आजकल कुछ बौद्धिकतावादी लोग कहने लगे हैं कि बेटी कोई वस्तु नहीं तो फिर विवाह में कन्यादान क्यों करूँ? एक विज्ञापन ने इस विवाद को और बढ़ावा दिया। यह सही है कि समय के साथ रीति-रिवाज बदलते हैं, और बदलना चाहिए भी।
इस संबंध में मेरे पास विचार करने के लिए 5 प्रश्न हैं:
1. कन्यादान है क्या?
2. कन्यादान और अन्य दान में क्या समानता और असमानता हैं?
3. क्या यह विवाह का आवश्यक अंग है?
4. यह कब से शुरू हुआ?
5. इसके क्या परिणाम हुए समाज के लिए?

सबसे पहले विचार करते हैं कन्यादान शब्द पर
इस शब्द को तीन तरह से समझ सकते हैं- पहला, व्युत्पत्ति की दृष्टि से, कन्यादान शब्द का व्याकरण की दृष्टि से क्या अर्थ होता है? दूसरा, दान के क्या अनिवार्य लक्षण होते हैं? तीसरा, जहां दान की वस्तुओं की सूची दी गई है, क्या वहाँ कन्या को इस में शामिल किया गया है?
कन्यादान क्या है?
‘कन्यादान’ शब्द का विरोध करने वाले इसका अर्थ लगाते हैं कन्यादान अर्थात बेटी का उसके होने वाले पति को दान कर सदा के लिए सौंप देना। पर व्याकरण के अनुसार कन्यादान शब्द की उत्पत्ति कन्या+दान अथवा कन्या-आदान दोनों हो सकता है।
विवाह में सिंदूरदान, वाकदान या सगाई जैसी रस्में भी होती हैं, इसलिए शायद लोग दान का अर्थ लेने लगें। स्मृति और सूत्र ग्रन्थों में दान की जाने वाली वस्तुओं की सूची दी गई है। इनमें भूमि, गौ, सोना आदि का तो उल्लेख है लेकिन कन्या या पुत्री इनमें से किसी भी सूची में शामिल नहीं है।
इसलिए ‘दान’ या ‘आदान’ इन दोनों में से कौन सा अर्थ है, यह अन्य संदर्भों से ही समझा जा सकता है।
दान और कन्यादान में कुछ मौलिक अंतर हैं।
पहला, दान हमेशा निःशुल्क और निःशर्त होता था। अगर जीविकोपार्जन के लिए किसी को जमीन या कोई अन्य चीज दी जाती थी तो उसे वृति में गिना जाता था दान में नहीं। लेकिन कन्यादान के समय पिता या अभिभावक वर से सात वचन लेता है। ये सात वचन कन्या की तरफ से ली जाती है। अगर वर इन वचनों में से किसी को भंग करे तो कन्या या पिता को यह अधिकार है कि वह दान के बंधन से मुक्त हो सकता है।
निश्चय ही यह व्यवहार में नगण्य रूप से प्रचलन में था, विशेष रूप से उच्च वर्णों में लेकिन सिद्धान्त में यह संभव था। जब दान लेने वाला यानि कि पति कि मृत्यु हो जाती तब स्त्री के दूसरे पुरुष से विवाह को मान्यता मिली थी। देवर से विवाह सबसे प्रचलित था पर अन्य व्यक्ति से भी विवाह हो सकता था।

देवर द्विवर कर तत्भव रूप है। छोटा भाई बड़े भाई की विधवा से विवाह कर सकता था लेकिन बड़ा भाई छोटे भाई की विधवा से विवाह नहीं कर सकता था। हालांकि सूत्र काल से उच्च वर्णों में विधवा विवाह अमान्य कर दिया गया। फिर भी इससे यह तो सिद्ध होता ही है कि वस्तु के दान और कन्या के दान में मौलिक अंतर था।
दूसरा, वस्तु को दान में दान लेने वाला उसे किसी अन्य को दान कर सकता था। लेकिन कन्यादान के मामले में यह संभव नहीं था यानि पति अपनी पत्नी किसी और को दान नहीं कर सकता था। अगर लोग युधिष्ठिर का उदाहरण देते हैं तो इस संदर्भ में यह भी याद रखना चाहिए कि युधिष्ठिर ने द्रौपदी को ही नहीं बल्कि अपने चारों भाइयों को भी दांव पर लगाया था, जो कि उन्हें दान में नहीं मिले थे।
तीसरा, दानग्रहण के लिए पात्रता। ग्रंथकारों ने दान योग्य व्यक्ति हो ही देने पर ज़ोर दिया है। ‘दान’ सुयोग्य ब्राह्मण को ही देने की बात कही गई है। लेकिन विवाह तो सभी वर्णों के होते थे। इससे यह भी संकेत मिलता है कि ‘कन्यादान’ शब्द में आए ‘दान’ का अर्थ साधारण वस्तु से भिन्न था।
चौथा, ‘वस्तु’ को जब दान दिया जाता है तो उस वस्तु से पूछा नहीं जाता है। लेकिन जब कन्यादान की बात आती है तो कन्या की मर्जी के विरुद्ध उसके दान करने का उल्लेख कहीं नहीं है। हो सकता है कन्या को यह भरोसा हो कि उसके पिता या अभिभावक उसका हित ही चाहेंगे, इसलिए वह सहमति दे देती हो। स्वयंवर, जो कि क्षत्रियों में अधिक प्रचलित था, तो इसका सबसे बड़ा प्रमाण है ही, पर अन्य अनेक ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि कन्या की इच्छा के बिना उसका दान नहीं होता था।
इस संदर्भ में राजा रथवीति की कहानी महत्वपूर्ण है। यह कहानी बृहद्देवता (5-50-80) नामक ग्रंथ में आया है। कहानी इस प्रकार है, श्यावाश्व ऋषि ने राजा के समक्ष उनकी कन्या से विवाह का प्रस्ताव किया। राजा ने पहले अपनी रानी शशीयसी से सलाह किया। रानी ने पुत्री से पूछने के बाद कहा कि श्यावाश्व को पहले ऋषित्व प्राप्त करना चाहिए। जब श्यावाश्व ने यह पद और प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली, तभी रथवीती ने उन्हें अपनी बेटी का पाणिग्रणण करने की इजाजत दी। (बृहद्देवता 5-50-80)
पाँचवाँ, उत्तर मध्यकाल से पहले यह कहीं वर्णन नहीं है कि कन्यादान के बाद से पिता या परिवार का संबंध कन्या से स्थायी रूप से विच्छेद हो गया और अब वह उसकी कोई सहायता नहीं कर सकता। पुत्री के घर का पानी नहीं पीने जैसा कोई संदर्भ नहीं मिलता है। दक्ष प्रजापति की पुत्री सती कन्यादान के बाद भी अपने पिता के घर गई थी। इसे कोई असामान्य घटना नहीं माना गया।
स्पष्टतः कन्यादान में यद्यपि दान शब्द आया है लेकिन यह अन्य दानों से भिन्न और सशर्त है। इस कारण कन्या+आदान यानि कन्या का आना अर्थ अधिक उपयुक्त लगता है। आदान शब्द आज भी आने के अर्थ में प्रचलित है जैसे आदान-प्रदान। मिथिलाञ्चल क्षेत्र में आज भी वधू पक्ष के लिए जो शब्द प्रचलित है वह है ‘कन्यागत’, जिसका अर्थ है वह स्थान या वह परिवार जहां से कन्या आने वाली हो।
क्या यह विवाह का आवश्यक अंग है?
इस संदर्भ में ध्यान देने की बात यह भी है कि सभी विवाह एक ही प्रकार के नहीं थे। इन्हें आठ श्रेणी में रखा गया था, जिनमें से पहले चार- आर्ष, ब्रह्म, दैव और प्रजापात्य विवाह को धर्मानुकूल माना गया था लेकिन बाकी चार को यद्यपि अधिक स्वीकृति नहीं थी लेकिन लड़की के हित के लिए इसे भी विवाह मान लि या गया था ताकि वधू को विवाहिता स्त्री के सभी अधिकार मिल सके।
इन आठ में से केवल पहले चार में ही कन्यादान किया जाता था। चार अधर्मण्य विवाह थे- गंधर्व, राक्षस, असुर और पिशाच विवाह। ये चारों बिना कन्यादान के ही होते थे लेकिन पूर्ण रूप से मान्य थे। कृष्ण के अधिकांश विवाह राक्षस विवाह ही थे जिसमें कन्यादान नहीं हुआ था। इसलिए कन्यादान के बिना भी विवाह मान्य होता है। जो नहीं करना चाहे, कोई बात नहीं, नहीं करें।
कुछ लोग तर्क देते हैं कि विवाह के लिए कन्यादान नहीं बल्कि ‘पाणिग्रहण’ शब्द आया है। लेकिन यह भी पूर्ण सच नहीं है। क्योंकि “वाग्दानञ्च वरणं पाणिपीडनम्। सप्तपदीति पंचांगो विवाह: प्रकीतिर्त:।” यानि (1) वाग्दान या सगाई, (2) कन्या का दान, (3) वरण या वर द्वारा स्वीकृति (4) पाणिग्रहण करना और (5) सप्तपदी अर्थात सात वचनों के पालन की प्रतिबद्धता– इन पाँच चरणों में विवाह संस्कार सम्पन्न होता है।
अब प्रश्न आता है कन्यादान कब से शुरू हुआ?
प्राचीन शास्त्रों में ‘कन्यादान’ के बदले ‘विधिवत विवाह’ शब्द का अधिक प्रयोग हुआ है। संभवतः इसका कारण यह हो कि कन्यादान का अर्थ विवाह नहीं था बल्कि यह विवाह का एक भाग मात्र था। धनुष टूटने के बाद कुलगुरु जनक जी से कहते हैं, ‘यद्यपि विवाह धनुष टूटने की शर्त के अधीन था जो कि अब पूरा हो चुका है। अब आप जाकर ‘विधिवत’ रुप से विवाह की तैयारी कीजिए। यानि कि विवाह की बात तो होती है, उसके समस्त प्रक्रिया की नहीं। इसलिए इसके आरंभ का बहुत स्पष्ट प्रमाण नहीं है।
इस संबंध में यह दाता और आदाता यानि देने वाले और लेने वाले का संबंध भी महत्वपूर्ण है। आदाता शब्द दान लेने वाला या आदान ग्रहण करने वाला, दोनों के लिए आता है। दशरथ जी राजा जनक से कहते हैं ‘आदाता हमेशा देने वाले के अधीन होता है, इसलिए आप जैसा आदेश करेंगे मैं करूंगा।” अर्थात चूंकि जनक जी अपनी पुत्री उन्हें बहू के रूप में दे रहे थे, इसलिए वे श्रेष्ठ थे। इसलिए यह विचार की लड़की वाले लड़के वाले से छोटे होते हैं, के समर्थन के लिए किसी प्राचीन ग्रंथ में संदर्भ नहीं मिलता है।
मनु को समान्यतः स्त्री विरोधी माना जाता है। लेकिन वह भी पिता या अभिभावक को निर्देश देते हैं कि “विवाह के लिए इच्छुक पिता अपनी कन्या अति उत्कृष्ट, शुभ गुण, कर्म और स्वभाव वाले, कन्या के सदृश, रूप और लावण्य आदि गुणों से युक्त वर को ही दे।” (मनुस्मृति: 9-88)।
इन विभिन्न उल्लेखों को देखने के बाद यही लगता है कि भले ही कन्यादान का अर्थ “दान” लगाया जाय या “आदान” किन्तु व्यवहार में इसका आशय पिता या अभिभावक द्वारा वर को पाणिग्रहण करने की अनुमति देना ही है। चूंकि विवाह के लिए सहमति वर और कन्या द्वारा लिया और दिया जाता था। इसलिए अगर अभिभावक नहीं भी हो या पाणिग्रहण की अनुमति नहीं भी दें तो विवाह विधिमान्य हो सकता था।
इसलिए यह कहना सही नहीं है कि अगर बेटी का दान कर दिया जाय तो इसका अर्थ है बेटी पर से उसके माता-पिता का अधिकार हमेशा के लिए समाप्त हो जाना। यह भी सही नहीं है कि इसके बाद उसका पति या पति के परिवार वाले चाहे जैसे रखे इस पर मायके वालों का कोई हस्तक्षेप नहीं हो सकता है। इसलिए ‘कन्यादान’ को पितृसत्तात्मक व्यवस्था की निशानी मान कर इस प्रथा को बंद किया जाना अतर्कसंगत और अनावश्यक है।
कुछ लोग एक दूसरे कारण से भी इसका विरोध करते हैं। उनके अनुसार हमारे यहाँ तो स्वयंवर की परंपरा थी कन्यादान की नहीं। कन्यादान मध्यकाल में हिन्दू विवाह विधि में आई विकृति है। इसलिए इसका परित्याग किया जाना चाहिए। कुछ लोग कन्यादान के बदले ‘पाणिग्रहण’ शब्द का प्रयोग अधिक सही मानते हैं। लेकिन स्वयंवर कन्या के लिए उपयुक्त वर तलाश करने की विधि थी और ‘पाणिग्रहण’ कन्यादान की तरह ही विवाह का एक भाग, जिसमें कन्या को सात वचन देते हुए वर उसके ‘ग्रहण’ करता है।
कन्यादान करते समय कन्यादान करने वाला पिता या अभिभावक जो मंत्र पढ़ता है, वह जानना भी रोचक है। यह मंत्र पारस्करगृह्यसूत्रम के हरिहर भाष्य में दिया गया है। इस सूत्र में कन्यादान के लिए पिता द्वारा मंत्र पाठ के साथ संकल्प लेने की व्यवस्था दी गई है। यह मंत्र इस प्रकार है:
“अद्येति………नामाहं………नाम्नीम् इमां कन्यां/भगिनीं सुस्नातां यथाशक्ति अलंकृतां, गन्धादि – अचिर्तां, वस्रयुगच्छन्नां, प्रजापति दैवत्यां, शतगुणीकृत, ज्योतिष्टोम-अतिरात्र-शतफल-प्राप्तिकामोऽहं ……… नाम्ने, विष्णुरूपिणे वराय, भरण-पोषण-आच्छादन-पालनादीनां, स्वकीय उत्तरदायित्व-भारम्, अखिलं अद्य तव पत्नीत्वेन, तुभ्यं अहं सम्प्रददे।”
अर्थात ‘अमुक गोत्र में उत्पन्न….. अमुक नाम वाली, यथाशक्ति वस्त्रों तथा आभूषणों से सुसज्जित कन्या को, पुराणों में बताए गए कन्यादान की फल की कामना से मैं पिता तुम्हें पत्नी के रूप में अपनाने के लिए वर के लिए संप्रदान करता हूं।’
वर उन्हें स्वीकार करते हुए कहता है- ॐ स्वस्ति।
कन्यादान का व्यवहारिक पक्ष
सैद्धांतिक पक्ष के बाद इसके व्यावहारिक पक्ष पर भी यदि विचार करे तो मेरी दादी, परदादी, परनानी और उनकी नानी, सबका कन्यादान हुआ है। लेकिन किसी का न तो अपने मायके से संबंध टूटा न ही उन्हें ससुराल में दान में मिली हुई ‘वस्तु’ माना गया। दूसरी तरह आज भी मेरी कई सहेलियाँ हैं जिनका ‘दान’ उनके पिता ने नहीं किया, उन्होने अपनी मर्जी से विवाह किया पर वे भी पति द्वारा प्रताड़ित और अपमानित होती हैं।
अपनी व्यक्तिगत गलतियों की जड़ हम अपनी परम्पराओं में ढूंढ रहें हैं। कन्यादान के बिना भी वैध विवाह हो सकता है लेकिन क्या इसके बावजूद, हर विवाह सफल ही रहे इसकी गारंटी कोई ले सकता सकता है?
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