वृद्धावस्था के संबंध में हमारे महाकाव्यों में एक बहुत ही रोचक कहानी है। यह कहानी है ययाति की। ययाति को शापवश असमय ही बूढ़ा होना पड़ा। चूँकि यह बुढ़ापा स्वाभाविक नहीं बल्कि शापवश था, इसलिए इसे किसी अन्य व्यक्ति के यौवन से बदला जा सकता था। बुढ़ापा सबको कष्टप्रद लगता है इसलिए कोई इसे लेना नहीं चाहता। ययाति के साथ भी यही था।
ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु को अपना बुढ़ापा देकर स्वयं उसका यौवन ले लिया। इस उधार के यौवन के साथ ययाति एक हजार साल तक सुख भोगता रहा। लेकिन फिर भी जब उसे भोगों से तृप्ति नहीं हुई तो उसके मन में बड़ी ग्लानि हुई। उसने कहा:
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः। तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।।
कालो न यातो वयमेव याताः। तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥
अर्थात, हमने भोग नहीं भुगते, बल्कि भोगों ने ही हमें भुगता है; हमने तप नहीं किया, बल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गये हैं; काल समाप्त नहीं हुआ, हम ही समाप्त हो गये; तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, पर हम ही जीर्ण हुए हैं!
यौवन और शारीरिक आनंद के असीम लालसा से मोह भाग होने के बाद ययाति ने अपने पुत्र को उसका यौवन लौटा दिया और स्वयं अपना बुढ़ापा लेकर वन में तप करने चला गया।
यह कहानी सच है या नहीं। संभव है, या नहीं – मुझे नहीं पता। लेकिन इस रूपक से यह तो शिक्षा मिलती ही है कि जो स्वाभाविक है, जो अटल है, उसे खुशी से स्वीकार करना चाहिए। बुढ़ापा शरीर की एक सामान्य प्रक्रिया है, इसे भी वैसे ही सहज भाव से स्वीकार करना चाहिए जैसे हमने बचपन और यौवन को किया था। अगर हम इसका स्वागत करने के लिए तैयार रहेंगे तो यकीन मानिए बुढ़ापा बहुत आनंद दायक होगा।
बुढ़ापा कष्ट दायक क्यों है?
संभवतः इन कारणों से हमे बुढ़ापा डरावना लगता है:
Þ शरीर का अशक्त और कुरूप हो जाना;
Þ शरीर में पीड़ा और कई बीमारी हो जाना;
Þ धन का अभाव;
Þ दूसरों पर निर्भरता;
Þ एकाकीपन;
Þ अपनी सुरक्षा की चिंता;
Þ नई पीढ़ी के द्वारा आपकी परवाह न करना/उनके साथ आपका सामंजस्य नहीं हो पाना/अगर बच्चे दुखी हो तो वह चिंता आदि
Þ मित्रों, संबंधियों आदि का एक-एक कर दुनिया से जाना;
Þ मृत्यु का भय;
Þ अपनी उपयोगिता खत्म हो जाने का एहसास/ पुराने समय की स्मृति जब आप दूसरों के लिए उपयोगी हुआ करते थे।
सफल बुढ़ापा क्या है?
Þ शारीरिक कष्ट या विकलांगता की कम संभावना
Þ मानसिक रूप से स्वस्थ और सक्रिय
Þ आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर
Þ सामाजिक और पारिवारिक रूप से उपयोगी
यद्यपि सफलता-असफलता, सुख-दुख व्यक्तिगत अनुभव की वस्तु है। लेकिन उपर्युक्त चार तत्त्व हो तो साधारणतः अधिक उम्र होने पर भी व्यक्ति खुशी और उत्साह का अनुभव कर सकता है। इसी के लिए कुछ समाजशास्त्री “सफल बुढ़ापा” कुछ “स्वस्थ बुढ़ापा” तो कुछ “इष्टतम बुढ़ापा” कहते हैं।
ऐसा बुढ़ापा पाना बहुत कठिन भी नहीं है। अगर आदतों और सोचने की प्रक्रिया में कुछ परिवर्तन कर लिया जाय।
शारीरिक कष्ट या विकलांगता की कम संभावना
करें (do):
Þ संतुलित और सादा भोजन;
Þ समय पर भोजन;
Þ अपने स्वास्थ्य और उम्र के अनुकूल व्यायाम;
Þ नियमित स्वास्थ्य जाँच;
Þ स्वयं के स्वास्थ्य का निरीक्षण। आवश्यकता होने पर डॉक्टर से जाँच।
Þ नियमित दिनचर्या;
Þ काम और आराम का संतुलन।
नहीं करें (don’t do)
Þ शराब और अन्य मादक पदार्थों का सेवन;
Þ अनावश्यक और डॉक्टर को पूछे बिना कोई दवाई लेना;
Þ खाने में स्वास्थ्य से अधिक स्वाद की चिंता;
Þ किसी स्वास्थ्य समस्या को अनदेखा;
Þ अत्यधिक काम या अत्यधिक आराम।
मानसिक रूप से स्वस्थ और सक्रियता
करें (do):
Þ मस्तिष्क को किसी न किसी कार्य में लगाए रखें;
Þ नए-नए कार्यों को सीखते रहें;
Þ कोई-न-कोई रचनात्मक शौक (hobby) को बनाए रखें, जैसे– बागवानी, कुछ लिखना-पढ़ना, कोई कला, शिल्प इत्यादि।
नहीं करें (don’t do):
आयुर्वेद में 17 प्रकार के मानसिक रोग कहे गए हैं। आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार ये 17 तत्त्व वे विकार हैं जो मानसिक रोग उत्पन्न करने के कारण हो सकते हैं। ये हैं:
1. काम– इन्द्रियों के विषय में अधिक आसक्ति रखना ‘काम’ कहलाता है।
2. क्रोध– दूसरे के अहित की प्रवृत्ति जिसके द्वारा मन और शरीर भी पीड़ित हो उसे क्रोध कहते हैं।
3. लोभ– दूसरे के धन आदि के ग्रहण की अभिलाषा को लोभ कहते हैं।
4. ईर्ष्या– दूसरे की सम्पत्ति-समृद्धि को सहन न कर सकने को ईर्ष्या कहते हैं।
5. अभ्यसूया– छिद्रान्वेषण के स्वभाव के कारण दूसरे के गुणों को भी दोष बताना अभ्यसूया या असूया कहते हैं।
6. मात्सर्य– दूसरे के गुणों को प्रकट न करना अथवा कू्ररता दिखाना ‘मात्सर्य’ कहलाता है।
7. मोह– अज्ञान या मिथ्या ज्ञान (विपरीत ज्ञान) को मोह कहते हैं।
8. मान– अपने गुणों को अधिक मानना और दूसरे के गुणों का हीन दृष्टि से देखना ‘मान’ कहलाता है।
9. मद– मान की बढ़ी हुई अवस्था ‘मद’ कहलाती है।
10. दम्भ– जो गुण, कर्म और स्वभाव अपने में विद्यमान न हों, उन्हें उजागर कर दूसरों को ठगना ‘दम्भ’ कहलाता है।
11. शोक– पुत्र आदि इष्ट वस्तुओं के वियोग होने से चित्त में जो उद्वेग होता है, उसे शोक कहते हैं।
12. चिन्ता– किसी वस्तु का अत्यधिक ध्यान करना ‘चिन्ता’ कहलाता है।
13. उद्वेग– समय पर उचित उपाय न सूझने से जो घबराहट होती है उसे ‘उद्वेग’ कहते हैं।
14. भय– अन्य आपत्तिजनक वस्तुओं से डरना ‘भय’ कहलाता है।
15. हर्ष– प्रसन्नता या बिना किसी कारण के अन्य व्यक्ति की हानि किए बिना अथवा सत्कर्म करके मन में प्रसन्नता का अनुभव करना हर्ष कहलाता है।
16. विषाद– कार्य में सफलता न मिलने के भय से कार्य के प्रति साद या अवसाद-अप्रवृत्ति की भावना ‘विषाद’ कहलाता है।
17. दैन्य– मन का दब जाना- अथार्त् साहस और धर्य खो बैठना दैन्य कहलाता है।
आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर
करें (do):
Þ अपने नियमित नौकरी या बिजनेस से रिटायर होने के बाद भी अपने शारीरिक क्षमता और सुविधा के अनुसार कोई-न-कोई ऐसा काम करते रहे, जिससे आमदनी बनी रहे। पैसे भले ही कम आएँ, लेकिन आप व्यस्त रहेंगे और आप में आत्म-विश्वास आएगा।
Þ कुछ पैसे भविष्य के लिए भी बचाने का प्रयास करें; अपनी आमदनी के अनुसार कम-से-कम एक घर ऐसा बनाने का प्रयास करें जहाँ आप आराम से रह सकें।
Þ अगर कोई जमा पैसे (saving) या प्रॉपर्टी हो, तो उसे पूरा किसी को नहीं दें; हाँ, अपने बच्चों या किसी अपने को अगर आवश्यकता हो, तो उसका कुछ भाग जरूर दें। क्योंकि जरूरत पड़ने पर इंसान ही काम आता है, पैसा नहीं।
Þ अपने खर्चे और आमदनी को संतुलित रखें।
नहीं करें (don’t do):
Þ अन्यायपूर्वक पैसे कमा कर बुढ़ापे के लिए नहीं बचाएँ; क्योंकि यह आपके बच्चों को भी यही सिखाएगा।
सामाजिक और पारिवारिक रूप से उपयोगी
करें (do):
Þ अपने पड़ोसी और दोस्तों से अच्छे संबंध बनाए रखें;
Þ परिवार में अच्छा वातावरण बनाए रखने का प्रयास करें।
Þ हर उम्र के लोगों से (बच्चों सहित) खुश होकर बातें करें। उनकी समस्याओं और दृष्टिकोण को समझें;
Þ अपने बच्चों से बातें करते रहें। उनकी समस्याओं और दृष्टिकोण को समझें;
Þ अगर आपको कोई समस्या है तो बच्चों से बातें करें और उन्हें बताएँ। हो सकता हैं, वे अपने जीवन में इतने व्यस्त हों कि आपकी समस्या की तरफ उनका ध्यान नहीं गया हो;
Þ अपने जीवनसाथी का सम्मान करें और छोटे-मोटे कार्यों में भी उनका सहयोग करें;
Þ अपने क्रोध पर नियंत्रण रखें और बोलने में मिठास रखें;
Þ अपने दोस्तों, पड़ोसी और परिवार के लिए स्वयं को उपयोगी बनाने का प्रयास करें।
Þ बच्चों को उनके निर्णय स्वयं लेने दें।
Þ अपने दृष्टिकोण को हमेशा सकारात्मक रखें।
नहीं करें (don’t do):
Þ अपने बच्चों के काम और जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप न करें;
Þ हमेशा अपनी तकलीफ और समस्याएँ लोगों को नहीं बताएँ;
Þ सुनाने से अधिक सुनने का प्रयास करें;
Þ घर के मुखिया (guardian) वाली भूमिका से अपने आप को धीरे-धीरे अलग कर लें; आपने अपनी भूमिका निभा लिया है, अब उन्हें अपनी भूमिका निभाने का अवसर दीजिए।
Þ बच्चों के लिए आवश्यकता से अधिक चिंता न करें। उनकी समस्या उन्हे सुलझाने दें। आप हस्तक्षेप न करें।
Þ बच्चों से अधिक अपेक्षा न रखें।
Þ परिवार के अन्य लोगों के अनुरूप अपनी आदतों और स्वभाव में परिवर्तन लाएँ।
निष्कर्ष:
हमारा जीवन हमारे सोच पर बहुत कुछ निर्भर करता है। एक 83 वर्ष के व्यक्ति को कोई गंभीर बीमारी हुई। उन्हें डॉक्टर ने बहुत-सारी चीजें खाने-पीने से मना कर दिया। दूसरों को सब कुछ आराम से खाते देख उन्हें दुख होता था, कि वे खा भी नहीं सकते।
लेकिन उन्होंने कभी ऊपर वाले को इस बात के लिए धन्यवाद नहीं दिया कि वे इस उम्र तक इतने स्वस्थ रहें और आर्थिक रूप से इतने सक्षम रहें कि सब कुछ खा सकें। जबकि बहुत लोग तो बचपन या युवा अवस्था में भी ऐसा नहीं कर सकते हैं।
अगर आप अपने सोच में अन्तर लाएँगे तो यकीन मानिए आपको इतना सम्मान और आदर मिलेगा कि आपको अपने बुढ़ापे पर गर्व होगा। लेकिन ये आदतें अचानक 60 साल होने पर नहीं आ सकतीं है। इसके लिए प्रयास युवावस्था से ही करना होगा।
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