हिन्दी दिवस की सार्थकता

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एक और हिन्दी दिवस आया और चला गया। लोगों ने हिन्दी की विशेषताओं का गुणगान किया, इसके बढ़ते कद की की बातें की। यह सच है कि हिन्दी बोलने वालों की संख्या राष्ट्र और विश्व के स्तर पर बढ़ी है। लेकिन यह भी सच है कि इसकी यह उपलब्धि हिन्दी भाषी लोगों के प्रयासों का फल उतना नहीं है जितना बाजार और बॉलिवुड फिल्मों का है। यह अवसर उपलब्धियों पर गर्व करने के साथ-साथ चुनौतियों पर विचार करने का भी है।

संप्रति हिन्दी के समक्ष तीन बड़ी चुनौतियाँ हैं:

1. भाषा और लिपि का संबंध

कोई भी भाषा अपने को सबसे अच्छे से अपनी लिपि में ही अभिव्यक्ति कर सकती है। व्हाट्सएप और फेसबुक के इस दौर में लोग बड़ी संख्या में हिन्दी रोमन लिपि में लिखने लगें हैं। 10 से 30 वर्ष आयु के ऐसे लोगों के बीच हमने एक सर्वे किया जो 12वीं तक पढ़े थे। वे हिन्दी के अतिरिक्त कोई अन्य भाषा नहीं बोल सकते थे। पर जब उनसे हिन्दी लिखने के लिए कहा गया तो उनमें से अधिकांश रोमन लिपि में हिन्दी लिखना अधिक सुविधाजनक मानते थे। सोशल मीडिया में मेसेज करने के अलावा वे कभी हिन्दी नहीं लिखते। उनके लिखने की आदत छूट गई थी। कितने लोग अब हिन्दी व्याकरण पढ़ते हैं?

2. हिन्दी के मानकीकरण का प्रश्न

यह समाचार कई बार आता है कि हिन्दी के इतने शब्दों को ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में या एनसायक्लोपीडिया में शामिल किया गया है। लेकिन अँग्रेजी के कितने शब्द मानक रूप से हिन्दी में अपनाए गए ऐसा कोई समाचार अगर आता भी हो तो अधिक तवज्जो नहीं दी जाती है। मशीन के प्रयोग के कारण स्वाभाविक रूप से कुछ तकनीकी सीमाएं आई हैं। अन्य भाषा के भी कई शब्द हमने लिया है। यह किसी भी भाषा के जीवंत होने की निशानी है। लेकिन एक मानक रूप भी तो होना चाहिए जो ‘भाषा’ को ‘बोली’ से अलग बनाता है। बहुत सारे दुविधा हिन्दी बोलने और लिखने वालों के समक्ष होती हैं लेकिन इन का कोई मानक उत्तर उपलब्ध नहीं होता। हिन्दी के संबन्धित कई संस्थाएं हैं जो यह कार्य करतीं हैं। कुछ ऐसे मानकों के बारे में हमने बचपन में पढ़ा भी था किन्तु इस पर कोई बहुत प्रामाणिक और सुलभ जानकारी नहीं मिलती। उदाहरण के लिए; हिन्दी वाक्यों में कहाँ ‘अंक’ लिखने हेतु शब्दों का प्रयोग हो और कहाँ अंकों का, कहाँ ‘गए’ का प्रयोग उचित है और कहाँ ‘गये’ का, कहाँ चन्द्र बिन्दु का प्रयोग हो कहाँ केवल बिन्दु का, कहाँ ‘आरंभ’ का प्रयोग हो कहाँ ‘प्रारम्भ’ का, कहाँ ‘इत्यादि’ आए और कहाँ ‘आदि’; इत्यादि अनेक ऐसे प्रश्न होते हैं जिन में दुविधा कई हिन्दी जानने वालों को होती है। हिन्दी में प्रयुक्त वाक्यांशों (phrase) का कोई मानक संग्रह नहीं है, जिसका समय के साथ विस्तार किया जाय। हिन्दी भाषा और व्याकरण से संबन्धित अद्यतन जानकारी सामान्य जनता को बहुत कम होती है।

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3. भाषा के आधार पर विभाजन      

उत्तर दक्षिण भारत में अंतर्द्वाद्व का एक प्रकटीकरण भाषा भी है। दक्षिण भारतीय का कहना है उत्तर भारत में भी दक्षिण की भाषा पाठ्यक्रम में शामिल हो, वहाँ के लोग भी दक्षिण भारत की भाषा जाने तो वे हिन्दी का समर्थन करेंगे। जबकि उत्तर भारतीयों का कहना है कि दक्षिण में भी कोई एक भाषा नहीं बोली जाती है। प्रत्येक राज्य की अपनी अलग भाषा है। विद्यार्थी अपनी मातृ भाषा अर्थात अपने घर में बोली जाने वाली भाषा, राजभाषा अर्थात सरकारी कामकाज की भाषा और अंतराष्ट्रीय भाषा जो कि नौकरी में सहायक है अर्थात अँग्रेजी के साथ एक चौथी भाषा भी सीखे, और वो भी ऐसी भाषा जिसका प्रयोग वे केवल एक राज्य में कर सकते हैं, यह व्यावहारिक रूप से कारगर नहीं होगा। उत्तर और दक्षिण की यह प्रतिद्वंदीता आजादी से पहले से ही है। इस प्रतिद्वंदीता के राजनीतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक कारण हैं। पर अंतर्विरोध और प्रतिद्वंदीता का एक प्रमुख रणक्षेत्र भाषा भी है। इसी कारण से हिन्दी को संविधान में राजभाषा घोषित नहीं किया जा सका।

दोनों पक्षों के तर्क अपनी-अपनी जगह भले ही सही हो, लेकिन इसका समाधान विरोध नहीं बल्कि पारस्परिक मेलजोल से ही होगा। जैसे उर्दू छावनी की भाषा कही जाती है, मेरे विचार में वैसे ही हिंदी मंदिर, मठों और आश्रमों की भाषा है। इसका विकास संतों और उनके अनुयायियों ने किया है। इन्होंने कभी भी स्थान, भाषा या वर्ण के आधार पर भेदभाव नहीं किया। आज भी रामानुजाचार्य और वल्लभाचार्य के अनुयायी बहुत बड़ी संख्या में उत्तर भारत में रहते हैं। पूर्वोत्तर भारत के लोग भी हिंदी नहीं समझते हैं लेकिन उनमें हिंदी के प्रति कोई सामान्य घृणा नहीं है। पर कभी-कभार हिन्दी भाषियों के प्रति विद्वेष से संबन्धित खबरे देश के अन्य भागों से भी आती रहती हैं।

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दक्षिण भारत में साहित्य और कला की समृद्ध विरासत है। उसका आदर हम सब करते हैं। मैं उत्तर भारत से हूं लेकिन मेरा पूरा परिवार रामानुजाचार्य का अनुयायी है। हमलोग श्री रंगम जाते हैं। वहां के पुजारी और कर्मचारी स्थानीय भाषा में पढ़े होते हैं। संस्कृत वे मंत्र के अलावा नही बोलते। इस मिथ को, कि अंग्रेजी संपर्क भाषा है, तोड़ते हुए वे अंग्रेजी भी नहीं बोलते। तेलगु, तमिल या अन्य कोई दक्षिण भारतीय भाषा हमें नहीं आती। कोई माध्यम नहीं, कोई पुल नहीं, कोई दुभाषिया नहीं, जिससे हम उनकी भाषा सीख सकें। फिर हम वृंदावन वालों के आश्रम में जाते हैं क्योंकि वहां हमें अपनापन लगता है।

क्या हम उत्तर भारतीय रामेश्वरम, कांचीपुरम नहीं जाते? क्या दक्षिण भारतीय काशी-मथुरा नहीं आते? क्या हम तिरुपति जाकर वेंकट रमना गोविंदा नहीं बोलते? वैष्णो देवी जाकर ‘जै माता दी नहीं बोलते? बंगाल जाकर ‘दुर्गा माइ को’ नहीं बोलते? क्या हमने विदेशी भाषा नहीं सीखा है? तो हम अपनी संस्कृति की, अपनी देश की भाषा क्यों नहीं सीखेंगे? लेकिन सिखाने के लिए अहम छोड़ कर कोई पुल तो बने। 

एक ऐसी भाषा जिसकी लिपि, शब्द, वाक्य विन्यास, सब कुछ हमसे बिलकुल अलग है, सीधे हम कैसे सीख लेंगे पाठ्यक्रम में शामिल कर। अंग्रेजी बोलने से पहले हम थैंक यू, वेलकम बोलना सीखते हैं, संस्कृत बोलने से पहले हम रामः रामौ, रामम, बोलना सीखते हैं। तो कोई भी दक्षिण भारतीय बोलने में हम तभी सहज होंगे जब दोनों प्रदेशों के लोगों और भाषाओं का दोनों प्रदेशों में स्वागत हो। पहले कुछ शब्दों का आदान-प्रदान हो, भावनाओं का आदान-प्रदान हो, कुछ लोग दुभाषिया और अनुवादक बने।

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भाषा तो बर्तन होता है, जिसमें ज्ञान और भावना रूपी पानी भरा रहता है। जब तक हम अपने-अपने बर्तन लेकर बैठे विरोध करते रहेंगे, कुछ नहीं होगा। दोनों बर्तनों के बीच आवागमन के लिए रास्ता बनाना होगा। अपने अपने दरवाजे खोल कर एक दूसरे के स्वागत के लिए आगे आना होगा। चीन और अमेरिका में भले ही कितने ही लोग हिन्दी बोल लें लेकिन जब तक देश के अंदर ही कुछ लोग भाषा को लेकर बंटे रहेंगे तब तक हिन्दी की तमाम उपलब्धियां अधूरी रहेगी। 

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