रोज की तरह आज भी मेरी नींद सुबह 6 बजे खुल गई। बेटे-बहू थोड़े देर से उठते हैं। उन लोगों को देर रात तक कंप्यूटर कर काम करना होता है न। आजकल का जीवन भी कितना मुश्किल हो गया है। पति-पत्नी दोनों नौकरी करते हैं। हमारी ड्यूटी तो शाम 4 बजे खत्म हो जाती थी। पाँच बजे तक घर आ जाता था। कभी-कभी रास्ते में किसी दोस्त से मिल भी लेता था। लेकिन मेरे तीनों ही बेटे रात को 9 बजे के बाद ही घर आ पाते हैं। घर पर भी चैन नहीं। ऑफिस से फोन आ जाता है तो पता नहीं कंप्यूटर कर क्या करने लगते हैं।
छोटे बच्चों का स्कूल भी अब आठ बजे से होता है। हमलोग आराम से 10 बजे जाते थे। मैं तो गाँव में पढ़ता था। खेलते-कूदते स्कूल पहुँच जाता था। माँ कलेवा दे दिया करती थी। मेरे बच्चे भी छोटे शहर में पढ़ते थे। सड़कों पर न तो इतनी भीड़भाड़ थी न ही ट्रैफिक का झमेला। लेकिन आजकल के बच्चों के स्कूल तो सुबह आठ बजे और किसी-किसी के तो 6 बजे से ही शुरू हो जाते हैं। माँ उन्हें सुबह उठा कर तैयार करती है और लंच पैक कर स्कूल बस तक छोडने जाती है।
अभी मैं मँझले बेटे के पास हूँ। दो साल पहले जब धर्मपत्नी का स्वर्गवास हुआ तब से ज़्यादातर समय बच्चों के पास ही रहता हूँ। बच्चे भी कहते हैं आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है अब, अकेले रहेंगे तो हम लोगों को चिंता लगी रहेगी। मंझला बेटा दीपक एक कंपनी में काम करता है। बहू भी किसी कंपनी में है। कहती है एचआर है। पता नहीं क्या होता है यह। लेकिन वहाँ भी तो काम करना होता होगा उसे। घर में भी सबकी देखभाल करती है।
हाँ, तो मेरी नींद 6 बजे खुल गई। जब पत्नी थी तो वह मुझ से भी पहले जग जाती थी। गर्म पानी और चाय बनाती थी। लेकिन बहू को तो और भी बहुत सारे काम होते हैं। इसलिए मैं खुद ही किचन में चला जाता हूँ। नित्यक्रिया से निवृत होकर गर्म पानी और चाय बना कर पिया। फिर टहलने के लिए निकल गया। जब मैं निकल रहा था तब तक बहू भी जग गई और पोते को जगा रही थी।
मुझे हाई ब्लड प्रेशर और शुगर की बीमारी है। घुटने में भी दर्द रहता है। बेटे-बहू टहलने के लिए दूर जाने से मना करते हैं। इसीलिए मैं अपार्टमेंट के आसपास ही टहलता हूँ। बीच-बीच में बेंच पर बैठ जाता हूँ। वहाँ बैठे-बैठे प्राणायाम और कुछ स्ट्रेचिंग करता हूँ। इस बीच अगर कोई जान-पहचान का मिल गया तो थोड़ी बातें भी हो जाती है।

आज जब बेंच पर बैठा था तब सेकंड फ्लोर वाले सिंह साहब मिले। वे बहुत दुखी लग रहे थे। उन्होने बताया कि उनके एक मित्र ने अपनी सारी संपत्ति और बैंक बैलेंस अपने पास रखा है। सोचा था अगर पैसे पास हो तो उसकी लालच में बच्चे उनकी सेवा करेंगे बुढ़ापे में। पिछले महिने गिरने से उनके कूल्हे में फ्रेक्चर आ गया। लेकिन किसी बच्चे के पास समय नहीं है कि उनकी देखभाल कर सके। अंत में उन्होने पैसे देकर एक आदमी रखा है लेकिन वह अपनी सुविधा से सबकुछ करता है। सिंह साहब की बात सुनकर तिवारी जी ने कहा ‘जिनको करना होता है सेवा वह तो वैसे भी करेंगे जो बच्चे पैसों की लालच में करेंगे वह तो उस नौकर से भी बुरा ही करेंगे।’ कुछ रुक कर उन्होने थोड़े अफसोस के साथ कहा ‘मैंने तो अपनी सारी संपत्ति बेच कर बच्चों को पहले ही दे दी कि वे मेरी अच्छे से देखभाल करेंगे। पर लगता है उन सबके लिए मैं एक बोझ बन गया हूँ।”
मैं कुछ नहीं बोला। मेरे पास तो कोई अधिक संपत्ति भी नहीं थी। सरकारी नौकरी थी। कम तनख़्वाह। इसी में परिवार का सारा खर्चा, माता-पिता, दादा-दादी की दवाइयाँ, बच्चों की पढ़ाई, बेटियों की शादी… सब कुछ तो करना था। पहले जब तनख़्वाह कैश में मिलता था घर आते ही जो बच्चा पहले दिख जाता था उसी के हाथ में सारे पैसे दे देता था। जब बच्चे बहुत छोटे थे तब पत्नी को देता था। पैसा एक जगह रखा रहता था जिसका सबको पता था। उसी में से खर्च चलता था। जब अकाउंट में आने लगा तब भी सबको पता था कि आमदनी क्या है और खर्चा क्या है? कुछ बचता ही नहीं था। लेकिन किसी को कम से कम यह शिकायत नहीं थी कि दूसरे भाई बहन को मैं छुपा कर देता था।
अब पेंशन आता है। मेरे खर्च के लिए काफी है। जिस बच्चे को थोड़ी कठिनाई देखता हूँ कोशिश करता हूँ जितनी हो सके उसकी सहायता कर सकूँ।
मैंने अपने जीवन के छह नियम बना रखे हैं और कोशिश करता हूँ ये नियम टूटने नहीं पाए। मेरे छह नियम हैं
(1) मैं किसी की शिकायत कभी किसी के सामने नहीं करूंगा;
(2) जहां भी रहूँगा, वहाँ के लिए अपनी कुछ उपयोगिता बनाए रखूँगा;
(3) युवा लोगों की समस्याओं को समझूँगा और उसे जानने का प्रयास करूंगा उनसे बात करके। पर अगर वे नहीं बताना नहीं चाहेंगे तो अपने को थोपूंगा नहीं उनपर;
(4) कुछ भी हो जाए सैर और व्यायाम करना नहीं छोडूंगा;
(5) कभी खाली नहीं बैठूँगा; और
(6) क्रोध करने से बचूँगा।
इस नियम का मैं आज भी पालन करता हूँ। मैं जब घर पहुंचा बहू बच्चों को स्कूल भेज कर थोड़ी रिलेक्स हुई थी। आते समय रास्ते से मैं दूध लेता आया था। दीपक भी उठ गया था। वह दोनों इस समय साथ बैठ कर चाय पीते हैं। मैंने भी हमेशा की तरह उन दोनों के साथ बैठ कर चाय पिया और थोड़ी बातें की। बहू जल्दी ही उठ गई खाना बनाने की तैयारी करने के लिए। मैं फ्रिज से फल निकाल कर काटने लगा। हालांकि मैं थोड़ा धीरे काटना हूँ। पर फिर भी पूरा काट लिया। प्लेट में बेटे और बहू को भी दे दिया और खुद भी ले लिया।
बहू ने पूछा ‘पापा आज नाश्ते में आप ब्रेड खा लेंगे क्या?’
‘हाँ, क्यों नहीं, ब्रेड ही दे देना।’ मैंने जवाब दिया ब्रेड मुझे पसंद नहीं है। लेकिन बहू की व्यस्तता देखते हुए मैंने हाँ कर दिया।
मैं टीवी पर न्यूज़, भजन और प्रवचन सुनना पसंद करता हूँ जो कि बच्चों को पसंद नहीं है। फिर मैं टीवी थोड़ी तेज आवाज में सुनता हूँ क्योंकि अब सुनने की शक्ति थोड़ी कम हो गई है। इससे दूसरे लोगों को डिस्टर्ब होता है। इसलिए अब मैंने ये सब मोबाइल में ही सुनना सीख लिया है। मैं लड्डू गोपाल जी की पूजा करता हूँ। लेकिन बहू को जल्दी होती है इसलिए उनके लिए अलग से भोग नहीं बना पाती है। जिस दिन उनके भोग के योग्य कुछ भोजन बनता है उन्हें भोग लगा देता हूँ नहीं तो फल का ही भोग लगता है। मैं मांस-मछली नहीं खाता लेकिन बच्चे खाते हैं। अभी तो ही उनका समय है। मैं उनसे अपने जैसे भजन और सादा भोजन खाने की उम्मीद कैसे करूँ! मुझे जो भी शाकाहारी भोजन मिलता है प्रभु को समर्पित कर खा लेता हूँ।
स्नान, पूजा और नाश्ता के बाद मैंने कुछ देर न्यूज और प्रवचन सुना। फिर कुछ देर सो गया। अब तक बेटे बहू ऑफिस जा चुके थे। थोड़ा आराम करने के बाद मैंने कुछ देर एक किताब पढ़ा फिर कुछ लिखने लगा। 3 बज गए। पोती का स्कूल से आने का समय हो गया। मैं बस स्टैंड पर जाकर उसे घर ले आया। उसके कपड़े बदलवा कर खाना खिलाया। खुद भी खाया। हम दोनों दादा पोती ने खूब बातें की। उसने मुझे अपने स्कूल का सारा हाल सुनाया। वह कुछ देर सो गई। जब उठी तो खेलने लगी। अब तक पोता भी आ गया स्कूल से। उसने भी अपने सारा दिन का हाल मुझे सुनाया।
मैंने अपने एक दूर के भाई से और एक पुराने सहकर्मी से फोन पर बातें की। शाम को छत पर जाकर अपनी बागवानी को भी देख आया। छत पर ही एक पड़ोसी मिल गए। यूं ही बातें होने लगी। उन्होने कहा ‘आजकल बच्चे माँ-बाप को चौकीदार और नौकर समझ कर रखते हैं। आप कितना काम करते हैं अपने बेटे बहू के लिए। आप नहीं रहते हो उनके बच्चों का क्या होता उनके आने से पहले।’
मुझे उनकी ये बात अच्छी नहीं लगी। ‘कैसी बाते करते हैं आप। ये बच्चे, ये घर, भी तो मेरा ही है न। बेटे-बहू को भी तो यह एहसास होना चाहिए उनका कोई अपना है। नहीं तो मेरे रहने का ही क्या फायदा। इससे मेरा भी तो मन लगा रहता है। तन और मन एक्टिव रहता है।’ वह सज्जन यह कहते हुए चले गए ‘आप बड़े भोले हैं।’
आज बहू का जन्मदिन है। मैं बड़ा हूँ घर में सबसे। मुझे भी तो उसे कुछ देना चाहिए आशीर्वाद स्वरूप। मैं शाम को जब सैर करने गया तब कुछ आगे जाकर बाजार से एक साधारण सी साड़ी और मिठाई ले आया।
शाम को बच्चे होमवर्क करने बैठ गए। मैं भी अपना कागज कलम लेकर लिखने लगा। मुझे पढ़ते लिखते देख कर बच्चे भी पढ़ने लगते हैं।
बेटे बहू आए। सबने हल्का नाश्ता किया और चाय पिया। बहू खाना बनाने के लिए उठी। मैंने कहा ‘आज तुम्हारा जन्मदिन है। आज तुम नहीं बल्कि मैं खाना बनाऊँगा और दीपक मेरी मदद करेगा। तुम आराम करो।’
‘अरे… पापा … आपको मेरा जन्मदिन याद था।’ आश्चर्य से बोली।
‘जिसने मेरे बेटे के जीवन को पूरा किया है। इस वंश को बढ़ाया है। मेरे परिवार को पाल रही है। उसका जन्मदिन कैसे भूल सकता हूँ। तुम से ही तो घर में खुशी और रौनक है।’ मैंने अपना उपहार देते हुए कहा ‘ये छोटी सी भेंट मेरे आशीर्वाद के रूप में रख लो।’ बहू ने पैर छूए। मैंने सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया।
दीपक खड़ा मुस्कुरा रहा था।
मैं किचन की तरफ बढ़ते हुए बोला ‘दीपक चलो किचन में मेरी मदद करो और बहू तुम मेनू डिसाइड करो क्या खाना है तुम्हें आज’
‘अरे पापा आज बड़े भैया भी परिवार के साथ आ रहे हैं। इतने लोगों का खाना आप से नहीं बन पाएगा।’ बहू बोली।
‘आशीष भी आ रहा है?’ मेरा बड़ा बेटा इसी शहर में रहता है। वह साधारणतः देर रात को काम से लौटता है। इसलिए मुझे लगा था वह नहीं आ पाएगा।
‘आ रहा है नहीं आ गया’, कहते हुए आशीष और उसकी पत्नी-बच्चे भी आ गए।
मिलने-मिलाने के बाद फिर से खाने की बात शुरू हुई। मैंने छोटी बहू से कहा ‘आज तुम्हारा जन्मदिन है आज तुम खाना नहीं बनाओगी। आज खाना मैं बनाऊँगा।’
‘आप से नहीं बन पाएगा पापा।’ बहू ने कहा।
‘कैसे नहीं बनेगा! मैं और दीपक भी इनकी मदद करेंगे।’ आशीष बोला।
दोनों बहू को बैठक में बैठा कर मैं, दीपक और आशीष- तीनों खाना बनाने गए। खाना बनाने का मेनू डिसाइड होने और सबके काम का बंटवारा के बाद काम शुरू हुआ। सब्जी धोने के लिए मैंने पानी निकाला। पर वह मेरे हाथ से छूट कर गिर गया। पानी पूरे फर्श पर बिखर गया। मैं स्तब्ध सा खड़ा रह गया।
दीपक बोला ‘मैं साफ कर देता हूँ।’ उसने हँसते हुए कहा ‘अच्छा ही हुआ पोछा लग गया किचन में खाना बनाने से पहले।’
लेकिन मुझे अच्छा नहीं लगा, मैंने धीरे से कहा ‘सॉरी, हाथ से गिर गया।’
‘कोई बात नहीं पापा। याद है दादा जी जब बूढ़े हो गए थे तो उनसे भी कई बार पानी या खाना गिर जाता था। आप कभी गुस्सा नहीं करते और कहते थे कि बुढ़ापे में मांसपेशियाँ कमजोर होने से ऐसा हो जाता है। आज आप भी तो उसी स्टेज में हैं अब। फिर हम लोग भी तो बच्चे में कितना गिराते होंगे और गंदा करते होंगे।’ आशीष ने मुस्कुराते हुए कहा।
जाने क्यों मन में एक तसल्ली सी हुई हो सकता है मैंने बहुत ज्यादा संपत्ति बच्चों को नहीं दिया हो लेकिन अच्छी यादों, पारिवारिक मूल्यों, संतोष और संस्कार के जो बीज बोए हैं उसकी छांव में शायद मेरा बुढ़ापा आसानी से कट जाएगा।’
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