
डॉ अर्पणा दीप्ति, हैदराबाद
मानवीय शरीर की क्षीण काया भी परिवार की मजबूत नींव के रूप में स्थान रखती है। जिस प्रकार एक पुरानी एवं मजबूत नींव मकान की विशालता का सबूत देती है। ठीक उसी तरह परिवार के वृद्धजन उस परिवार की संगठन शक्ति का उदाहरण होते है। जिन परिवारों में वृद्धों का आशीर्वाद बना रहता है, उन परिवारों की संपन्नता और सुख-शांति अनुशासन की कहानी कहती दिखाई पड़ती है।
परिवार के बुजुर्गों को बोझ मानने वाले अपने जीवन का रसास्वादन सही रूप में नहीं कर पाते है। बुजुर्गों का अनुभव और उनकी संघर्ष यात्रा ही वह ताकत है, जिसके बल पर एक परिवार बुलंदी पर पहुँच सकता है। फिर वह परिवार रतन टाटा का हो या बिड़ला का। परिवार का मुखिया ही वह मार्ग दिखाता रहता है, जहां ऐश्वर्य के साथ आनंद की प्राप्ति होती रही है।
वृद्धावस्था के प्रति उपेक्षा, अवमानना एवं घृणा का भाव पाश्विक सभ्यता का ही परिचायक हो सकता है। यह बात हमेशा ध्यान में रखनी होगी कि परिवार के वृद्धजन परिवार के “अतिरिक्त सदस्य” की श्रेणी में नहीं आते है। बल्कि वे अनुभव की भट्ठी में तपकर सही मार्ग दिखाते हैं। वे व्यापक व्यवहारिक प्रशिक्षण के बल पर परिवार के सबसे ज्यादा हितकर सदस्य होते है।
किसी भी परिवार में वृद्धों की अवहेलना या उनकी अनदेखी करना इस बात का प्रतीक है, उनकी संतानों ने शालीनता और मर्यादा का पाठ सही ढँग से नहीं पढ़ा है। बीमार वृद्ध माता-पिता अथवा किसी भी रिश्तेदारी से संबंध रखने वाले सदस्य की सेवा का अवसर उन्हें ही मिल पाता है, जो वास्तव में इसके हकदार होते है। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि परिवारों में वृद्धों की छाया होना पुत्र-पुत्रियों के लिए बड़ा ही सौभाग्य सूचक होता है। इस दर्द को वे ही समझ सकते हैं, जिनके माता-पिता का साया समय से पहले ही उठ गया हो।
जिन माता पिता ने जन्म से लेकर आत्म निर्भर होने तक, या यूँ कहें कि प्रौढ़ता प्राप्त करने तक बच्चों का पालन-पोषण किया, प्रशिक्षण एवं शिक्षा की व्यवस्था की, उन्हें सुरक्षा कवच प्रदान किया, मार्गदर्शन दिया, कदम-कदम पर सहायक के रूप में खड़े होकर संबल प्रदान किया, उनके प्रति बच्चों के मन में कृतज्ञता का पैदा न होना यही सिद्ध करता है कि वे मनुष्यता के महान गुण से वंचित रह गये है। ऐसे लोगों को अपने बच्चों से भी सेवा-सुश्रूषा की उम्मीद नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यह संसार का नियम है कि आप जैसा बीजारोपण करेंगे वृक्ष वैसा ही फल प्रदान करेगा।
हमारी भारतीय संस्कृति और परंपरा में हमें ऐसी जवाबदारी का अहसास भी कराया गया है, जो पितृ ऋण से संबंध रखती है। ऐसा माना जाता है कि वृद्धावस्था में माता-पिता की सेवा सुश्रूषा करने वाला पुत्र अपने पितृ ऋण से मुक्त तो होता ही है। साथ ही अपने लिए वृद्धावस्था की स्थिति में फिक्स्ड डिपॉज़िट की तरह कुछ धन भी जमा कर लेता है। यही कारण है कि उसका पुत्र भी अपने पिता के व्यवहार से माता-पिता के प्रति संवेदना का भाव सहज ही सीख लेता है।
आज दूषित और बदली हुई परिस्थितियों में लोग असभ्यता के उफान जैसे चक्रवात में फँसकर घर के अतिविशिष्ट सम्माननीय वृद्धों को अपनी रंगीन जीवनचर्या के बीच भार मानने लगे है। उनके लिए भरण-पोषण की व्यवस्था को बड़ा उपकार समझ रहे है, उनके सुख-दुख को, भावनात्मक उतार-चढ़ाव को समझने की जरूरत महसूस नहीं कर रहे है, वे यह मान ले कि उनके द्वारा सामाजिक जवाबदारी एवं पारिवारिक उत्तरदायित्व का जो दरवाजा बंद किया जा रहा है। आने वाले समय में उन्हें इसी दरवाजे के बाहर गिड़गिड़ाना होगा। तब उन्हीं का नन्हा पुत्र जो अब जवाबदारी का पुतला है, उन्हें जो झिड़की लगाएगा उसे वे सह नहीं पाएंगें।
यदि आने वाले उक्त समय की स्याह रात और न कटने वाली दुपहरी का दर्शन करना हो तो हमें अपनी नजरें पश्चिमी देशों में वृद्धों की जीवन की ओर घुमानी होगी। आज उन्हीं देशों में पुत्र-पुत्रियों का भरा-पूरा परिवार रहते हुए भी वृद्धजन एकाकीपन का दंश भोग रहे हैं, जिसमें उनका जीवन बड़ी हताशा में कट रहा है।
पश्चिमी सभ्यता में तो अब यह नियम ही बना दिया गया कि सेवानिवृत्ति के बाद सरकार उन्हें संभाले। ऐसे वृद्धों की बस्तियों में सरकार द्वारा मनोरंजन के साधन भी उपलब्ध कराये जाते हैं। इन सुविधाओं के बीच उन्हें यह दर्द सालता रहता है कि जिन बच्चों के लिए अपना जीवन खपाया आज वे ही उनसे किनारा कर रहे हैं। हमारी संस्कृति ऐसे विचारों से संबंधित नहीं है। हमारी सभ्यता में यह स्पष्ट है कि परिवार की परिभाषा में माता-पिता का समावेश सर्वप्रथम माना जाता है। तब हम क्यों अपनी सभ्यता को लाँघते हुए पश्चिमी दूषित हवा के वशीभूत होकर अपने वरिष्ठों की सेवा से भागें।
परिवारों को स्नेह डोर से बाँध कर रखना ही भारतीय संस्कृति की पहचान है, न कि टूट कर बिखर जाना। आज अपनी संकीर्ण विचारधारा के कारण जो लोग अपने वृद्ध माता -पिता की उपेक्षा कर रहे हैं, वे भी कल वृद्ध होंगे और उनके बच्चे भी उनके साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार ही करेंगे। कारण यह है कि जिस नींव के बल पर उनका पालन-पोषण हुआ है, वे भी ऐसी ही नींव तैयार करेंगे।
इसे हम वेद वाक्य की श्रेणी में रख सकते हैं, जिनके बूढ़े माता-पिता के साथ रिश्ते गहरे तथा स्नेहिल होते हैं, उनके वर्तमान तथा भविष्य दोनों ही उज्ज्वल होते हैं। सुनहरी किरणों के बीच स्याह स्थिति का निर्माण कभी नहीं होता है। बूढ़े माता-पिता को भगवान से भी अधिक ऊँचा स्थान देते हुए उनके चरणों का प्रातः एवं सायं स्पर्श हर प्रकार की दुखों की अचूक दवा मानी जाती है।
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