जिस तरह से हमारे शरीर की सबसे छोटी इकाई कोशिका है, हजारों कोशिकाओं से मिलकर उत्तक का निर्माण होता है और उसके बाद हमारे शरीर का ढांचा तैयार होता है, उसी तरह परिवार समाज की एक छोटी सी इकाई है। आधुनिक समय में सामाजिक मर्यादा और कर्तव्यों का पतन हो रहा है। इसका परिणाम हुआ है कि हमारा जीवन एक दलदल में फँसता जा रहा है। हम नैतिक पतन की ओर धंसते जा रहे हैं।

न्यू अशोक नगर, दिल्ली
समाज क्या है? समाज वह जन समूह है जहां एक साथ रहकर जन एक दूसरे के सुख-दुख, सुविधा-असुविधा का ध्यान रखते हुए उचित-अनुचित का भान कराए। लेकिन आज के समाज में अब तो यही सुनने को मिलता है कि किसी के साथ कुछ हो मुझे क्या मतलब! इसका कारण है पारिवारिक तंत्र का कमजोर होना।
हमारी सबसे पहली और महत्वपूर्ण पाठशाला है परिवार। परिवार में ही हम सीखते हैं बड़ों को आदर करना, छोटो को स्नेह देना, एक दूसरे का ध्यान रखना, सहयोग और सहानुभूति की भावना भी यहीं सिखते हैं। अलग-अलग स्वभावों के साथ सामंजस्य बिठाना, ये सब अब बहुत कम परिवारों में देखने को मिलता है।
पहले हम संयुक्त परिवार में देखते थे, यदि कोई एक व्यक्ति क्रोधी है तो उसके स्वभाव को समझते हुए परिवार के सभी सदस्य ध्यान रखते थे कि जिससे उसे क्रोध आता है उस बात को उससे ना कहा जाए जिससे उसे शांत होकर सोचने का मौका मिलता था। बाद में एहसास होने पर वह व्यक्ति वैसे ही शांत होता था जैसे जलती आग की लपेट में पानी पर गया हो। लेकिन इसके विपरीत अभी क्या हो रहा है! किसी की कमजोरी को पढ़कर अपने ही करीबी आग की लपटों में तेल डाल देते हैं।
पहले यदि गांव-घर अड़ोस-पड़ोस में जब दो जन के बीच कहासुनी होती थी या यदि कोई किसी को उल्टा सीधा बोलता था, तो लोग बात कुछ संभालने के लिए ऐसा तर्क देते थे कि कोई बात नहीं, झगड़ा में मिठाई थोड़ी ना बंटता है, और क्रोधवश बोल दिया, शांत हो जाओ, यह कहकर शांत करते थे। वहीं आज अगर ऐसी स्थिति आए तो दो-चार आपको बोलने लगते हैं अरे तुम ही थे जो बर्दाश्त कर लिये, मुझे कहकर देखें!
बड़ी चिंता की बात है खासकर ग्रामीण क्षेत्र में! शहर में कम इसलिए है क्योंकि लोग अपने से मतलब रखते हैं। जब हम अपने सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर ही सही और उचित संस्कार नहीं दे पाएंगे तो कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि हमारे बीच से निकलने वाले देश के नेता सत्कर्मी बनकर देश चलाएंगे।

आज सब सुख-सुविधा रहते हुए हम अशांत क्यों है? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है जो हम सभी के सामने चट्टान-सा खड़ा है। हम सभी को मिलकर इसका हल ढूंढना है। नयी पीढ़ी-पुरानी पीढ़ी हम एक दूसरे के पूरक है। पुरानी पीढ़ी के अनुभव के तेल से और नई पीढ़ी के उत्साह के इंजन से ही हमारी जीवन रूपी गाड़ी जीवन पर तेजी से चलेगी।
यह ब्रह्मांड ही आपसी सहयोग पर टिका है। उदाहरण के लिए जल को ही लीजिए जिसका फार्मूला है H2O, हाइड्रोजन के दो परमाणु और ऑक्सीजन के एक अणु से मिलकर बना है। यदि दोनों को अलग कर देंगे तो जल का अस्तित्व ही नहीं रहेगा। उसी तरह पेड़ पौधे से हमें जीवन दायिनी प्राणवायु ऑक्सीजन मिलता है जिसके बिना हम जीवित नहीं रह सकते। पेड़ पौधे भी हमारे बिना जीवित नहीं रह सकते क्योंकि हम भी तो उन्हें कार्बन डाइऑक्साइड देते हैं।
ठीक इसी तरह परिवार और समाज हमारे जीवन के अभिन्न अंग है। पता नहीं इस समय क्या हो रहा है!
हम एक दूसरे को बर्दाश्त ही नहीं करना चाहते हैं। ना तो स्वयं आत्म चिंतन करते हैं ना किसी के मुंह से अपनी कमी सुनना पसंद करते हैं। जिस कारण से हमारी आत्मशुद्धि हो ही नहीं रही है। इस वैज्ञानिक युग में हम कितनी भी उन्नति के चोटी पर पहुंच गए हो लेकिन नैतिकता में भारी पतन हुआ है। इसीलिए वर्षों पहले लिखे गए कबीर दास के दोहे का स्थान मजबूत हो गया है “निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय।”
आज की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि कोई सुखी नहीं है। ना बुजुर्ग को शांति है ना नौजवानों को! केवल एक दूसरे पर दोषारोपण से काम नहीं चलेगा। हमें समस्या का निदान ढूंढना होगा। हम सभी प्रभावित हैं। खासकर बच्चे जो हमारे देश के उज्जवल भविष्य हैं, खिलने से पहले ही मुरझा रहे हैं। उनके बचपन का आंगन ही नहीं रहा। परिवार का अनुसरण आवश्यक नहीं परमावश्यक है।
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