एक दिन एक वृदधा न्यायालय की चक्कर लगाती मिली। पूछने पर पता चला कि उनका कोई अपना नहीं था। “ससुराल, मायके, पड़ोसी, दोस्त कोई तो होगा?” “पति की मृत्यु के बाद रिश्तेदारों ने संबंध तोड़ लिया। तीन बेटे थे, तीनों की मृत्यु हो गई, बेटी ससुराल में है। किराए के घर में यहाँ रहती हूँ। किराए का घर तो बदलता रहता है, इसलिए किसी पड़ोसी से अधिक गहरे संबंध नहीं बन सके।”
थोड़ा अधिक पता करने पर पता चला कि उनके पति ट्रक ड्राइवर थे। वे अपने गाँव से अपने हिस्सा की जमीन बेच कर शहर में आ गए। फिर भी वे गाँव के संपत्ति पर अपना हक जताते थे। इसी बात पर उनका उनके पिता और भाई से संबंध ठीक नहीं रहे। एक बीमारी से उनकी मृत्यु के बाद उनकी जमा पूंजी से उनके परिवार का खर्च चलता रहा।
दुर्भाग्यवश उनकी मृत्यु के कुछ ही सालों बाद उनके दो बेटों की मृत्यु के बीमारी से हो गई। तीसरे बेटे की शादी हुई। बहू अच्छी थी। लेकिन दैव का विधान! तीसरे बेटे की मृत्यु एक दुर्घटना में हो गई।
दुर्घटना के एवज में जो क्षतिपूर्ति मिलती इसके अब दो हकदार थे- एक माँ और दूसरी उसकी पत्नी। माँ को डर था कि अगर पत्नी क्षतिपूर्ति के पैसे ले लेगी और दूसरा विवाह कर लेगी तो उसका क्या होगा? इसलिए वह चाहती थी कि यह पैसे उसे नहीं मिले। माँ ने बहू यानि के छोटे बेटे की विधवा को जबर्दस्ती घर से निकाल दिया और सारे पैसे की दावेदार स्वयं हो गई। इस तरह अब वह माँ बैंक में कुछ लाख पैसों के बल पर अकेली रह गई।

वर्षों तक वह एक ऐसी अकेली बीमार महिला के घर में रही जिसे कोई बीमारी थी और उसकी मृत्यु निकट थी। इस वृदधा को यह उम्मीद थी कि उसकी मृत्यु के बाद उसके घर पर उसका कब्जा हो जाएगा। इस तरह एक भरे-पूरे घर की बेटी, एक भरे-पूरे घर की बहू एक अनाथ वृदधा विधवा हो गई। पति और बेटों की मृत्यु ने उसे उतना अनाथ नहीं बनाया जितना अपनी जड़ों से कट कर और पैसों के लालच में वह हो गई।
दिल्ली के प्रसिद्ध एम्स हॉस्पिटल के ओपीडी की लाइन में एक वृद्ध खड़े थे। उनके हाथों में वह थैला था जो उनके पेट से एक पाइप द्वारा जुड़ा था। उन्हें उस हालत में लाइन में देख कर रोंगटे खड़े हो गए। यथायोग्य उनकी सहायता करने के बाद थोड़ी-बहुत बातें हुई। पता चला उन्हें पेट का कैंसर था। उनका बेटा कोई छोटा-मोटा नौकरी करता था। अगर वह एक दिन छुट्टी ले लेता तो उसके एक दिन का वेतन कट जाता। वेतन पहले ही जरूरत के अनुसार बहुत कम था। इसलिए यह निर्णय हुआ कि बेटा ड्यूटी पर जाएगा और बीमार पिता खुद ही डॉक्टर को दिखाने अकेले जाएंगे।
दिल्ली जैसे महानगर में रोड के किनारे रोते हुए अकेले लोग या अपने दुख से कातर होकर नशे में लुढ़के हुए लोग दिखना बड़ी आम बात है। रोड पर भीख मांगते, या रैन बसेरों में रात बिताते कई लोगों के बारे में पता करने पर पता चला कि वे कभी एक सामान्य माध्यम वर्ग परिवार से थे। आज भी उनके परिवार के बहुत से लोग जीवित और अच्छी जिंदगी बसर कर रहे थे।
मध्य प्रदेश के एक गाँव से एक अच्छी जिंदगी का सपना लेकर दिल्ली आए मनीष ने गाँव की जमीन बेच कर यहाँ एक छोटा सा फ्लैट ले लिया। फ्लैट उसके कार्यस्थल से दूर था इसलिए अपना फ्लैट किराए पर देकर उसने अपने कार्यस्थल के पास ही एक फ्लैट किराए पर ले लिया। जब कोरोना का भय व्याप्त हुआ तो मकान मालिक ने उसे बुखार की हालत में घर से निकाल दिया। किसी हॉस्पिटल में जगह मिला नहीं। कोई अपना पास था नहीं। जर्जर शरीर अधिक भाग-दौड़ नहीं कर सका। थक कर एक पेड़ के नीचे लेट गया। एक एनजीओ के सहयोग से उसे थोड़ा इलाज तो मिला लेकिन छत नहीं मिल सका। अंततः उस पेड़ के नीचे ही एक अनाथ की तरह उसने आखिरी साँस लिया।
हम अपने आसपास इतने सारे अनाथ या लगभग अनाथ लोगों को देखते हैं। कहाँ से आते हैं ये? क्या सच में इनका कोई नहीं होता? इतने अनाथ तो पहले नहीं होते थे।
इसका कारण यह है कि परिवार बिखर गए। हम सब अपने आप में सिमटते गए। संबंध निभाना खर्चीला और समयसाध्य लगने लगा। परिवार का अर्थ संकुचित हो गया। परिवार में अब केवल पति/पत्नी और बच्चे रह गए। ज्यादा से ज्यादा दादा-दादी और नाना-नानी इसमें शामिल किए गए। संबंधी और पड़ोसी वह प्राणी माने जाने लगे जिनका काम या तो केवल हमसे ईर्ष्या करना रह गया या तो हम पर नजर रख कर हमारे स्वतन्त्रता में दखल देना। ऐसे में जब इस छोटे परिवार पर कोई विपत्ति आए तो हम अनाथ होने लगे। हमने यह याद नहीं रखा हम भी किसी के संबंधी हैं, हम भी किसी के पड़ोसी हैं।
अगर हम अब भी अपने खोखली स्वतन्त्रता और अहम के खोल से अगर बाहर नहीं आएंगे तो वह दिन दूर नहीं जब सारा समाज अनजान लोगों की एक जानी-पहचानी भीड़ बन जाएगी, और हम सब एक अकेले अनाथ।
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