कहते हैं श्रवण कुमार के माता-पिता अंधे थे। इसलिए उन्हें छोड़ कर श्रवण कुमार ने धनार्जन के लिए अन्यत्र जाना स्वीकार नहीं किया। वह उनकी सेवा करता हुआ उनके साथ ही रहा। जब उन्होने तीर्थ यात्रा की इच्छा की तब श्रवण ने उन्हें काँवड़ के दोनों पलड़ों पर रख कर तीर्थयात्रा करवाने का निश्चय किया। यद्यपि यह यात्रा पूरी नहीं हो सकी क्योंकि गलती से एक राजकुमार द्वारा तीर मार कर श्रवण की हत्या कर दी गई। उसके वियोग में उसके माता-पिता ने भी प्राण त्याग दिए। लेकिन श्रवण कुमार पुत्र धर्म का एक ऐसा प्रज्वलित नक्षत्र बन गया जो युगों से हर भारतीय पुत्र के लिए आदर्श और भारतीय माता-पिता के लिए एक सपना रहा है।
भारतीय परंपरा में पुत्र का कर्तव्य तो माता-पिता के मृत्यु पर ही खत्म नहीं हो जाता बल्कि उसके बाद भी पित्रों को जलांजलि और तर्पण देना उसका कर्तव्य होता है। किसी शुभ कार्य के लिए जाते समय बड़े-बूढ़ों को आगे कर चलना शुरू करने की यहाँ परंपरा रही है। तो बालक (बटुक) और कन्या पूजन की भी परंपरा रही है। यह तो ‘श्रावक’ परंपरा का देश है जहां बच्चे बड़ों से सुन कर ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज्ञान और विज्ञान सीखते थे।
ऐसे आदर्श वाले देश में ये कैसे हो रहा है कि वृद्ध माता-पिता घर में तो उपेक्षित हो ही रहे हैं, यहाँ तक कि उन्हें अपने ही घर में आश्रय से वंचित होना पड़ता है? क्यों घर छोड़ कर वृद्धों को किसी आश्रम में अनाथों की तरह आश्रय लेना पड़ता है? क्या हम अपने संस्कारों से दूर हो गए हैं? क्या इसके लिए केवल वृद्ध जिम्मेदार हैं? क्या इसके लिए केवल बच्चे जिम्मेदार हैं? क्यों कुछ वृद्ध अच्छे खासे घर को छोड़ कर स्वेच्छा से वृद्धश्रमों में रहने जा रहें हैं? क्या हम अपने समाज से इतने कट गए हैं? क्या हमारा समाज इतना स्वार्थी हो गया है कि अपने बचपन को गोद देने वाले वृद्धों को संभाल नहीं सकता? पीढ़ियों का यह असंतुलन कहाँ से और कैसे आ गया? क्या होगा इसका परिणाम? क्या वृद्ध केवल बच्चों की या केवल सरकार की ज़िम्मेदारी हैं?
ये प्रश्न केवल मानवीय नहीं हैं जो कि कुछ वृद्धों की दयनीय अवस्था को देख कर सहानुभूतिवश पूछा जाना चाहिए, बल्कि ये बृहत्तर प्रश्न हैं। ये वृहत्तर हैं क्योंकि जो समाज अपने वृद्धों, बालकों और स्त्रियों को गरिमापूर्ण और सुरक्षित जीवन नहीं दे सकता है, वह असभ्य आदि मानवों का झुंड मात्र बन जाता है; क्योंकि जब परिवार के मूलभूत आदर्श टूटते हैं तब समाज, देश या कोई सभ्यता-संस्कृति नहीं बच सकती, क्योंकि नई पीढ़ी को मानवीय मूल्य और पीढ़ियों का अनुभव देने का दायित्व पुरानी पीढ़ी पर ही होता है; और क्योंकि हमारे देश सहित समस्त दुनिया में वृद्धों की संख्या बढ़ रही है।
पीढ़ियों के इस भटकाव के लिए किसी एक को दोष नहीं दिया जा सकता। वृद्धों की दुरावस्था के लिए निम्नलिखित कारणों को प्रमुख रूप से जिम्मेदार माना जा सकता है:
1. बदली जीवन प्रणाली
संयुक्त परिवार का स्थान एकल परिवार ने ले लिया। खुले आँगन-दालन वाले घरों का स्थान बंद फ्लैट ने ले लिया। परिवार सभी लोगों के आय के स्रोत लगभग एक जैसे नहीं होने से उनकी आर्थिक स्तर में अंतर आ गया। शिक्षा प्रणाली और व्यवसाय ने परिवार के सभी सदस्यों की जीवनपद्धति भिन्न-भिन्न कर दिया। दिनचर्या, जीवन प्रणाली, आदतें और विचार बदलने के कारण परिवार के सदस्य भी एक साथ रहना सुविधाजनक नहीं पाते। बहुत सारे बच्चे अपने माँ-बाप के अपने साथ रखना चाहते हैं लेकिन इन सब कारणों से माँ-बाप साथ नहीं रहना चाहते हैं। हालांकि प्रेम की कमी किसी तरफ से नहीं होती। बदलती दिनचर्या और आदतें ‘साझे यादों’ की संख्या कम कर देती है। धीरे-धीरे विचारों की दूरी भावनाओं में भी दूरी ला देती है।
2. व्यक्तिकेंद्रित सोच
वर्तमान में शिक्षा, मीडिया आदि हर माध्यम से व्यक्तिवाद को महत्त्व दिया जाने लगा है। व्यक्ति महत्त्वपूर्ण हो गए मानवीय मूल्य गौण। धन महत्वपूर्ण हो गए, स्नेह संबंध गौण। सफलता के मापदंड बदल गए। सफलता के मापदंड यह नहीं रहा कि आपके पीछे कितने लोग हैं, अपितु यह हो गया कि आपके पास क्या है। समाज आपको सम्मान नहीं देता अपितु आपके पास क्या है, इसे सम्मान देता है। इसलिए माँ-बाप भी बच्चों को ऐसा बनाना चाहते हैं जिससे समाज में उनकी इज्जत बढ़े। बच्चे बड़ी डिग्रियाँ लें, बड़े पद पाए, अधिक पैसे कमाएं। बच्चों के इन सब उपलब्धियों के लिए वे अगर जरूरी हो तो अन्य सम्बन्धों और मानवीय मूल्यों को भी छोड़ देते हैं। लेकिन ऐसा करते हुए वे भी भूल जाते हैं कि इतनी उपलब्धियों के बाद बच्चों के पास उनके लिए समय नहीं होगा।
3. बदलती भूमिका को स्वीकार नहीं करना
जब तक बच्चे माँ-बाप के आश्रित होते हैं, माँ बाप ही घर के मुखिया होते हैं, उनकी ही मर्जी चलती है। लेकिन जब बच्चे बड़े हो जाते हैं, तब वे अपनी मर्जी से चलना चाहते हैं, वे अपनी ज़िंदगी अपने हिसाब से जीना चाहते हैं। उनकी अपनी दुनिया हो जाती है जिसमें अपनी समस्याएँ, अपने बच्चे, अपने संबंधी, अपने मित्र, अपने सहकर्मी हो जाते हैं। जो माँ-बाप पहले उनकी दुनिया थे अब वे एक कोने में सिमट जाते हैं। लेकिन माँ-बाप अपने बदलती भूमिका को स्वीकार नहीं कर पाते। वे अभी भी घर के मुखिया बने रहना चाहते हैं। वे अभी भी बच्चों की ज़िंदगी में अपनी केन्द्रीय भूमिका चाहते हैं। यह स्थिति माँ-बाप और बच्चे दोनों के लिए सही नहीं होता है।
4. युवा पीढ़ी की विवशताएँ
यह नहीं है कि सभी युवा गलत या संवेदनशून्य होते है। लेकिन उनकी भी कुछ विवशताएँ होती हैं। खेती या 10 से 4 की तरह की अब उनकी नौकरी नहीं होती। पढ़ाई हो या ऑफिस, हर जगह गलाकाट प्रतियोगिता। 12-12 घंटे की नौकरी, बॉस की डांट, ऑफिस के पॉलिटिक्स, परिवार की जरूरतें, घंटों-घंटा रास्ते के ट्रैफिक में गुज़ारना, फिर भी जीवन में स्थायित्व नहीं। इन सब में उलझा हुआ उसका मन कई बार तो अपनी पत्नी और बच्चों के साथ भी समय नहीं बिता पाता। बहुत सारे खर्चे जो उसके लिए ‘आज के समय के हिसाब से जरूरी’ होते हैं उनके माँ-बाप के लिए वे जरूरी नहीं होते हैं। ऐसे में न तो माँ-बात न ही बेटा एक-दूसरे की विवशता को समझ पाते हैं। कई बार तो कई बाते केवल इसलिए छुपा जाते हैं कि दूसरे पक्ष को परेशानी नहीं हो। लेकिन फिर भी धीरे-धीरे दूरी बढ़ती जाती है।
वस्तुतः वृद्ध और युवा पीढ़ी- दोनों एक दूसरे की समस्या को सहानुभूति के साथ समझे और एक-दूसरे को उपयुक्त स्थान दे तभी परिवार बचा रह सकेगा। आज भी बहुत से बेटे-बेटियाँ अपने व्यक्तिगत हितों का बलिदान देकर भी माँ-बाप के खुशी को संभालते हैं। एक समाज के रूप में भी हमारी ज़िम्मेदारी बनती है कि वृद्ध को उनके बच्चों की ज़िम्मेदारी समझ कर केवल आलोचक की भूमिका में न रहे, उन्हें समस्त समाज की ज़िम्मेदारी समझे और उनके साथ सामंजस्य बनाए ताकि सामाजिक तानाबाना मजबूत बना रहे।
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