
स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखिका, हैदराबाद, तेलंगाना
भक्त के मन में भगवान के प्रति सच्ची भक्ति हो, तभी यह कहावत सच होती है, “मन चंगा तो कठौती में गंगा।” इसी कहावत को चरितार्थ किया था भक्त रैदास ने। वे जूते गांठने का काम करते थे और साथ में भगवद भक्ति में लीन रहते थे। उनके यहां से होकर बहुत-से संतजन और ब्राह्मण लोग गंगा स्नान के लिए काशी और प्रयाग जा रहे थे। रास्ते में एक ब्राह्मण देवता की चप्पल टूट गई, तो वे उसे ठीक कराने भक्त रैदास के पास पहुंचे। भक्त रैदास ने जब चप्पल ठीक करके उन्हें दे दी, तो गांठ से एक पैसा निकालकर उन्हें देते हुए ब्राह्मण ने व्यंग्य से पूछा, “भई रैदास! तुम तो गंगा मैया के बड़े भक्त हो! क्या तुम गंगा-स्नान को नहीं जाओगे?”
तब रैदास ने वहां जाने में अपनी असमर्थता जताई और कहा “मैं गंगा स्नान और पूजा यहीं कर लूंगा। आप जा रहे हैं तो मेरी तरफ से ये चार सुपारी गंगा-मैया को भेंट कर दीजिए और हां! गंगा मैया स्वयं हाथ बढ़ाकर इन्हें स्वीकार करें तो ही दीजिए।” ब्राह्मण को मन-ही-मन हंसी आई। उन्होंने सोचा कि यह तो ऐसे कह रहा है, जैसे गंगा मैया इसके वश में हो और वे “राम-राम” करते हुए वहां से प्रस्थान कर गए।
वहां जाकर प्रातः गंगा-स्नान करने के पश्चात् उन्हें उन सुपारियों की याद आई, जो भक्त रैदास ने उन्हें दी थीं, तब उन्होंने जोर से गंगा मैया को पुकारकर कहा कि “भक्त रैदास ने आपके लिए ये सुपारियां भेजी हैं। कहा है कि गंगा-मैया स्वयं हाथ बढ़ाकर इन्हें लें, तब ही देना।”
ब्राह्मण देवता इसे हंसी समझकर सुपारियां नदी में डालने ही वाले थे कि उन्हें पानी में से एक हाथ ऊपर बढ़ा हुआ दिखा। और उन्होंने वे सुपारियां उस हाथ को समर्पित कर दीं। तब गंगा-मैया ने ब्राह्मण देवता को एक रत्नजड़ित कंगन देते हुए कहा कि यह हमारी तरफ से भक्त रैदास को दे देना। ब्राह्मण देवता ने उस कंगन को अपने थैले में डाल लिया और वापस घर की ओर रवाना हो गये। रास्ते में उनके मन में पाप आ गया, उन्होंने सोचा कि ये कंगन अगर मैं भक्त रैदास को न दूं, तो उन्हें क्या पता चलेगा? यह कंगन तो मैं राजा को भेंट करूंगा और राजा मुझे अपार धन देंगे। यह सोचकर वह ब्राह्मण देवता राजमहल की ओर रवाना हो गए।
राजमहल पहुंचकर उन्होंने द्वारपाल से कहा कि वह राजा को अमूल्य वस्तु भेंट करना चाहते हैं। द्वारपाल ने राजा को इसकी सूचना दी तो उन्होंने ब्राह्मण से भेंट करने की आज्ञा दे दी। ब्राह्मण ने स्वयं वह अद्भुत कंगन राजा को भेंट स्वरूप दिया। राजा उसे देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने बदले में ब्राह्मण को धन-दौलत और जमीन दान में दी। राजा ने वह कंगन अपनी रानी को भेंट किया। रानी वह रत्नजड़ित कंगन पाकर बहुत खुश हुई। उसने तत्काल उसे अपनी कलाई में धारण कर लिया। लेकिन दूसरे ही क्षण जब रानी की दृष्टि दूसरे हाथ की सूनी कलाई पर गई, तो वह उदास हो गई। राजा ने रानी की उदासी का कारण पूछा, तो रानी ने कहा, “महाराज! मुझे इस कंगन का जोड़ा चाहिए, क्योंकि दूसरी कलाई सूनी लगती है।”
दूसरे दिन राजा ने ब्राह्मण को बुलाकर उसे वैसा ही कंगन बनवा कर लाने के लिए कहा। तब ब्राह्मण भय के मारे थर-थर कांपने लगा। और राजा से दया की भीख मांगने लगा। जब राजा ने कारण पूछा, तो ब्राह्मण ने आद्योपान्त सारी घटना कह सुनाई और राजा से अभयदान मांगने लगा। राजा ने उसे यह कह कर अभयदान दिया कि “तुम जाकर भक्त रैदास से माफी मांगो, मुझसे नहीं। तुम उसके अपराधी हो।”
ब्राह्मण दौड़ा-दौड़ा भक्त रैदास के पास आया और गिड़गिड़ाने लगा- “मुझे माफ कर दो। मुझसे गलती हो गई। मैंने गंगा मैया द्वारा तुम्हारे लिए दी गई भेंट राजा को भेंट कर दी। अब रानी को वैसा ही दूसरा कंगन चाहिए। मैं क्या करूं? मुझे बचा लो, नहीं तो राजा मुझे दण्डित करेंगे।” भक्त रैदास ने कहा कि “तुम मुझे यह वचन दो कि आगे से किसी के साथ विश्वासघात नहीं करोगे, तभी मैं तुम्हारी सहायता कर सकता हूं।” ब्राह्मण ने वचन दिया।
भक्त रैदास जिस कठौती में चमड़ा भिगोते थे, उसी में पानी भरकर, उस पर कपड़ा डालकर उन्होंने गंगा मैया को पुकारा और पानी में हाथ डालकर टटोला। तत्काल वैसा ही कंगन भक्त रैदास के हाथ में आ गया। भगवान ने भक्त की लाज रख ली। वह कंगन ब्राह्मण को सौंपते हुए उन्होंने उसे राजा को भेंट करने को कहा। तभी से ही कहावत प्रचलित हो गई कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’। राजा ने भक्त रैदास को भी धन-दौलत भेंट करना चाहा, लेकिन वे तो निर्मोही संत थे इसलिए उन्होंने राजा को सविनय मनाही कर दी। राजा भक्त रैदास की सच्ची भक्ति देखकर बहुत खुश हुआ।