आत्मबोध

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सुनैना बार-बार बिस्तर से उठने की कोशिश कर रही थी लेकिन उठ नहीं पा रही थी। सिर तवे के समान तप रहा था। शरीर में दर्द से अकड़न था। दरवाजे की तरफ आँखें टिक जाती थी, इस आस में कि बहू एक कप चाय लाकर देदे। दरवाजे से किसी को आते ना देख बगल में लेटे पति की ओर देखी लेकिन वो तो बड़े सुकून से सो रहे थे।

अनीता मिश्रा ‘नवोनाथ’
दिल्ली

       विश्वासनाथ (सुनैना देवी के पति) हमेशा से घोड़ा बेचकर सोते थे क्योंकि घर-बाहर दोनों सुनैना संभाल रखी थी। विश्वासनाथ ने अपने दिमाग में बिठा रखा था कि सुनैना जो करती आई है वह सब उसी का काम है। पति का यह बर्ताव देख सुनैना का ह्रदय छलनी हो जाता था। इसी कारण कभी-कभी गुस्सा में अपने आक्रोश पति पर प्रकट कर लेती थी, लेकिन पति के कान पर जूं तक नहीं रेंगती।

तभी बहु की आवाज सुनाई दिया सुनैना देवी को “मां! मां! चाय नहीं बना?” “आराम फरमा रही है”, विश्वासनाथ का शब्द लगा जैसे सुनैना का कलेजा चीर दिया। सुनैना देवी हिचक-हिचक कर रोने लगी।

तभी विवेक कमरे में आया “क्या हुआ मां क्यों रो रही हो?” सुनैना के सिर पर हाथ रखते हुए बोला “पापा! मम्मी का शरीर बुखार से जल रहा है और आप बोल रहे हैं कि आराम फरमा रही हैं!” बेटा ने सुनैना को पानी ला कर दिया और पैर दबाने लगा। “पापा उठिए और मम्मी के लिए दवाई ला दीजिए।”

मम्मी का सिर सहलाते हुए बोला “मम्मी आप आराम करो।” विवेक ने अपनी मम्मी का संघर्ष बचपन से देख रखा था। उसे एहसास था कि मम्मी का परिश्रम, त्याग और तपस्या के कारण ही वह उच्च शिक्षा प्राप्त कर आज अच्छे ओहदे पर है। उसे अपनी मम्मी के दर्द का एहसास था। वर्तमान में भी जब मम्मी को काम करते देखता है तो उसे दुख होता है लेकिन वह करें तो क्या करें!

तभी बगल वाले कमरे से सविता (विवेक की पत्नी) की रोने की आवाज सुनाई दिया। “क्या हुआ?” बोलते हुए विवेक सविता के कमरे में गया। “क्या हुआ अभी तो तुम ठीक थी!” यह कहते हुए उसके सिर पर हाथ रख कर देखा तो बुखार बिल्कुल नहीं था। “अरे! मेरे पेट में दर्द हो रहा है, यह कहती हुई सविता पेट पकड़कर रोने लगी। बेचारी सुनैना देवी का एक कप चाय के लिए कंठ सुखता ही रहा।

“सविता! सविता! क्या हुआ? तबीयत खराब है! “यह कहती हुई सुनैना देवी की जेठानी (कमला) सविता को सिर सहलाते हुई बोली “देखो तो फूल-सी बच्ची कैसे मुरझा गई है!” विवेक के कमरे से निकलते ही कमला सविता के पास जाकर उसके कान में बोली “तेरी सास की शुरू से ही आदत है, झूठ-मूठ के नाटक करके हाय तौबा मचाने की, तुम दोनों को एक जगह नहीं देखना चाहती है। बेटा ने पैर दबा दिया ना मां का, लेकिन तेरा सिर सहलाया आके!”

सुनैना के त्याग, तपस्या और परिश्रम के यश से हमेशा कमला जलती-भूनती रहती थी। उस जहर को कमला सविता के कान में जाकर भर दी। सविता तो थी ही विवेकहीन, स्वार्थी लड़की। कमला के एक-एक शब्द ने आग में घी का काम किया। तुरंत अपनी मां को फोन लगा दी और अपनी भड़ास कमला के जहर की चाशनी में डूबो-डुबोकर मां को परोस दिया।

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तुरंत विवेक के फोन की घंटी बजी “सुनिए दमाद जी! आपको मेरी बेटी का ध्यान रखना ही होगा नहीं तो अपनी बेटी को मैं अपने पास बुला लूंगी और कभी आपके पास नहीं जाने दूंगी” विवेक सीधा आदमी थर्रा गया अपनी सास की बात सुनकर। “बात क्या है बताइए तो सही आप इतने गुस्से में क्यों है?” गुस्से में क्यों हूँ ये आप पूछ रहे हो! मेरी बेटी बीमार तड़पती रही लेकिन आप अपनी मां का पैर दबाने गए, मेरी बेटी को एक बार पूछे तक नहीं आप”, “आपको कैसे पता कि मैं पूछा नहीं” विवेक ने बड़ी विनम्रता से अपने सास से पूछा।” दूसरी बात, मेरी मां पूरे दिन सबका ध्यान रखती है। एक बार कोई उसको पूछता तक नहीं और आज जब वह बुखार से तड़प रही है, आपकी बेटी एक कप उसको चाय तक नहीं पूछी तो मैं बेटा होकर हालचाल भी ना पूछूं!”

“जब मां में ही लगे रहना है, तो मेरी बेटी से शादी क्यों किया! मैंने अपनी बेटी को बड़े लाड़-प्यार से पाला है, वह  तुम लोगों की नौकरानी नहीं है। मेरी बेटी की आंखों में आंसू नहीं आना चाहिए”, यह कहती हुई विवेक की सासु मां ने फोन रख दिया।

विवेक आंख में आंसू लिए अपनी मां के पास आया और बोला “मां क्या करोगी, आजकल समय बहुत खराब हो गया है। घर में अशांति होगी इससे अच्छा जैसे घर संभालती आई हो, वैसे संभाल लो, क्या करोगी!” विवेक की बात खत्म होते ही विश्वासनाथ बोल पड़े “वही तो मैं कह रहा हूं बेटा!” सुनैना मूक हो पत्थर की मूर्ति बनी सब सुन रही थी।

       सुनैना मन-ही-मन सोचने लगी कि “यह सब यह क्यों नहीं सोचते कि मैं भी बूढ़ी हो गई हूं। जवानी की तरह शरीर में ताकत नहीं है। मुझे भी आराम की जरूरत है, मैं भी बीमार हो सकती हूं। एक दिन बीमार क्या पड़ी, यहां तो हंगामा मच गया। मेरी हालत तो नौकरानी से भी बदतर है। नौकरानी भी महीना में दो-चार बार छुट्टी कर ही लेती है।”

सुनैना देवी अंदर ही अंदर घुटती जा रही थी, अपना दर्द किससे कहे। दूर से तो उसे सभी लोग सब सुख संपन्ना और भाग्यशाली समझते थे। लेकिन हकीकत कुछ और ही था। बेचारी सुनैना देवी एक क्षण भी शांति से आराम नहीं कर पा रही थी। अभी भी बुखार से देह जल रहा था। तब भी हिम्मत करके उठी। सिर में चुन्नी बांध कर रसोई घर में गई। गैस साफ करने के बाद चाय बनाई। बेटा, बहू, पति सबको चाय दी। सभी चुस्की लेकर चाय पी रहे थे और टीवी देख रहे थे।

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सुनैना देवी का सिर दर्द से फटा जा रहा था सबको चाय देने के बाद जब अपनी चाय का कप उठाई तो चाय ठंडी हो चुकी थी, दोबारा गर्म करके पीने बैठी और धीरे-धीरे सारा रसोई का काम निपटा के खाना बना कर रख दी। और फिर जाकर बिस्तर पर लेट गई। जैसे ही सब काम हो गया सविता के पेट का दर्द भी उड़न छू हो गया। “मां ऐसा क्या किया तुमने कि मां-बेटा दोनों ही सीधे हो गए!” ठहाके के साथ सविता के वाक्य को सुनकर, जो वह अपनी मां को फोन पर सुना रही थी, सुनैना देवी को ऐसे लगा जैसे किसी ने गर्म लोहे का रॉड कान में डाल दिया हो। स्वत: ही आंख से आंसू निकलने लगे।

तभी सुनीला (सुनैना देवी की बेटी) का वीडियो कॉल आया। सुनैना देवी जल्दी-जल्दी आंसू पोछ ली, क्योंकि जैसे ही सुनीला अपनी मां की आंख में आंसू देखती तो घर में सब की खटिया खड़ी कर देती। चाहे पिता ही क्यों ना हो। मां को देखते ही सुनीला समझ गई कि मां की हालत ठीक नहीं है। “मां तुम आराम करो” यह कहती हुई सुनीला फोन काट दी। फिर तुरंत विवेक को फोन किया” भैया मां को मेरे पास भेज दो यहां मैं डॉक्टर से दिखा दूंगी और थोड़ा जलवायु भी बदल जाएगा।” विवेक ने तुरंत सुनीला को हामी भर दिया। क्योंकि विवेक भी चाहता था कि मां आराम करें।

दूसरे दिन ही सुबह हवाई जहाज से अपनी बेटी के पास हैदराबाद पहुंच गई। वहां जाते ही सुनैना देवी को लगा जैसे बहुत बड़ा बोझ उसके सिर से उतर गया। हल्कापन अनुभव हो रहा था। बेटी चाय बना कर लाती और साथ में बैठकर ढ़ेर सारी बातें करती। बच्चे नानी- नानी कहकर सीने से लग जाते। दमाद दफ्तर से आते ही सुनैना देवी के साथ बैठकर बातें करते।

इस सबसे सुनैना देवी को असीम स्नेह शांति की अनुभूति हो रही थी। रात में कमरे में सो रही थी तभी द्वार घंटी बाजी। शायद विनीत (सुनैना देवी के दमाद)आए। “मां सो गई क्या, खाना खाई कि नहीं?” “हां खाई” सुनीला के जवाब सुनते ही विनीत बोला “कितना अच्छा लग रहा है ना, बच्चे भी बहुत खुश है मां के आने से लग रहा है हमारे घर में शुभता भर गई है।” “हां बच्चे तो कहते हैं कि अब कभी नानी को वापस नहीं भेजना।” सुनीला ने मुस्कुराते हुए बोला। “देखो ना अभी सब कुछ खुशी-खुशी कर लेते हैं, पढ़ाई भी, होमवर्क भी। नानी भी खेल-खेल में पढ़ा देती है” खाते-खाते विनीत बोला।

इतनी स्नेह पूर्ण बातें सुनकर सुनैना देवी की आंखों में आंसू छलक आए। और सोचने लगी “अपने घर में दिन-रात परिश्रम करने के बाद भी बहू मुंह लटका के रहती है। सबका ध्यान मै रखती थी, लेकिन मेरा ध्यान कोई नहीं रखता था।” दो महीना में सुनैना देवी बिल्कुल स्वस्थ हो गई, अपना चेहरा शीशे में जब देखती तो उसे पुरानी दिन की याद आने लगी। ससुराल में जब कभी वह नए कपड़े पहन कर सजती थी तो सब उसकी सुंदरता को निहारते रह जाते थे। मोहल्ले पड़ोस के सभी बुजुर्ग सास, जेठानी बार-बार घुंघट उठा कर चेहरा देखते थे। और कहते “साक्षात दुर्गा स्वरूपा है। “महानगर में आकर घर परिवार की जिम्मेदारियों का बोझ उठाते- उठाते अपने आपको सुनैना भूल ही गई।

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बेटी और दामाद के प्रोत्साहन से सुनैना देवी ने  लिखना शुरु कर दिया। कुछ ही दिनों में सोशल मीडिया पर उनका लेख छा गया और एक अच्छी लेखिका के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त कर ली।

इधर विवेक का घर तो तहस-नहस हो गया।  किसी को समय पर खाना नहीं मिलता था। बाहर का खाना खा-खा कर सबका स्वास्थ्य खराब हो गया था, सब राह देख रहे थे कि सुनैना घर में आ जाए। लेकिन किसी को हिम्मत नहीं हो रहा था कि फोन करें। इन लोगों को एहसास हो गया था कि एक औरत पूरे घर को संभाल रखी थी। लेकिन सब मिलकर एक घर आज नहीं संभाल पा रहे हैं। विवेक ने नौकर भी रख लिया फिर भी घर में कोई समय सारणी नहीं था घर और अस्त व्यस्त हो गया क्योंकि सविता मां बनने वाली थी। सविता बिस्तर से उठ नहीं पा रही थी। उसे खाने में कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। बहुत कमजोर थी विवेक कितना ध्यान रखें उसे दफ्तर भी तो जाना था।

सविता ने कई बार अपनी मां को बुलाना चाहा, लेकिन हर बार उसकी मां उसे यह कहकर डपट देती कि उसे अपना घर भी तो संभालना है। वहीं दूसरी तरफ, विश्वासनाथ का भी बुरा हाल हो गया था। वह भी हमेशा बीमार ही रहने लगे। आज उन्हें भी पूछने वाला कोई नहीं था। इसीलिए आज उन्हें सुनैना देवी पीड़ा की अनुभूति हो रही थी और अपने व्यवहार पर पश्चाताप हो रहा था।

निर्मला (कमला की बहू) की आवाज सुनकर सविता बोली “निर्मला! निर्मला! एक मिनट के लिए इधर आना” “हां दीदी” निर्मला सविता के सामने खड़ी हो गई। “बहन मेरे रसोई घर में जाकर एक कप चाय बना दो ताकि मैं ब्रेड खा कर दवाई खा लूं,” “ठीक है दीदी! मैं अपने सासू मां को बता कर आती हूं।” यह कहती हुई निर्मला चली गई। तभी कान में सविता को कमला की आवाज सुनाई दी “कोई जरूरत नहीं है उसको चाय बनाकर देने की सुनैना जैसी सास की ना हो सकी वह दूसरों की क्या होगी उसके आसपास फटकने की जरूरत नहीं है, नही तो उसकी जैसी हो जाओगी” कमला की बात सुनकर सविता दंग रह गई।

उसे अपनी सास और उसके हाथ का खाना, देखभाल सब कुछ याद आ रहा था उसे अब एहसास हो गया था कि उससे बहुत बड़ी गलती हो गई थी, उसने अपनी सास की भावना और परिश्रम की थोड़ी सी कदर ना की!

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