नानी ने बच्चों को अपने पास बुलाया और अहिंसा का पाठ पढ़ाते हुए उन्हें एक लोककथा सुनाई जो इस प्रकार थी।
उस बड़ी रियासत के जंगलों में बसाए गए एक मुनिवर के आश्रम में जंगल से भटका हुआ एक बाघ कहीं से आ घुसा। बाघ भूखा था और मुनिवर आश्रम में अकेले थे। उनके शिष्य उस समय जंगल में रसोई के लिए सब्जियाँ, फल व लकड़ियाँ लेने के लिए गए हुए थे। बाघ के लिए मुनिवर एक आसान-सा भोजन थे।

पहले तो मुनिदेव ने बाघ को समझाया कि, “यह तो शिक्षा और साधना का केंद्र है। तुम मुझे छोड़ दो और यहाँ से चले जाओ। जंगल में कहीं और जाकर अपने भोजन की तलाश करो। यह स्थान तुम्हारे भोजन के लिए उपयुक्त स्थान नहीं है।”
लेकिन बाघ ने उनकी एक नहीं सुनी और उन पर हमला करने की मुद्रा में आते हुए बोला, “मूर्ख प्राणी! मैं अपनी भूख शांत करने के लिए एक आसान से अवसर को हाथ से कैसे जाने दूँ? तुम मेरा भोजन हो इसलिए मैं तुम्हें अभय दान कैसे दे सकता हूँ?” यह कहते हुए वह जैसे ही मुनिवर पर झपट्टा मारने की मुद्रा में आया उन्होंने उसे उसी समय अपने तपोबल से एक सीधी सादी दुधारू गाय बना दिया।
गाय अपने आप को बदले हुए रूप में पाकर हैरान थी और खुश भी थी। हैरान इसलिए कि वह पुल्लिंग से एक जानवर के स्त्रीलिंग के भेष में आ गई थी।
जंगल से मुनिवर के शिष्य जब लौट कर आए तो अपने आश्रम में एक नई दुधारू गाय पाकर वह बहुत प्रसन्न हुए। एक शिष्य ने पूछा, “आश्रम में यह गाय अचानक कहाँ से आ गई गुरुदेव?”
वह बोले, “जंगली गाय थी, जंगल से भटक कर यहाँ आ गई तो मैंने इसे तुम सबके लिए रख लिया। मैंने सोचा मेरे शिष्यों के लिए इस गाय का दूध भी उपयुक्त रहेगा। तुम एक महीने तक इसकी सेवा करो और इसका दूध पीओ। एक माह के पश्चात हम खुद गाय से पूछेंगे, यह यहाँ रहना चाहेगी तो रख लेंगे अन्यथा इसे जंगल में भेजने के लिए जाने देंगे, आजाद कर छोड़ देंगे।”

समय बीता। मुनिवर के शिष्य गाय की सेवा करते, उसका दूध निकालते, मक्खन, लस्सी, दही खाते और खूब आनंद करते।
एक माह बीत जाने पर मनिवर ने गाय बने बाघ से पूछा, “तुम यहाँ गाय बनकर रहना चाहोगी या फिर से तुम्हें बाघ बना दूँ?”
गाय के भेष में बाघ बोला, “तुमने तो मेरा जीवन ही बदल दिया है मुनिवर। मैं अपने पेट की क्षुधा मिटाने के लिए किसी भी जीव को मार डालता था। मैंने अपने जीवन में न जाने कितने ही निरीह जीवों की हत्या की है। मुझे अब अनुभव हुआ कि वह हत्याएं कितनी निर्मम थीं। मुझे इसका बेहद पश्चाताप है। यदि तुमने मुझे फिर से बाघ बना दिया तो मेरा वैसा ही हिंसक जीवन फिर से शुरू हो जाएगा। मैंने जो यह गाय बनकर सेवा का जो जीवन जीया है यह जीवन मुझसे छूट जाएगा। मैं अब यह जीवन खोना नहीं चाहता। मैंने अपने जीवन में एक बार एक गाय को मारकर खाया था। लेकिन अब गाय बनकर पता लगा कि गाय कितना अनमोल जीव है। इसलिए हे मुनिवर! आप मुझे गाय ही बना रहने दें। जो आनंद प्रतिदान में है, दूसरों का पोषण करने में है, दूसरों की सेवा करने में है, दूसरों का जीवन बचाने में है, वैसा आनंद इस पृथ्वी पर दूसरा नहीं है।”
मुनिवर बाघ का उत्तर सुनकर प्रसन्न हुए और बोले, “अहिंसा व प्रतिदान दोनों जीवन में सृष्टि के सबसे बड़े गुण हैं।”
उन्होंने शिष्यों से कहा, “यह जंगली गाय हम सबके लिए अब जीवन पर्यंत यहीं रहेगी। इसने यहाँ हमारे साथ रहना सीख लिया है। आश्रम के गुणों को, आश्रम के नियमों को इसने धारण कर लिया है। जो प्रतिदान का महत्व समझ जाता है उसका तो जीवन ही बदल जाता है।”
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