दसवीं की परीक्षा हो गए। अब आद्या के सामने तीन माह की लंबी छुट्टियाँ हैं। दो-चार दिन तो बेफिक्री भरे आनंद से गुजरे। कभी आद्या वीसीआर में फिल्म लगा देती कभी चित्र कथाएँ पढ़ने लगती और कभी टेप रिकॉर्डर में अपनी पसंद के गाने सुनने लगती। पर अब वह इन सब से भी ऊबने लगी थी और सारा दिन पलंग पर लेटी-लेटी उबासियाँ लेती।

“उसे यूँ उबते” देख उसके पापा बोले, “तुम्हारा नया सत्र तो जुलाई में प्रारंभ होगा, छुट्टियाँ पलंग पर पड़े-पड़े गँवाने से तो अच्छा है कोई ऐसा काम करो जिससे तुम्हारा समय भी कट जाए और तुम्हें आत्मसंतोष भी मिले! “ऐसा भला कौन-सा काम होगा?” आद्या ने कहा “एक काम तो मैं ही बता देता हूँ, तुम अपनी मेहरी की बेटी अल्का को ही अक्षर ज्ञान करवा दो। तुम्हारे सहयोग से वह कम-से-कम चिट्ठी लिखने-पढ़ने के काबिल तो हो जाएगी। तुम्हारा समय भी कट जाएगा। और उसकी जिंदगी बन जाएगी।”
ओह! पापा आद्या ने मुँह बिचकाया “कैसा काम बताया आपने भी? मेरे बस का नहीं किसी निपट निरक्षर को अ आ इ ई रटाना। वैसे भी अक्षर ज्ञान से कौन से अफसरी मिल जाएगी उसे? तब भी अपनी माँ के साथ बर्तन ही माँजा करेगी।”
“पढ़ाई सिर्फ नौकरी के लिए ही नहीं होती,” पापा ने समझाया “शिक्षा जागरूकता लाती है, आत्मविश्वास लाती है टीवी में रोज साक्षरता अभियान के विज्ञापन देखती हो तुम।”
“आपकी सलाह मुझे पसंद नहीं आई पापा, मुझे छुट्टियाँ बितानी है, गंवानी नहीं है।”
बाप बेटी की बहसबाजी देख आद्या की माँ ने बीच का रास्ता निकाला “ठीक है आद्या तुम अपनी पसंद का ही कोई काम लो। जहाँ तक मेरा विचार है तुम्हें चित्रकला की कक्षा में प्रवेश ले लेना चाहिए।”
“हाँ यही ठीक रहेगा।” आद्या प्रसन्न हो गई और उसी दिन जाकर उसने चित्रकला मंदिर में प्रवेश ले लिया। वह प्रतिदिन शाम को दो घंटे चित्रकला का अभ्यास करती थी। अध्यापक श्याम सुंदर जी एक कुशल तथा हँसमुख व्यक्ति थे। वे छात्राओं को बड़ी लगन के साथ अभ्यास कराते थे। उन के मार्गदर्शन में आद्या की छिपी हुई प्रतिभा उभरने लगी। उसे मनोयोग से चित्रकारी करते देख कर कह देते “तुम तो जन्मजात कलाकार हो आद्या। कितने कम दिनों में तुम इतना कुछ सीख गई हो कि इतना और कोई नहीं सीख पाया। रेखांकन करने और रंग भरने दोनों में सिद्धहस्त हो तुम!”
अध्यापक जी की प्रशंसा से आद्या का आत्मविश्वास और बढ़ गया । वह नियमित रुप से चित्रकला मंदिर जाती रहती थी। इस दौरान उसने कई चित्र बना लिए थे। कुछ चित्रों को तो उसके पिता ने फ्रेम भी करवा लिया था।
एक दिन श्याम सुंदर जी आद्या से बोले “10 मई को चित्रकला मंदिर में चित्रकला प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है। इसमें प्रथम दो प्रतियोगियों को एक वर्ष के लिए पाँच सौ रुपए प्रतिमाह की छात्रवृत्ति मिलेगी। मुझे पूरा विश्वास है कि तुम ही प्रथम स्थान प्राप्त करोगी।” आद्या उसी दिन से प्रतियोगिता की तैयारियों में जुट गई।
प्रतियोगिता में दस दिन बाकी थे। 10 मई को शाम 5 बजे से 7 बजे का समय निश्चित था प्रतियोगिता के लिए। आद्या की एक सहेली विभा दीदी ने चित्रकला में एम. ए. किया था। आद्या ने सोचा कि प्रतियोगिता वाले दिन वह उससे भी मार्गदर्शन ले लेगी।
अत: 10 मई के दिन वह विभा दीदी के घर चली गई। आद्या की माँ भी खरीददारी करने बाजार चली गई। महरी की बेटी अल्का घर में अकेली थी। दरवाजा खटखटाने की आवाज आई तो अलका ने दरवाजा खोला। एक लड़की वहाँ खड़ी थी। अल्का के हाथ में पत्र थमा कर बोली, “इसे आद्या को दे देना।” अल्का ने पत्र लाकर मेज पर रख दिया।
तभी टेलीफोन की घंटी बजी तो अल्का ने फोन उठाया। फोन आद्या का था। वह अल्का से फोन पर बोली, “अल्का माँ को कह देना मुझे घर लौटने में देर हो जाएगी। बारह बजे तक वापस आऊँगी।” “कह दूँगी दीदी।” “हाँ थोड़ी देर पहले एक लड़की एक चिट्ठी दे गई है आपके लिए।”
“मेरे लिए … चिट्ठी?” आद्या का उलझन भरा स्वर सुनाई दिय। “ऐसा करो तुम ही पढ़कर सुना दो।” “पर हाँ … तुम्हें तो पढ़ना आता नहीं… अच्छा एक काम करो, माँ को फोन पर चिठ्ठी पढ़ने कहो।”
“बीबी जी तो बाजार गई हैं।”
“चलो फिर मैं घर आकर ही पढ़ लूँगी। घंटे भर में आ जाऊँगी।” आद्या ने फोन रख दिया।
लगभग बारह बजे आद्या घर लौटी और अल्का से वह चिट्ठी माँगी। अल्का चिट्ठी लाकर आद्या को दे दी। चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते उसके चेहरे का रंग बदलने लगा। यह देख अल्का घबरा गई और “बोली क्या लिखा है” दीदी चिठ्ठी में!
“मेहनत पर पानी फिर गया चित्रकला प्रतियोगिता शाम के बजाय अभी 11 बजे से 1 बजे तक थी। यही संदेश भिजवाया था चित्रकला मंदिर के गुरु जी ने!”
आद्या ने घड़ी देखी साढ़े बारह बज रहे थे । उसने तुरंत साइकिल निकाली और चित्रकला मंदिर की ओर बढ़ गई। जब वहाँ पहुँची तो लड़कियाँ अपने-अपने चित्र जमा कर रही थी।

आद्या को देखकर श्याम सुंदर जी बोले, “तुम क्यों नहीं आई आद्या? तुम्हारे घर संदेश भिजवाया था। किन्ही कारणों से प्रतियोगिता का समय शाम से बदलकर सुबह करना पड़ गया था।” “मैं घर पर नहीं थी सर” “इसीलिए समय पर नहीं पहुँच सकी।” “तुमने बहुत अच्छा मौका गँवा दिया आद्या।” अध्यापक अफसोस भरे स्वर में बोले।
“यहाँ जितनी भी लड़कियाँ चित्र बना रही थी उनमें से तुम्हारा हाथ सबसे अच्छा था। तुम भाग लेती तो अवश्य प्रथम आती।”
आद्या को बहुत अफसोस आ रहा था “काश! यदि अल्का पढ़ी-लिखी होती तो गुरु जी का संदेश सही समय में मुझे मिला होता।”
आद्या का मन बड़ा उदास था। कितनी तैयारियाँ की थी उसने इस प्रतियोगिता के लिए। काश! उसे समय पर गुरु जी का भेजा संदेश मिल जाता। अगर अल्का पढ़ी-लिखी होती तो फोन पर ही पत्र पढ़कर सुना देती। उस समय 10:00 बज रहे थे। वह आराम से चित्रकला मंदिर पहुँच सकती थी। पापा का कहा मानकर उसने अल्का को थोड़ा-बहुत पढ़ा दिया होता तो आज उसे यह संदेश वक्त पर मिल जाता।
सचमुच पढ़ाई का कितना महत्व है। अल्का के अनपढ़ रहने से जब उसे इतना नुकसान हुआ तो स्वयं अल्का कितनी तकलीफ उठाएगी! कोई भी उसे धोखा दे सकता है, बुद्धू बना सकता है। पापा ठीक ही कहते थे, पढ़ाई सिर्फ नौकरी के लिए ही नहीं की जाती। जिंदगी को ठीक ढंग से चलाने के लिए भी पढ़ाई महत्त्वपूर्ण है।
आद्या ने फैसला कर लिया कि आज से ही अल्का को पढ़ाना शुरु कर देगी। उसे इस योग्य बनाएगी कि वह पढ़-लिख सके। अपने इस फैसले के बाद आद्या का मन हल्का हो गया। उसे लगा कि उसे एक सही दिशा मिल गई।
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