तुम मिली …जीने को और क्या चाहिए

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डॉ अर्पणा दीप्ति, हैदराबाद 
 

था बिछोह दो दशकों का भारी,

विलग हो हुई अधूरी;

बस साँसे थी तन में,

              शक्तिहीन मन-प्राण।

थे कुछ शिकवे और शिकायत,

उस अनंत सत्ता से;

बनी फरियादी दिया फरियाद;

याद किया तुम्हें जब-जब,

नयन नीर सजल,

अधीर मन-प्राण

हुई आज पुनः संबल

पाकर तुमको

एक क्षण सहसा चौंकी!

कहीं दिवा स्वप्न तो नहीं॥  

बातें कर तुमसे बहुत रोई,

होती जो तुम साथ मेरे;

मिलकर हम देते जग को नई दिशा

एक नया क्षितिज एक नया उजियारा॥

हाँ! वो तुम्हीं तो थी

करती थी मुझमें नव ऊर्जा का संचार;

विलग हो हुई स्वप्न विहीन आँखें। 

थे पथ दिशाहीन;

था संघर्षरत तन,

पथ पर थे अंगारे,

झुलस रहा था मन-प्राण,

काश होती जो तुम,

     पथ के शूल बनते फूल,

     अंगारे देती शीतलता।

उहापोह में नन्हा अंकुर आया भीतर;

हुआ नाभिनाल आबद्ध,

हुई ममत्व से सम्बलित।

क्या भुलूँ क्या याद करूँ?

कहाँ-कहाँ से गुजर गई?

अस्तित्व के जद्दोजहद में,

वय के चार दशक बीत चुके हैं,

पांचवे की दहलीज पर हूँ खड़ी।

शब्द तुम्हारे मैंने सहेजे

बना सम्बल जब-जब टूटी मैं;

अश्रुपूरित नयन पढ़ती थी संदेशा,

गिरती थी, बिखरती थी, बढ़ती थी आगे;

बस है यही कहानी॥

तुम नहीं बदली बिल्कुल;

आज भी हो वैसी हीं,

विधि के ये एहसान नहीं कम;

पाया तुमको फिर से

आओ बैठे कुछ क्षण;

मैं बोलूं तुम सुनना,

दो दशकों का दूँ;

तुमको लेखा-जोखा,

तुम कुछ अपनी कह लेना;

मैं सुनाऊँ सबसे ज्यादा॥

तुम्हारी चंद पंक्तियाँ पुन: तुमको-

“जब याद आए मेरी मिलने की दुआ करना।”

मेरी दुआ कुबूल हुई।

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तुम्हारी मानस की चौपाई-

“जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू/सो तेहि मिलहि न कछु संदेहू॥”

और तुम मुझे मिली।

“तुमने कहा था ये बातें सिर्फ दोस्ती के सम्बन्ध में नहीं सपनों के सम्बन्ध में भी लागू होती है, सपने देखना कभी नहीं छोड़ना।”

***

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