बनी फरियादी दिया फरियाद;
याद किया तुम्हें जब-जब,
नयन नीर सजल,
अधीर मन-प्राण
हुई आज पुनः संबल
पाकर तुमको
एक क्षण सहसा चौंकी!
कहीं दिवा स्वप्न तो नहीं॥
बातें कर तुमसे बहुत रोई,
होती जो तुम साथ मेरे;
मिलकर हम देते जग को नई दिशा
एक नया क्षितिज एक नया उजियारा॥
हाँ! वो तुम्हीं तो थी
करती थी मुझमें नव ऊर्जा का संचार;
विलग हो हुई स्वप्न विहीन आँखें।
थे पथ दिशाहीन;
था संघर्षरत तन,
पथ पर थे अंगारे,
झुलस रहा था मन-प्राण,
काश होती जो तुम,
पथ के शूल बनते फूल,
अंगारे देती शीतलता।
उहापोह में नन्हा अंकुर आया भीतर;
हुआ नाभिनाल आबद्ध,
हुई ममत्व से सम्बलित।
क्या भुलूँ क्या याद करूँ?
कहाँ-कहाँ से गुजर गई?
अस्तित्व के जद्दोजहद में,
वय के चार दशक बीत चुके हैं,
पांचवे की दहलीज पर हूँ खड़ी।
शब्द तुम्हारे मैंने सहेजे
बना सम्बल जब-जब टूटी मैं;
अश्रुपूरित नयन पढ़ती थी संदेशा,
गिरती थी, बिखरती थी, बढ़ती थी आगे;
बस है यही कहानी॥
तुम नहीं बदली बिल्कुल;
आज भी हो वैसी हीं,
विधि के ये एहसान नहीं कम;
पाया तुमको फिर से
आओ बैठे कुछ क्षण;
मैं बोलूं तुम सुनना,
दो दशकों का दूँ;
तुमको लेखा-जोखा,
तुम कुछ अपनी कह लेना;
मैं सुनाऊँ सबसे ज्यादा॥
तुम्हारी चंद पंक्तियाँ पुन: तुमको-
“जब याद आए मेरी मिलने की दुआ करना।”
मेरी दुआ कुबूल हुई।
तुम्हारी मानस की चौपाई-
“जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू/सो तेहि मिलहि न कछु संदेहू॥”
और तुम मुझे मिली।
“तुमने कहा था ये बातें सिर्फ दोस्ती के सम्बन्ध में नहीं सपनों के सम्बन्ध में भी लागू होती है, सपने देखना कभी नहीं छोड़ना।”
***