
शिवपुरी
मुरादाबाद, उ.प्र.
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वर्तमान में गाँव शहर बन रहे हैं और शहर मेट्रो सिटी। पश्चिमी सभ्यता युवा पीढ़ी पर सिर चढ़कर बोल रही है। भारतीय संस्कृति हिचकोले खा रही है। साँसें गिन रही है। सोच, चिंतन, मनन युवा पीढ़ी का पूरी तरह बदला-बदला नजर आ रहा है। एकल परिवारों की संस्कृति ने पूरी तरह पाँव जमा लिए हैं, संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। ऐसे में वृद्ध माता-पिता अपने को ठगा-ठगा-सा महसूस कर रहे हैं कि करें तो क्या करें?
फादर्स डे और मदर्स डे का बढ़ता चलन
पश्चिमी सभ्यता इस कदर युवा पीढ़ी पर हावी है कि उन्होंने पश्चिम की तरह फादर्स डे और मदर्स डे मनाना शुरू कर दिया है। सोशल मीडिया पर अपने माता-पिता को शुभकामनाएं और बधाइयां दी जाती हैं।
जिन संतानों में थोड़ा-सा भी ममत्व शेष है, वे अपने माता-पिता के साथ वर्ष में एक दो बार इस दिन माता- पिता के पास आकर या उन्हें अपने पास बुला कर इस ‘पर्व’ को हर्षोल्लास से मनाते हैं। अधिकांश शेष युवा पीढ़ी तो मोबाइल पर ही शुभकामनाएं देकर इतिश्री कर देती है तथा कुछ तो यह भी औपचारिकता पूरी नहीं करती है, उसे मैं अच्छी तरह महसूस कर रहा हूँ।
बुजुर्गों पर बहुओं का भरोसा नहीं
आज अपने को शिक्षित कहने वाली बेटियों का जब विवाह हो जाता है। तब वह यही सोचकर विवाह करती हैं कि अब वह अपने पति के साथ आजादी (स्वछन्दता) से अकेले ही रहेंगी। जैसा चाहूँ वैसा करेंगी। उन्हें किसी का कोई दखल पसंद नहीं। यही स्वछन्दता वाली सोच उन्हें एकल परिवार बनाने के लिए विवश करती है। ऐसी नारियाँ अपने पति पर शिकंजा अर्थात साम, दंड और भेद की नीति अपना कर पति को एकल परिवार बसाने के लिए विवश कर देती हैं, बेचारा पति जिद्दी नारी के आगे समर्पण कर देता है, क्योंकि वह इस कारण परिवार तोड़ना नहीं चाहता है, उसके माता-पिता भी नहीं चाहते कि उनकी बजह से बेटे का परिवार टूट जाए।
कुछ बहुओं को अपने सास और ससुर पर कोई भरोसा इसलिए नहीं है कि वह कम पढ़े-लिखे हैं, गाँव के रहने वाले हैं। वह मेरे बच्चों को उल्टी-सीधी बातें सिखाएंगे, मेरी आजादी में खलल डालेंगे। मौज-मस्ती से घूम फिर नहीं पाएंगे। बंधन हो जाएगा, आदि-आदि।
कुछ बेटे और बहुओं की मजबूरी
आज भी बहुत से बेटे और बहुएँ ऐसी हैं, जो अपने माता-पिता को साथ रखना चाहते हैं, लेकिन विवश हैं कि कहीं वे ऐसी जगह सर्विस करते हैं, जहाँ माता-पिता को ले जाया जाना संभव नहीं है। मकान बहुत छोटा है या आय बहुत कम है या वे विदेश में हैं। ऐसी विषम परिस्थितियों में माता-पिता स्वयं भी नहीं जाना चाहते। साथ रहने से बचते हैं कि उनके कारण बच्चों को तकलीफ होगी।
वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या
देश में वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या यह सत्य बयां कर रही है कि अब वृद्धों को परिवार में उपेक्षा, अपमान ने इतना तोड़ दिया है कि वे वृद्धाश्रमों में रहने के लिए विवश हो रहे हैं। उन्हें जिस सम्मान और प्रेम की वृद्धावस्था में आवश्यकता थी, वह उन्हें अपने बेटे और बहुओं से नहीं मिल पा रहा है।
कुछ वृद्धों की मजबूरी भी है कि उनके आगे-पीछे कोई नहीं है, न बेटा और न बेटी। और वैसे भी हमारे भारतीय समाज में माता-पिता बेटी के घर नहीं रहना चाहते हैं। यदि केवल बेटी ही हो। वैसे कुछ बेटी और दामाद आज भी अच्छे भी हैं।
कुछ उदाहरण
एक वृद्ध सेवानिवृत्त प्रोफेसर की डेढ़ लाख पेंशन, लेकिन बहू फिर भी उपेक्षा और अपमान करती है। किसी भी कीमत पर नहीं रखना चाहती। बेटा विवश है, करें तो क्या करें। उन्हें वृद्धाश्रम में मजबूरी में आना पड़ा है। पोती-पोतों की याद सताती है।
एक वृद्ध के तीन बेटे हैं और छह पोते और पोतियाँ हैं, लेकिन हाल पूछने वाला कोई नहीं। जबकि आज भी भारतीय समाज में बेटों पर बड़ा अभिमान कर फूले नहीं समाते हैं, उनके जन्म के लिए भगवान से मिन्नतें करते हैं कि उनके एक पुत्र ही पैदा हो जाय। वृद्ध का सारा पैसा भी बेटों ने अपने कारोबार में लगवा लिया। वह शिक्षक थे। सेवानिवृत्त होने से पहले ही उनकी बेटों ने सर्विस छुड़वा दी। उनके तीन-तीन बेटों ने अपने घरों में रखा भी नहीं। आज वे वृद्धाश्रम में रह रहे हैं।
एक वृद्ध जो पुलिस विभाग में नौकरी करते थे, ने बताया कि उनके दो बेटे हैं। दोनों ही बेटे, बहुएँ और पोते-पोतियाँ दुर्व्यवहार करते हैं और यहाँ तक कि उनकी पेंशन भी मारपीट कर छीन लेते थे। अब वे भी वृद्धाश्रम में रह रहे हैं।
एक वृद्धा ने बताया कि बेटा तो उसे रखना चाहता है। बहुत प्यार करता है। बेटे की बहू उससे बहुत झगड़ा करती है। वह बहू को फूटी आँख नहीं सुहाती है। घर और बेटे के कारोबार में दस नौकर-चाकर हैं। वे आजकल वृद्धाश्रम में हैं।
इस तरह अनेकानेक उदाहरण हैं वृद्ध जनों के। जिसे वृद्धजन विष-सा घूँट पीकर जिंदगी की असहनीय पीड़ा झेलकर वृद्धाश्रमों में रहने को विवश हैं, उन्हें अपने बेटे और पोते और पोतियों की याद आती है। वे सोचते हैं कि उन्होंने किस तरह बच्चों को पढ़ाया-लिखाया और योग्य बनाया। जीवन का कितना सुख चैन खोया, अपने बच्चों के लिए, लेकिन अब उनका कोई पूछने वाला नहीं, आज विवश हैं, वे वृद्धाश्रमों में रहने के लिए।
वानप्रस्थ आश्रम
महर्षि दयानंद सरस्वती जी आर्यसमाज के संस्थापक ने बहुत पहले ही बता दिया था कि 60 वर्ष के बाद मनुष्य को परिवार त्यागकर वानप्रस्थ आश्रम में चला जाना चाहिए, जैसा कि वेदों की संस्कृति कहती है। 60 वर्ष के बाद अपने परिवार से मोह त्यागकर ईश्वर भक्ति में मन लगाना चाहिए। सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिए। इसीलिए देश में बहुत से वानप्रस्थ आश्रम खुलते गए। लोग स्वेच्छा से अपने परिवार अर्थात अपने बच्चों की सहमति से वानप्रस्थ आश्रमों में रह रहे हैं। वानप्रस्थ आश्रमों में उनके बच्चे भी आते रहते हैं तथा वृद्ध जन भी अपने परिजनों से मिलने चले जाते हैं। इस प्रकार वृद्धों का आना-जाना लगा रहता है। कभी विशेष अवसरों पर और कभी मौसम के अनुसार।
उन्हें कोई घुटन-टूटन नहीं। वैसे यहाँ भी कुछ अन्यान्न समस्याओं से ग्रसित वृद्धजन भी मिल जाएंगे।
वृद्ध आश्रमों और वानप्रस्थ आश्रमों में इतना ही अंतर है कि एक में मजबूरी में वृद्धजन आते हैं तथा मन में हताशा, निराशा है, तो दूसरी ओर वानप्रस्थ में स्वेच्छा से वृद्धजन रहते हैं। वे अपने को स्वतंत्र महसूस करते हैं।
आज की ज्वलन्त समस्या
आज की ज्वलन्त समस्या है कि नई पीढ़ी अपने संयुक्त परिवार, समाज, धर्म, सामाजिकता से दूर भाग रही है, संयुक्त परिवार एकल हो रहे हैं, इनके निदान हेतु कुछ उपाय निम्नवत हैं।
भारत बहुल सम्प्रदायों का देश है। यहाँ विभिन्न जातियों और धर्मों के लोग रहते हैं। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में संयुक्त परिवार मिल-जुलकर रहते हैं, उनमें आपसी सहयोग और विश्व बंधुत्व की भावना विद्यमान है। ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा नगरों में संयुक्त परिवारों की संख्या अपेक्षाकृत कम हुई है। उसका मुख्य कारण है कि लोगों में स्वार्थ की बढ़ती भावना और साथ ही जगह की कमी का होना।
कुछ परिवारों में इसलिए भी एकल परिवार बन गए हैं कि माता-पिता के एक या दो संतानें हैं। उनकी शादी हो गई। कहीं दूर जॉब लग गई और किसी की विदेश में जॉब लग गई, तो ऐसी स्थिति में बहुत से परिवार स्वतः ही एकल परिवार की स्थिति में आ गए हैं।
साथ ही वृद्ध जनों की कोई देखभाल और सुरक्षा करने वाला भी नहीं रहा, तब उन्होंने वृद्धाश्रमों की ओर जाना उचित ही समझा।
और कहीं ऐसी स्थिति आई कि पति और पत्नी में से एक ही रह गया और निकट संबंधियों में कोई देखभाल वाला नहीं है, तब उन्होंने वृद्धाश्रमों में जाना उचित ही समझा।
25-30 प्रतिशत वृद्ध वृद्धाश्रमों में ऐसे भी रह रहे हैं, जिनका कोई परिजन और नजदीक का संबंधी शेष नहीं है। उनकी भी अपनी मजबूरी है।
प्रश्न यह है कि वृद्धाश्रमों की संख्या क्यों बढ़ रही है, उसका मुख्य कारण है- पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति का युवाओं बढ़ता असर। उन्हें भोग-विलास वाली, खाओ-पीओ और मस्त रहो, वाली संस्कृति रास आ रही है। उन्हें अकेला रहना अनुकूल लग रहा है। इस तरह उन्हें किसी का दखल या बंधन अपनी जड़ों से दूर ले जा रहा है।

उन्हें संयुक्त परिवार का आपसी प्रेम, सद्भावना, मिलनसारिता नहीं भा रही है। विशेषकर नारियों में। क्योंकि नारी ही परिवार की रीढ़ हैं, वह चाहें तो परिवार को बना सकती हैं और वह चाहें तो काँच-सा तोड़ भी सकती हैं। अधिकांश बढ़ते तलाकों में यह बात सामने आ रही है कि उनके ईगोइस्ट बनने से एकल परिवार भी जल्दी धराशायी हो रहे हैं। पूर्व की भाँति पति और पत्नी में सहने की शक्ति नहीं है। पति और पत्नी की सहन शक्ति, सहजता, विनम्रता दम तोड़ रही है।
जब पत्नी और पत्नी तक साथ नहीं रह पा रहे हैं, तो वे वृद्ध माता-पिता को कैसे साथ रख सकेंगे।
वर्तमान में तनिक-तनिक-सी बात पर एकल परिवार में अलगाव हो रहा है। उसकी मुख्य वजह है कि बेटी का अपने मायके में अपनी ससुराल की बातों को बताना, विशेषकर मोबाइल पर माँ से घण्टों-घण्टों बतियाना। माँ द्वारा बेटी को उकसाना, भड़काना।
परिवार के टूटने का मुख्य कारण यह भी है कि ऐसी नारियों को अपनी माँ से उचित शिक्षा नहीं मिली। उन्हें शिक्षा मिली है कि जाते ही अपना एकल परिवार बसाना। सास-ससुर जाएँ ऐसी-तैसी में। अकेले सुख से रहना। यदि पुत्री को माँ से प्रेम और सद्भाव की शिक्षा मिलती तो वह एकल परिवार बसाने की सोचती ही नहीं। यह भी वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या का एक मुख्य कारण दृष्टिगोचर हो रहा है।
मुझे यह कहने में भी संकोच नहीं है कि कुछ वृद्ध जन भी इसके स्वयं कारण हैं। वे केवल और केवल धन-संग्रह एकत्रित करने में लगे रहे और जीवन भर वह यही करते रहे। बच्चों को अच्छे संस्कार देने की सोची ही नहीं। धन कमाना ही उनका मुख्य लक्ष्य रहा और नतीजा उनके सामने आ ही रहा है। यह भी मुख्य कारण में से एक मुझे लगता है।
ऐसी विषम परिस्थितियों में समाधान यही लगता है कि हम भारतीय संस्कृति और सभ्यता को श्रद्धापूर्वक अपनाएं जो हमें प्रेम, सद्भावना, संतोष, अपरिग्रह से रहने के लिए कहती है। माता-पिता अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दें। उन्हें दादा-दादी और नाना-नानी आदि का सम्मान करना सिखाएं। हम सभी अपने बुजुर्गों से प्रेम और सम्मान करें। उनकी हर सम्भव सहायता और सहयोग प्रदान करें।
आज अधिकांश बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाई करते हैं, माता-पिता को उन्हें अच्छे संस्कार सिखाने का समय ही नहीं मिलता। वे भी शासकीय या अन्य सेवा कार्य कर रहे हैं।
जब हम लोग बचपन में (1950-1972) प्राथमिक, माध्यमिक या उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करते थे, तब पाठ्य पुस्तकों में संस्कारदायी कथाओं तथा कविताओं का समावेश रहता था। उदाहरणार्थ बालक ध्रुव, श्रवण कुमार, प्रह्लाद, राम तथा कृष्ण आदि, साथ ही सूरदास, तुलसीदास, रसखान, मीराबाई की रचनाएं भी पाठयक्रम में सम्मिलित थीं। ये सभी बच्चों को उत्तम संस्कार की प्रेरणा देती थीं। आजकल धर्म निरपेक्षता के नाम पर इन्हें हटा दिया गया है, जिसका परिणाम हम सभी देख ही रहे हैं।

अतः सरकारों को चाहिए कि पाठ्यक्रम में पुनः प्रत्येक विद्यालय में नैतिक शिक्षा आदि प्रारंभ कराई जाय।
बच्चों को नैतिक शिक्षा दिया जाना बहुत आवश्यक है कि वे अपने बड़ों का सम्मान और सेवा करना सीखें। यह संस्कार उन्हें कहानियों और कविताओं के माध्यम से आसानी से दिया जा सकता है। बचपन के संस्कार ही मजबूत नींव बनते हैं।
दहेज प्रथा बंद होनी चाहिए
खर्चीली शादियाँ मनुष्य को दरिद्र और बेईमान बनाती हैं। फिर भी बुद्धिमान और मूर्ख इस प्रथा को छाती से लगाए बैठे हैं। जब किसी परिवार में पुत्र का पिता और माता खूब दान-दहेज लेकर विवाह करेंगे तो क्या बहू उनके प्रति सेवा का भाव रखेगी। शायद कदापि नहीं। तब वह अपने पति के साथ एकल परिवार ही बसाएगी, वह क्यों संयुक्त में रहना चाहेगी।
इसलिए हमें भ्रांतियों, कुप्रथाओं, विकृतियों को छोड़ना होगा। बच्चों को अच्छे संस्कार देने होंगे। क्योंकि जहाँ लालच और लिप्सा है, वहाँ संस्कार नहीं रहते है। यदि माता-पिता को अपना सम्मान और सेवा कराने की कामना है तो उन्हें संस्कारवान बहू ही ढूंढकर अपने बेटे का विवाह करना चाहिए।
युवा और युवतियां गहराई से चिंतन अवश्य करें
देश के विवाहित युवा और युवतियों को गहराई से सोचना होगा कि उन्हें भी वृद्धावस्था की ओर बढ़ना है। काश! उनकी संतान वृद्ध होने पर उनके साथ ऐसा व्यवहार करें, अर्थात वृद्धाश्रमों में भेजने को मजबूर करें तो उन्हें कैसा लगेगा। उन्हें समय रहते चेतना होगा और उन्हें पूरी तरह बदलना होगा, यही सोचकर कि आनेवाला कल उनके लिए सुखदायक बने। उसमें पुष्प वर्षा हो। उनके बच्चे भी उनसे प्रेम करें, सम्मान और सेवा करें। क्योंकि बच्चे जो देखते हैं, वे भी वही करने लगते हैं। इसलिए युवा पीढ़ी के लिए स्वयं के लिए ही भलाई है कि वे अपने वृद्ध माता-पिता का सम्मान और सेवा करें। हम सभी को चाहिए कि हम सभी इस ओर चिंतन और मनन करें। भविष्य सुखमय बने। मुझे आशा है कि उपरोक्त सुझावों से परिवारों का भविष्य अवश्य सुखमय बनेगा। वृद्धों को वृद्धाश्रमों में नहीं जाना पड़ेगा।
फिर से इस देश में संयुक्त परिवार गरिमा प्राप्त करें, उनकी खुशबू पूर्ण विश्व में फैले। वृद्धजनों का सम्मान बढ़े, इन्हीं कामनाओं के साथ हमने संयुक्त परिवार की कल्पना एक गीत के माध्यम से की है:
घर पावन संसार
दिव्य प्रेम परिभाषित होता
घर पावन संसार।
भारत की माटी में बसता
मिला-जुला परिवार।।
घर का पूरा आँगन चहके
चहके है कोना-कोना।
सबके मन भी एक सुमन हैं
घर लगता चाँदी सोना।।
चिंतन, चिंता एक सभी की
पायल खनकें प्यार।
दिव्य प्रेम परिभाषित होता
घर पावन संसार।।
हो अपनत्व भाव हर दिल में,
जीवन नित्य सरसता है।
संपति में हक सबका होता,
स्वर में घुली मधुरता है।।
दादा, दादी, पोता-पोती
गाएँ गीत मल्हार।
दिव्य प्रेम परिभाषित होता
घर पावन संसार।।
दृढ़ होती है नींव प्रेम की,
प्राण-प्राण हर्षाता है।
रिश्तों की मजबूत डोर है,
बने सुखों से नाता है।।
घर का मुखिया एक रीढ़ हो,
वही सुखी परिवार।
दिव्य प्रेम परिभाषित होता
घर पावन संसार।।
ताई-ताऊ, चाची-चाचा
बहना-भाई हैं मिलते
बूआ-फूफा, जेठ-जिठानी
मुन्ना-मुन्नी सब हँसते
दृढ़ रिश्तों के पुष्प महकते
बिखरें हरसिंगार।
दिव्य प्रेम परिभाषित होता
घर पावन संसार।।
भारत की माटी से जुड़कर
युग निर्माण करेंगे हम
मिलजुलकर परिवार हँसेगा
एकल नहीं बनाएँ हम
योग, यज्ञ प्रातः वंदन हो
मिटते हृदय विकार।
दिव्य प्रेम परिभाषित होता
घर पावन संसार।।
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