
जनपद बुलन्दशहर
उत्तरप्रदेश
जीवन में कई अवस्थाएँ आती हैं- जैसे शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था एवं वृद्धावस्था इत्यादि। किंतु इनमें वृद्धावस्था का समय ऐसा होता है जिसमें व्यक्ति पुनः बालक बन जाता है। उसे देखभाल और प्रेम-स्नेह की अधिक आवश्यकता होती है। चेहरा झुर्रियों से भर जाता है, अकेलापन काट खाने को दौड़ता है। अस्थि पंजर धीरे-धीरे कमजोर होने लगते हैं। आँखों में कई प्रकार के दृष्टि दोष हो जाते हैं। कानों से कम सुनाई पड़ने लगता है। साथ ही साथ कार्य करने की इच्छा भी जैसे खत्म होने लगती है।
उम्र के इस पड़ाव पर प्रत्येक व्यक्ति आराम की चाह करता है। जीवन पर्यंत जो सुख सुविधाएँ उसने अपने बच्चों को दीं, उन्हीं बालकों से वह अपना ध्यान रखने की अपेक्षा करने लगता है। किंतु दुखद तथ्य यह है कि बालक बड़े होकर गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर जाते हैं, अपनी नौकरी और घर गृहस्थी में व्यस्त हो जाते हैं। वे इतने व्यस्त हो जाते हैं कि माँ-बाप की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पाते …उन्हें पर्याप्त समय नहीं दे पाते… उनकी देखभाल नहीं कर पाते …और फिर इन सब का प्रभाव वृद्धजनों के कोमल मन पर पड़ता है।
कभी-कभी ऐसा भी देखा गया है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी नौकरी से सेवानिवृत्त होकर घर बैठता है, तो वह सभी कुटुंब जनों को खटकने लगता है। अपने ही बेटे-बहू उसे भोजन के साथ कड़वी बातें भी परोसने लगते हैं। उसे फालतू और नाकारा समझ लिया जाता है। इसीलिए वृद्धावस्था में व्यक्ति को कुछ नया कार्य प्रारंभ करना चाहिए। अपना समय व्यतीत करने के लिए कुछ सकारात्मक प्रयास करना चाहिए, जिससे उसे फालतू ना समझा जाए, साथ ही साथ उसका समय भी सही ढंग से व्यतीत हो जाए।
उद्देश्य प्रेरित जीवन जीकर हम औरों के लिए भी प्रेरणा प्रदान करते हैं। साथ ही साथ समाज में मान-सम्मान एवं आदर भी प्राप्त होता है। अपना समय व्यतीत करने के लिए हम बागवानी को अपना सकते हैं, अपने पोते-पोतियों को पढ़ाई-लिखाई के लिए प्रेरित कर सकते हैं, कोई भी ऐसा घरेलू कार्य कर सकते हैं जिससे घर वालों को भी आराम मिले और हमारा भी समय व्यतीत हो जाए।
यदि हम एक दिन के लिए भी घर से किसी विवाह समारोह में सम्मिलित होने अथवा किसी अन्य कार्य से बाहर जाएँ, तो घरवाले हमारी अनुपस्थिति का एहसास करें। स्वयं को इतना उपयोगी बनाना चाहिए की सभी हमारी उपयोगिता को समझें।
वृद्धावस्था कोई बोझ नहीं है, इसका भी पूर्ण आनंद उठाया जा सकता है। भले ही शरीर कमजोर हो किंतु मन को कमजोर नहीं करना चाहिए। मन को सदैव एक बच्चा बनाकर रखें, जो बच्चों के साथ खेल सके, अठखेलियाँ कर सके। परिवार के साथ संवादहीनता नहीं रखें, वार्तालाप करते रहने से मानसिक कुंठा भी दूर होती है, साथ ही साथ परस्पर आत्मीयता भी बढ़ती है।
अंत में बस यही कहूँगी–
जीवन की पगडंडी पर चल रहे हैं हम,
मृगतृष्णा से स्वयं को छल रहे हैं हम।
रजनी का आँचल है कालिमा से पूर्ण,
दिवाकर बन निशिदिन निकल रहे हैं हम।
क़तरा-क़तरा व्यतीत हो रही है जिंदगी,
हिमखंड की मानिंद पिंघल रहे हैं हम।
शैशव, बचपन, युवा और वृद्धावस्था,
ऋतुओं की भाँति बदल रहे हैं हम।
यह पगडंडी है पथरीली सी राही,
गिरकर अक्सर संभल रहे हैं हम।
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