सुबह के १० बजे थे । रोज़ाना की दिनचर्या से निबट जलपान ख़त्म कर शारदा जी ने नौकर को आवाज़ दी ।

“राघव, मेरी कुर्सी ज़रा बाहर लगा देना ।”
छोटी सी पोर्टिकोनुमा आँगन में धूप आने लगी थी । ज़ाड़े की धूप सुहानी होती है । और उसमें भी सुबह की धूप की चाह किसे नहीं होती । वह भी तब जब पता हो कि कंक्रीट की जंगल से निकल कर सूर्यदेव को इस आँगन तक पहुँचने में कितनी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। आँगन के तीनों तरफ़ बड़ी बड़ी इमारतें बन गई थी। ख़ुशक़िस्मती थी कि २० वर्षों के बाद भी दाईं तरफ़ वाली पड़ोसन के मन में घर को आधुनिक रूप देने का विचार नहीं पनपा । इसका कारण उनकी आर्थिक बेवसी थी या आधुनिकता से परहेज़ यह तो नहीं पता पर इसका लाभ उठाते हुए सूर्य की सुनहरी किरणें पूर्व से उत्तरायण की ओर होते हुए शारदा जी के आँगन में भी एक झाँकी अवश्य मार लेती थी। शारदा जी कई वर्षों से इस अवसर का लाभ उठाती रही हैं ।
नौकर ने आँगन में कुर्सी के साथ एक केन का टेबल और उसपर शारदा जी की डायरी, कलम और कुछ पत्रिकाएँ भी रख दी । यह उसका रोज़ाना का कार्य था । अतः शारदा जी की विशेष हिदायत का इंतज़ार किए बग़ैर उसने नियमानुसार अपनी ड्यूटी पूरी कर इस कार्य से तत्काल छुटकारा पा लिया । शारदा जी दाएँ हाथ में मोबाइल पकड़े और बाएँ हाथ से साड़ी को पैरों के नीचे आने से बचाते हुए धीमी कदमों से उस कुर्सी पर जा बैठीं। प्रधानाध्यापक के पद से अवकाशोपरांत उनकी लगभग यही दिनचर्या थी । रोज़ सुबह जलपान के बाद वह घंटे-दो-घंटे बाहर बैठतीं, अपनी छोटी सी आँगन को निहारतीं, पत्रिका पढ़तीं, डायरी लिखतीं और समय बचता तो कुछ कविताएँ या कहानियाँ भी लिख लेतीं । मौसम का बदलाव भी शारदा जी की इस दिनचर्या में अड़ंगा नहीं डालता । ऋतुओं के अनुसार वह स्वयं ही समय में फेर बदल कर लेतीं । सिर्फ़ वर्षा ऋतु उनकी एक नहीं चलने देती । उन्होंने बारिश के मौसम से समझौता कर लिया था । प्रकृति की सुरक्षा हेतु इस दिनचर्या को विराम देना उन्हें उचित लगा ।
जाड़े की कुणकुणाती धूप उन्हें सुखकर प्रतीत हो रही थी । उन्होंने हाथ में पत्रिका उठाई और पीठ को कुर्सी के पिछले भाग में टिकाकर पैरों को सामने रखे टेबल पर रख आराम की मुद्रा में जैसे ही बैठीं कि गेट पर आहट हुई । गेट खुलने का इंतज़ार किए बग़ैर दो हट्टा-कट्टा आदमी लोहे की छिटकिनी सड़काकर हाथों में कुल्हाड़ी लिए अंदर प्रवेश करने के लिए लपका –
“कौन हो तुमलोग? ऐसा कैसे घुसे आ रहे घर में? कोई तमीज़ है कि नहीं?”
शारदा जी की सख़्त और भारी आवाज़ सुनकर वे दोनों थमक गए ।
“माफ़ करो अम्मा, वो गेट अंदर से खुलाइच्च था ….”
हमारे को साहेब ने बुलाया, नारियल का पेड़ है यहाँ पे क़त्ते?” बाहर से ही उनमें से एक ने पूछा ।
“हाँ है । तो?”
“उसे काटने को बोले उनो ।”
शारदा जी एक पल के लिए अंदर से तिलमिला गईं । कुछ और सोच पातीं या डाँटकर उन्हें भगाती उसके पहले ही दो दिन पूर्व पुत्र से हुई वार्तालाप स्मरण हो आई ।
“माँ, म्युनीसिपल का पानी बहुत कम आ रहा है। इतने से काम चलना मुश्किल है। लगता है पेड़ काटकर हौज़ को बड़ा करना पड़ेगा ताकि टैंकर से पानी मँगवाकर स्टोर किया जा सके ।”
उस वक्त शारदा जी ने हामी भर दी थीं । वह भी कठिनाइयों को समझ सकती थीं । इस पहाड़ी इलाक़ा में हमेशा ही पानी की परेशानी झेलनी पड़ती है । प्रकृति के प्रकोप से कृष्णा और गोदावरी जैसी नदियाँ भी अछूती नहीं है । नदी के पास पानी होगा तब तो वह मनुष्यों की प्यास बुझाएगी । एक तो नदी में पानी नहीं ऊपर से राज्य सरकारों के बीच का मतभेद । धरती की बहत्तर प्रतिशत हिस्सा पानी से भरा है और वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से पूरा ग्लेशियर पिघलकर धरती जलमग्न होने वाली है फिर भी मनुष्य को आज पीने के लिए पानी कम पड़ रहा है । है न अचम्भे वाली बात।
घर में छोटा सा पोता था जो कई वर्षों देवी-देवताओं की गुहार और मन्नतों के बाद आया था । कहने को तो छोटा-सा परिवार था। स्वयं पति-पत्नी, एक बेटा और बहु। अब एक नन्हा-सा मेहमान है और उसे देखने के लिए गाँव से आए हुए कुछ रिश्तेदार भी। पाँच सदस्यों के परिवार में खाने वाले सात-आठ हो ही जाते हैं। ऊपर से मिलने जुलने वालों का ताँता और उनकी आवभगत में अधिक नहीं तो चाय-पानी की औपचारिकता से मुख नहीं मोड़ा जा सकता। पुत्र की परेशानी भली-भाँति समझ सकती थीं शारदा जी।
“राघव! देख ज़रा गेट पर और साहब को ऊपर ख़बर कर दे।”
शारदा जी ने नौकर को आवाज़ दीं और हिदायत दीं कि उन कसाईनुमा मज़दूरों को गेट के अंदर बुला ले ।
कितनी यादें जुड़ी हैं इस छोटे से घर और इसकी एक-एक चीजों से । कितनी मशक़्क़त के साथ उन्हें यह घर मिला था । पतिदेव को भी कितना मनाना पड़ा था । बड़ी मुश्किल से उनके गाँव वापस जाने की ज़िद को अपनी ज़िद पर माथा टेकने के लिए विवश किया था उन्होंने । उनका वश चलता तो यहाँ कुछ भी नहीं ख़रीदते । शहर को सीधे विदेश का दर्जा जो दे रखा था। बस चार पैसे कमाते ही वापस अपने देश (गाँव) लौटने का इरादा था । गाँव में बड़ा- सा चौघरा हवेली का सुख देखा हुआ आदमी शहर की माचिस की डिब्बी जैसे घरों से क्या आकर्षित होता । वे अपनी जगह सही भी थे । शारदा जी भी कहाँ भूल पाईं थीं वे दिन जब वह दुल्हन बनकर पहली बार ससुराल गईं थीं । शीशम की लकड़ी से बना दरवाज़ा इतना विशाल था कि खरखरिया (सवारी जिसमें दुल्हन विदा होकर आई थी) दरवाज़े के बजाय सीधे आँगन में उतरी । मज़बूत इतना कि क़िले के दरवाज़े को टक्कर दे।
अगले ही दिन रात के अंधेरे में दादी सास कमरे में दाखिल हुईं। पतली सी पाढ़ (किनारी) की दूध-सी सफ़ेद सारी पहनी हुई थीं और पल्लू को सर पर रख दोनों कान के पीछे ऐसा फँसा रखी थीं कि पल्लू और सिर का नाता चाह कर भी छूट नहीं सकता था । नई दुल्हन झट से अपना पल्लू माथे तक ओढ़ संभल कर बैठ गई।
“घबराए के कोनो बात नई दुल्हिन, चलू कनी बारी में एग़ो चीज़ देखबई छी ।”
और घूँघट को थोड़ा और नीचे खींच दिया उन्होंने । नई दुल्हन घूँघट काढ़े मध्यम गति से उनके पीछे हो ली । चूँकि दिन के उजाले में दुल्हन का घर से बाहर निकलना प्रथा के ख़िलाफ़ होता इसलिए दादी सास ने रात में पीछे के दोमुहाने वाले दरवाज़े से घर के पिछवारे ले जाकर खड़ा कर दिया-
“दूल्हिन देख़ई छी, जहाँ तक नज़र जाईय ऊहाँ तक अपने ज़मीन हबे ।”
और नई दुल्हन देखती रह गई। दूर तक चाँदनी फैली हुई थी। गेहूँ और दलहन की फसल से लहलहाते खेत और उसके आगे आम का बाग़ीचा। दूधिया चाँदनी में चमकते खेत अद्भुत छटा बिखेर रही थी । उस वक्त न उम्र थी और न विशेष ज्ञान जो इसकी अहमियत को समझ पाती पर गर्व की अनुभूति अवश्य हुई थी। उसके बाद भी कई बार उन्होंने उस ज़मीन को देखा है पर वह प्रथम दृश्य की अनुपम छटा अभी भी शारदा जी के आँखों से ओझल नहीं हो पाई है।
समय बदला और साथ ही चाहतें भी । उत्तम और आधुनिक जीवन जीने की ललक ने दम्पति को शहर की ओर आकर्षित किया । एक छोटा-सा घर शहर में भी बनाने की ठान लीं शारदा जी ने । वैसे भी देखा गया है कि घर की चाह अक्सर स्त्रियों को ही होती है। वह निर्माण में विश्वास करती है। जहाँ रहेगी वहाँ अपनी छोटी-सी दुनिया अवश्य बसा लेगी । यदि स्त्री न चाहे तो पुरुष ‘रमता योगी बहता पानी’ की छवि से बाहर ही न आए। शारदा जी ने भी पतिदेव को शहर में इस घर का फ़ॉर्म भरने के लिए यह कहते हुए मनाया कि-
“भर लेते हैं न, वैसे भी लकी ड्रॉ में नाम आना पड़ेगा और हमारी क़िस्मत इतनी भी अच्छी नहीं है कि लॉटरी हमारे नाम से निकले । निकल भी गई तो गाँव जाते वक्त इसे बेच देंगे। कुछ तो निवेश हो जाएगा और आज नहीं तो कल काम ही आएगा ।”
ईश्वर की कृपा हुई और मिल गया घर। घर तो मिल गया परन्तु किस्त की रक़म भरने की समस्या आन पड़ी । रिश्तेदारों की कमी नहीं थी।
गाँव में भी खाता-पीता समृद्ध परिवार था। विश्वास था कि मदद मिल जाएगी । पर मदद तो दूर कर्ज़ के नाम पर ही सारे रिश्तेदारों ने चुप्पी लगा ली । जो लोग तरक़्क़ी का गाना गाते नहीं थकते थे आज अचानक उनके अंदर से जलन की बू आने लगी । शारदा जी की उम्मीदों पर पानी फिर गया । मदद तो मिली नहीं पर ताने अवश्य मिले। कानों में आवाज़ें आती रहीं –

“घर तो निकल गया है पर देखते हैं मिलता कैसे है। किस्त भरने के लिए पैसे चाहिए होता है, वह कहाँ से लाएगा। बड़ा आया घर का मलिक बनने।”
शारदा जी ने उनके समक्ष झोली फैलाने का इरादा त्याग दिया । बात तो सत्य थी । उन दिनों मुश्किल से पति-पत्नी अपने १० वर्षीय पुत्र के साथ गुज़ारा कर पा रहे थे । बचे-खुचे पैसे स्कूल की फ़ीस में चला जाता । ऐसे में घर ख़रीदने की बात सोचना ही बड़ी बात थी । परंतु शारदा जी ने कुँए में पैर डाल लिया था और अब मगरमच्छ से डरना उन्हें गँवारा नहीं था । गहने के नाम पर एक हँसुलहार और दो कान की बालियाँ बची थीं । पतिदेव की राय में उसे बेचकर पैसा चुकाया जा सकता था । वैसे तो स्त्री के गहने विपत्ति काल के मित्र होते हैं पर इन परिस्थितियों को विपत्तिकाल मान लेना उन्हें गँवारा नहीं था । शारदा जी को ससुराल और मायके की बची हुई निशानी को बेचना उचित नहीं लगा । दोनों दंपति ने डबल ड्यूटी कर पैसे जमा किए । शारदा जी पड़ोसी के घर बच्चे को छोड़कर जातीं और फ़ैक्टरी में एक मज़दूर की हैसियत से ओवर टाइम कर आठ घंटे के बदले १४ घंटे की नौकरी कर रात को वापस लौटतीं । ईश्वर की कृपा से जमा हो गया पैसा और हो गई रजिस्ट्री । फ़ैक्टरी का कमरा ख़ाली कर पति-पत्नी ने पुत्र के साथ अपनी छोटी-सी कुटिया में गृह प्रवेश ले लिया । आज की यह तीन मंज़िली इमारत उस वक्त मात्र दो कमरे का घर हुआ करता था । एक कमरा और उससे लगी एक छोटी सी रसोई । एक छोटा सा काम्पाउंड भी था और उसमें लगा एक लोहे का गेट जिसमें थोड़ी मशक़्क़त के बाद स्कूटर घुसाया जा सकता था ।
शारदा जी को इन पेड़ों से बहुत लगाव था। पुत्र ने गेंदा, गुलाब और जूही का पेड़ लगाकर एक छोटा-सा गार्डन भी बना दिया था जो ख़ुशबू से महकता रहता था। घर के मुख्य द्वार के सामने पूर्व से पश्चिम की ओर एक छोटा-सा मार्ग था जिससे गेट तक की दूरी तय की जाती थी । इसी मार्ग का उपयोग पुत्र बैट-बॉल खेलने के लिए भी कर लेता था ।
समय चक्र के साथ मनुष्य बदलता रहता है। और बदलना भी चाहिए। नहीं तो स्थूल की श्रेणी में मनुष्य भी आ जाएगा। स्थूल जीवन का कोई अर्थ नहीं होता । मनुष्य की प्रवृति होती है कि वह जहाँ है वहाँ से आगे की ओर बढ़े । इसी तरह वह एक एक पड़ाव तय करते हुए अपनी लक्ष्य की ओर बढ़ता है । लक्ष्य की पूर्ति कर पाता है या नहीं यह कहना कठिन है पर इतना तय है कि वह बग़ैर रुके विकास पथ पर आगे की ओर बढ़ता रहता है । आय के साथ-साथ ज़रूरतें भी बढ़ती हैं और फिर ज़रूरतों को पूरा करने के लिए मशक़्क़त भी । यह क्रम चलता रहता है ।
शारदा जी की भी आय के साथ साथ ज़रूरतें बढ़ने लगी। नातेदार-रिश्तेदारों का आवागमन होने लगा। शहर में अपना स्थाई मकान रिश्तेदारों के लिए भी अस्थाई आशियाना का काम करने लगा। कई ऐसे रिश्तेदार भी पैदा हुए जिनका ज़रूरत के समय कही नामों निशान नहीं था । कोई नौकरी की खोज में, कोई बीमारी का इलाज़ करवाने तो कोई रिश्ते खोजने के लिए भी दूर गाँव से आ जाते। पुत्र भी अब बड़ा हो गया और धीरे-धीरे शारदा जी को यह आशियाना छोटा पड़ने लगा । पुत्र के लिए रिश्ते भी आने लगे । पतिदेव की सोच में भी परिवर्तन हुआ। दो कमरे के घर में तीनों ने जैसे-तैसे गुज़ारा कर लिया पर अब नई बहू को कहाँ रखेंगे। शारदा जी ने उन कमरों को तोड़कर मकान का आकार देने की ठानी । अब पुत्र भी कमाने लगा था और स्वयं भी स्कूल की अध्यापिका बन गईं थी ।
चूँकि ज़मीन अधिक नहीं थी इसलिए मकान को ऊपर की ओर बढ़ाया गया। ज़मीन अपनी न सही आकाश तो अपना था। देखते ही देखते दो कमरे का घर तीन मंज़िल की इमारत में तब्दील हो गया। अब इसमें सबके लिए अलग कमरे, बैठक और गूसलखाने थे । आधुनिक सुविधाओं से लैश ऐशों-आराम की हरेक वस्तु थी । पर शारदा जी कभी भूल नहीं पाईं कि इन ऐशों आराम के पीछे उन्हें अमरूद, आम और निम्बू के पेड़ की बली भी चढ़ानी पड़ी है । पुत्र के नन्हें हाथों से बना बाग़ीचा उजाड़ना पड़ा । उदास देखकर पुत्र ने कहा था एक दिन- “कोई बात नहीं माँ, हम गमले में फूल लगा लेंगे ।”
अब उसे कैसे समझाए कि गमले वह लगा देगा पर उन नन्हें हाथों से बनी क्यारियाँ कहाँ से लाएगा जिसमें रंग-बिरंगी ख़ुशबू वाली फूल हो और जिसे भगवान को अर्पण करते हुए रोज़ उनका शुक्रिया अदा करे । छुट्टी के दिन जब माँ-बेटा साथ में बैठकर पौंधे और फूल गिनते हुए उनकी देखभाल करने बैठते तो घंटों एक पल में कैसे गुजर जाता पता ही नहीं चलता । माँ-बेटा और पौधों की एक बैठक-सी जमती जिसमें फूल एवं पत्ते मूक श्रोता बन उनके दुःख-सुख सुना करते । जब कभी वह आम के पेड़ पर चढ़कर शरारतें करता और सजा के डर से पेड़ के पीछे छुप जाता तो स्वयं को वह यशोदा से कम कहाँ आँकती थी। पुत्र को कैसे समझाए कि गमलों में इन यादों को सींचना कितना मुश्किल होगा ।
तरक़्क़ी से सब प्रसन्न थे । रिश्तेदारों में इज़ाफ़ा तो होना ही था । सबल को देखने वालों की कमी कहाँ होती है । पर कोई अबला हो तो उन्हें पूछने वाला भी कोई नहीं होता और इसका अनुभव शारदा जी कर चुकी थीं । पति-पत्नी के गम्भीर स्वभाव ने कड़वाहटों को अपने अंदर आने नहीं दिया । जितना तक हो सका ज़रूरतमंदों की सहायता करते रहे । ईश्वर ने अधिक नहीं तो इतना अवश्य दिया था कि “मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाए” वाली भावना कृतार्थ हो सके। शारदा जी जानती हैं कि ज़रूरतों की सूची कभी पूर्ण नहीं होती परंतु फिर भी वह संतुष्ट हैं । वह तब भी संतुष्ट थीं जब उनके पास कुछ भी नहीं था ।
इस छोटे से घर ने बड़े बड़े लोगों को आसरा दिया है । शहर में कइयों को बसाया । आज जब वह उन लोगों को देखती हैं जो मात्र एक झोला लेकर गाँव से दो जून की रोटी की तलाश में आए थे और अब बड़ी-बड़ी इमारतों, कारख़ानों और होटल के मालिक बन चुके हैं तो उन्हें एक अजीब-सी आत्म संतुष्टि मिलती है । और कुछ नहीं तो उनके आँखों में अपने लिए सम्मान और इज्जत तो ढूँढ ही लेती हैं वह ।
“अम्मा हमारे को देर हो रही… दूसरे जगह भी तो जाना है… क्या करना आपको मालूम क्या… आप इच्च बोल दो न अम्मा ।”
कानों से यह रूखी-सी आवाज़ टकराई और अचानक से शारदा जी की तंद्रा टूट गई । यादों के झरोखों से स्वयं को निकाला और अपने आपको सहज किया । बताने को तो वह अवश्य बता सकती थीं कि क्या करना है पर इच्छा भी तो होनी चाहिए ।
“फ़ोन किया था साब आपको, पन…।”
दूसरा आदमी बीच में ही बोल पड़ा ।
“कोई बात नहीं साब, आप बोले तो बाद में आते हम ।”
“राघव, साहब को बोला नहीं?” शारदा जी को थोड़ी ऊँची आवाज़ लगानी पड़ी ।
“बोल दिया माँ जी, मैडम बोलीं साहब बाथरूम में हैं आ जाएँगे थोड़ी देर में ।” नौकर ने भी अंदर से ही जवाब दे दिया ।
“आ रहे होंगे साहब, थोड़ा धैर्य रखो, इतनी हड़बड़ी किस बात की?” चाहकर भी आवाज़ को तल्ख़ होने से वह रोक नहीं पाईं ।
अवसर की गर्माहट उन मज़दूरों ने भाँप लिया और चुप लगा गए ।
स्वयं को सामान्य करते हुए शारदा जी पत्रिकाओं के पृष्ठ पलटने लगीं और पढ़ने लायक सामग्री खोजने लगीं । पर यादों का खंडहर कहाँ पीछा छोड़ती हैं। मनुष्य जितना निकलने की कोशिश करता है उतना ही उस खंडहर में फँसता जाता है ।
वह नारियल का पेड़ शारदा जी के जीवन में आए हर दुःख-सुख का साक्षी रहा है। कितने आँधी-तूफ़ान आए पर वह अपनी स्थान पर अडिग रहकर शारदा जी के प्रेरणा का श्रोत बना रहा। जितना हो सका दिया ही, फल हो या छाया या फिर पंछियों को आसरा। अपनी जगह पर स्थिर, अडिग, सेवा और समर्पण से पूर्ण। छोटा-सा पेड़ बड़ा होकर कब फल देने लगा पता ही नहीं चला। अभी भी उन्हें याद है अपने पुत्र के आँखों की ख़ुशी जब पेड़ ने पहला फल दिया था। किस तरह वह घर भर में नारियल लेकर उछलता रहा। लगता है जैसे कल की ही बात है।
“माँ कैच!”…“क्या माँ आपसे बॉल भी नहीं पकड़ा जाता ।”
कभी फ़ुट्बॉल तो कभी बास्केटबॉल के रूप में प्रयोग कर जब थक जाता तब नौकर की ओर नारियल को उछालता – “भइया पकड़िए, वाह! ग्रेट कैच! देखा माँ! ऐसे पकड़ते हैं कैच!”
नौकर नारियल को काटकर स्ट्रॉ के साथ उसे वापस कर देता। नारियल में स्ट्रॉ डालते हुए महसूस होता जैसे उसकी प्यास बुझाने गंगा स्वयं नारियल में उतर आई हो। घौंदा-के-घौंदा फल निकलता था। पहले पानी फिर अंदर की मीठी मलाई और अंत में नारियल ।
शारदा जी ने अनगिनत पकवान बनाए इसके। खीर, लड्डू, बर्फी, कोफ्ता, चटनी न जाने क्या क्या। छोटा-सा परिवार कितना खाये। ऊपर से पतिदेव डायबीटीज़ के मरीज़। पड़ोसी एवं रिश्तेदारों को भी इन पकवानों के स्वाद चखाने से पीछे नहीं रहीं। याद है उन्हें जब पतिदेव स्वर्ग सिधारे थे। बारह दिन के क्रिया-कर्म में लोगों का ताँता लगा रहा। सारे रिश्तेदारों ने छक कर नारियल का पानी पिया और मलाई खाई। उस दुःख की घड़ी में भी नारियल अपने सेवा भाव से सबको संतुष्ट किया था। साथ ही शारदा जी को स्थिर और अविचल रहना सिखाया था। सहसा पुत्र की आवाज़ उनके कानों से टकराई।
“कौन है माँ?” पुत्र पीछे खड़ा था ।
“साब आप बुलाए न हमारे को, पेड़ काटने को ।” शारदा जी कुछ कहतीं उससे पहले उन मज़दूरों में से बड़ी बड़ी मूँछों वाला आदमी बोल पड़ा।
“हाँ, लेकिन अभी क्यों आ गये तुमलोग, दोपहर को बुलाया था न ।”
“सॉरी साब, थोड़ा जल्दी आ गया । दोपहर को कहीं और जाना है, तो सोचा..।” उनकी बातों से साफ़ पता चल रहा था कि वे इस कार्य को अपनी हाथों से नहीं जाने देना चाह रहे थे और साथ ही दोपहर वाला असाइनमेंट भी नहीं छोड़ना चाह रहे थे ।
“ठीक है ठीक है, अब आ ही गये हो तो कर लो ।” पुत्र उन मज़दूरों को निर्देश देने लगा और वे फलों से लदा नारियल के पेड़ को ऊपर से नीचे तक जायज़ा लेने लगा ।
शारदा जी को आज पढ़ने या लिखने से मन उचट गया । गले के अंदर कुछ घुटता सा महसूस होने लगा । उन्हें पता था कि वह हिचकी के पहले की घुटन थी । गला अवरुद्ध हो जाय या दबी हुई हिचकी बाहर निकले उससे पहले उन्होंने नौकर को आवाज़ दीं ।
“रघु मेरी कुर्सी अंदर रख दे ।”
कुर्सी से उठ वह सीधे अपने कमरे की ओर उन्मुख हुईं। आँगन से कमरे तक का रास्ता तय करना इतना कठिन भी हो सकता है उन्होंने कभी सोचा नहीं था। आज पहली बार वह अपने आप को नितांत अकेली पा रही थीं। अपराधबोध के समंदर में डूबती चली जा रही थीं। ऐसा लग रहा था कि कसाईयों की पंक्ति में वह सबसे आगे खड़ी हैं। बिछावन पर लेटकर बाँहों के पीछे अपनी आँखों को छुपाने की कोशिश करने लगीं। नहीं चाहती थीं कि पश्चाताप के चंद आँसू उनके अपराधबोध को कम कर दे । तसल्ली नहीं हुई तो ऊपर से एक तकिया भी डाल लिया ।
“मॉं ..! कहाँ… गईं आप.. एक मिनट बाहर आइए न.. यह नारियल का पेड़…..।”
कानों में पुत्र की आवाज़ गूंज रही थी और तकिया की कोर गीली होती जा रही थी ।
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