किसी भी संस्था से जुडने के पहले यह जान लेना जरूरी होता है कि इसका मुख्य उद्येश्य क्या है? और यह कैसे कार्य करती है? बहुत सारी संस्थाएँ है जो बुजुर्गों के लिए काम करतीं हैं, अगर हम भी उनके लिए काम करना चाहते हैं तो उनके साथ जुड़ कर काम कर सकते थे, एक अलग संस्था (सेलेब्रटिंग लाइफ फाउंडेशन-Celebrating Life Foundation) बना कर अपना मेहनत क्यो बढ़ाया?
हमारी मूल मान्यताएँ (our basic concepts)
1. सामाजिक समस्या का सबसे प्रभावी समाधान समाज के अंदर ही हो सकता है
इसे शब्दों द्वारा व्याख्या करने के बजाय एक उदाहरण से बताना चाहती हूँ। दिल्ली के शास्त्री नगर में एक 72 वर्ष की महिला रहती थी। दुर्भाग्यवश उसके तीन बेटे और पति सभी की मृत्यु हो चुकी थी और अब वह अकेले थी। उसे रहने के लिए कोई घर नहीं था और न ही कोई रिश्तेदार था जो उसे अश्रय दे सके।
वह 15 वर्षों से एक निःसंतान दंपति के साथ रहती थी। यह उनके लिए खाना बनाती और घर के कुछ कामकाज कर देती थी। वह दंपति इसे कोई वेतन नहीं देता था लेकिन रहने के लिए घर दिया हुआ था। वह एक स्कूल में आया का काम करती थी। जिससे उसे इतना पैसा मिल जाता था कि खा पहन सके।
दंपति मौखिक रूप से उसे कहते थे कि उनका भी कोई वारिस नहीं है इसलिए उनके मरने के बाद भी जब तक वह रहेगी इस घर में रह सकती है। बीमारी के कारण उन पति-पत्नी की जल्दी ही मृत्यु हो गई।
यह महिला वहाँ आराम से रह रही थी कि एक दिन उस दंपति के गाँव से उनका एक रिश्तेदार आया और उसने अपने बेटे को उनका गोद लिया हुआ बेटा बताया और इससे घर खाली करने की माँग की। अब इस उम्र में उसके पास इतना पैसा नहीं था कि वह एक छोटा-सा कमरा भी खरीद सके या रेंट पर ले सके।
उसने कई रातें पार्क में गुजारा। जिस स्कूल में वह काम करती थी, उसका प्रिन्सिपल उसे लेखिका के पास कानूनी सहायता के लिए लाया। लेकिन कानूनी रूप से उसका उस घर पर कोई दावा नहीं था क्योकि वह वहाँ केवल नौकर की हैसियत से रहती थी। (क्योंकि कानूनी और मानवीय दृष्टिकोण में अंतर होता है) इसलिए कानून द्वारा उसे केवल कुछ पैसे दिलवाए जा सके। उसके रहने का इंतजाम करना एक मुश्किल काम था।
किसी वृद्धाश्रम में वह रहने के लिए तैयार नहीं थी। वृद्धाश्रम का नाम सुनते ही वह बड़े कतार स्वर में बोली “वहाँ मैं भिखारी की तरह हो जाऊँगी। यहाँ कम-से-कम अपने जान-पहचान के लोगों के बीच इज्जत से तो रहती हूँ। जब तक हाथ पैर चलेंगे मैं कमा कर खा लूँगी।“
सचमुच इस उम्र में एक नए जगह पर नए सिरे से ज़िंदगी शुरू करना शायद बहुत मुश्किल होता है और इसके लिए वह मानसिक रूप से तैयार नहीं थी। लेखिका ने उसकी समस्या को अपने जानने वाले कुछ बुजुर्गों को बताया। एक बुजुर्ग जो सामाजिक रूप से ज्यादा सक्रिय थे ने दिल्ली पुलिस के सीनिअर सिटीजन सेल और सीनिअर सिटीजन कार्ड के बारे में बताया। हमने इसके विषय में पता किया और उसे वे सारी सरकारी सहायता दिलाया।
उसे मोबाइल खरीद कर दिया और नंबर डायल करना सिखाया। इस सब से उसका हौसला तो बढ़ा लेकिन उसकी मूल समस्या कि वह रहे कहाँ, अभी भी बनी हुई थी। इसी बीच हमे एक ऐसी वृद्ध स्त्री का पता चला जिसके बच्चे दिल्ली से बाहर रहते थे। वह अकेले दिल्ली में रहती थी। उसका स्वस्थ्य भी सही नहीं था।
उसे अपने पास एक व्यक्ति की जरूरत महसूस होती थी। हमलोगों के समझाने के बाद वह इस महिला को अपना एक छोटा कमरा 500 रु के मासिक किराया पर देने के लिए तैयार हो गई। इस व्यवस्था के लगभग एक साल बाद हमने देखा कि वो दोनों पक्के सहेली की तरह साथ रह रहीं थीं। साथ खाना बनाना और साथ बाजार जाना। एक कोई बीमार पड़ती दो दूसरी उसके देखभाल करती थी।
उस महिला के अनुभव से मुझे लगा कि सामाजिक समस्या का समाधान समाज के अंदर ही इसके सदस्यों द्वारा किया जा सकता है । कानून, सरकार, वृद्धाश्रम इत्यादि सहायक तो हो सकते हैं लेकिन ये सम्पूर्ण समाधान नहीं दे सकते। बड़े-बड़े रियल एस्टेट कंपनी द्वारा बनाए गए “सीनिअर लिविंग” उनके लिए है जिनके पास खर्च करने के लिए पैसे हों। अच्छी सुविधाओं वाले वृद्धाश्रम का खर्च भी किसी हॉस्टल से कम नहीं है।
दूसरी तरफ “गुरु विश्राम वृद्ध आश्रम” (बदरपुर, दिल्ली) जैसे आश्रम जो बिना पैसे लिए बहुत अच्छी सेवा दे रहे हैं, पर यह उनके लिए हैं जो मानसिक या आर्थिक रूप से बिलकुल अक्षम हो।
सबसे बड़ी बात यह कि जिस समाज में रह कर व्यक्ति का सारा जीवन बीतता है उसे छोड़ कर उम्र के इस पड़ाव में कहीं और जाना, स्वयं में एक त्रासदी होती है। जिस समय मैं सोशल वर्क में पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही थी, अपने फील्ड वर्क के लिए मैं कई ऐसे संस्था में गई और वहाँ रहने वाले बुजुर्गों से मिली। वे सभी अवसाद से ग्रसित थे। अगर कभी हँसते भी थे, तो वो बनावटी होती थी। फिर, सभी बुजुर्गों की समस्या ऐसी नहीं होती कि उन्हे घर छोड़ कर कहीं और जाना पड़े।
2. समाज के लिए बुजुर्गों की क्षमता का उपयोग
सभी बुजुर्ग असक्षम नहीं होते। किसी के पास पैसे होते है, तो किसी के पास अपने काम और सामाजिक जीवन का अनुभव, किसी के पास समय होता है तो किसी के पास कोई विशेष प्रतिभा। सारा जीवन काम और परिवार की जिम्मेदारियों के कारण हो सकता हो उन्हे समय नहीं मिला हो। अब उसका उपयोग कर सकते हैं।
इसलिए उम्र का यह अंतिम पड़ाव कुछ विशेष करने का भी होता है, यह केवल मृत्यु के लिए प्रतीक्षालय (waiting room) नहीं है। बुजुर्ग केवल लेने वाले नहीं बल्कि देने वाले भी हो सकते हैं। इससे समाज को तो लाभ होगा ही स्वयं उन्हे भी यह अनुभव होगा कि वे अभी भी सार्थक और उपयोगी है और इससे उनमें उत्साह और उमंग आएगा। 60 की उम्र ज़िंदगी से रिटायरमेंट के लिए निश्चित नहीं है बल्कि नौकरी से रिटायरमेंट के लिए है।
3. आपसी सहयोग से प्रत्येक समस्या का समाधान संभव
कुछ बुजुर्गों की सच में कुछ समस्याएँ होती है। अकेलापन, आर्थिक तंगी, स्वस्थ्य संबंधी समस्याएँ आदि उनकी सामान्य समस्याएँ होती है। लेकिन आपस में सहयोग से वे इन समस्याओं को कम कर सकते हैं। सामान्य अनुभव यह है कि कुछ बुजुर्ग संगठित भी होते है, जैसे किसी क्लब या धार्मिक पंथ की सदस्यता लेना, पार्कों और चौपालों में मिलना आदि। लेकिन ऐसे सभी ग्रुप लगभग समान विचार और परिस्थितियों वाले लोगों से ही बना होता है।
अगर मजदूरों का कोई ऐसा संगठन/ग्रुप है तो वे अपनी आर्थिक समस्या का बहुत कारगर समाधान शायद नहीं कर सकेंगे और अगर केवल उद्योगपतियों का हो तो अपने अकेलापन और उपेक्षा के भाव का बहुत कारगर समाधान शायद नहीं कर पाएंगे। अगर एक ग्रुप से सभी बुजुर्ग सदस्य नकारात्मक विचारों वाले होंगे तो उनके ज़िंदगी में खुशी कहाँ से आएगी?
4. सभी युवा बुजुर्गों के लिए विलन नहीं होते
परिवार में कलह और मानसिक तनाव का कारण यह होता है कि सदस्य एक-दूसरे की समस्याओं को समझ नहीं पाते केवल अपनी समझाना चाहते हैं। हमें कई युवा ऐसे मिले जो बुजुर्गों के शारीरिक और मानसिक समस्यों को समझ नहीं पाते और इसलिए चाह कर भी वे अपने घर के बुजुर्गों को खुश नहीं रख पाते।
5. हम बुजुर्ग होने के लिए तैयार नहीं होते
उम्र के हर पड़ाव का अपना अलग आनंद है। हम बच्चे के जन्म, उसके पढाई, कमाई, संपत्ति आदि सभी के लिए तैयारी करते है लेकिन बुजुर्ग होने के लिए बहुत कम लोग तैयारी करते हैं, वो तो बस हो जाते हैं। जो अधिक सचेत होते हैं वे अपने बुढ़ापे के लिए पैसे और प्रॉपर्टी बचाकर रखते हैं। कुछ और सचेत होते हैं तो अपने स्वस्थ्य का ख्याल रखते हैं लेकिन एक अच्छे बुढ़ापे के लिए ये दोनों पर्याप्त नहीं हैं।
हमारी कार्यशैली
हम अपने क्षेत्र के सभी बुजुर्गों और संवेदनशील युवाओं को अपने साथ जोड़ने का प्रयास करते हैं। इन बुजुर्गों की मुख्य समस्या और साथ ही उनकी मुख्य क्षमता क्या है, हम इसका भी लिस्ट रखते हैं। हमारा प्रयास होता है कि महीने में कम-से-कम एक बार इन सब का आपस में मीटिंग हो। जो चलने में सक्षम नहीं हो या दूरी के कारण नहीं आ सकते हों वे मोबाइल या सोशल मीडिया के माध्यम से जुड़े रह सकते हैं। हर मीटिंग में किसी एक समस्या या टॉपिक पर चर्चा होती है। अगर जरूरत होती है तो हमारी संस्था किसी विशेषज्ञ को भी बुलाती है।
इस तरह के मीटिंग में संभव हो तो कभी-कभी बुजुर्ग कविता पाठ, भाषण आदि का भी प्रोग्राम करते हैं । इससे उनके अंदर आत्मविश्वास और सकारात्मक भाव आता है।
युवाओं और बच्चों में बुजुर्गों की समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता लाने के लिए और generation gap कम करने के लिए बुजुर्गों और युवाओं/बच्चों में संवाद कराते हैं। बच्चों और युवाओं को बुजुर्गों के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए भी कार्यक्रम करते हैं।
बुजुर्गों से संबन्धित स्वस्थ्य समस्याओं, क़ानूनों, सरकारी योजनाओं आदि से विषय में उन्हे जानकारी देने के लिए उस विषय के विशेषज्ञों को बुलाते हैं।
स्वस्थ्य जाँच, आँखों और दाँतों की जाँच आदि के लिए निःशुल्क कैंप लगाते हैं। योग और प्रकृतिक चिकित्सा आदि के लिए भी इस तरह के कैंप लगाए जाते हैं।
सर्दियों में लोगों से पुराने (और अगर संभव तो तो नए भी) कपड़े लेकर उन लोगों (विशेषकर बुजुर्गों) में बांटते हैं जो आर्थिक रूप से बहुत ही जरूरतमन्द हैं। नए कंबलों का भी वितरण किया जाता है।
नया साल, स्थापना दिवस आदि इन बुजुर्गों के साथ समारोहपूर्वक बनाते हैं।
सेमिनार, वर्कशॉप आदि द्वारा भी इनके अधिकारों और समस्यों के प्रति जनता में जागरूकता फैलाने का प्रयास करते हैं।
संसाधनों की कमी के कारण अभी हमारे पास अभी उनके मनोरंजन या मीटिंग के लिए कोई स्थायी स्थान नहीं हैं। लेकिन भविष्य में इस तरह के स्थान और वृद्धाश्रम स्थापित करने की भी संस्था की योजना है। अभी इस तरह के कार्यक्रम लोगों द्वारा उपलब्ध कराए गए स्थान पर या किराए पर लिए गए स्थान पर होता है।