हाल के दिनों में एक हालीवुड फिल्म बहुत चर्चित रहा है। इसका नाम है ओपनहाइमर। इसका नाम आपलोगों ने जरूर सुना होगा अगर देखा नहीं होगा तो। फिर भी जिन्होंने नहीं सुना होगा उनके लिए बता दूँ कि यह फिल्म अमेरिका के एक भौतिक विज्ञानी प्रो जूलियस रॉबर्ट ओपेनहाइमर के जीवन पर आधारित है। वे द्वितीय विश्वयुद्ध के समय परमाणु बम के निर्माण के लिये आरम्भ की गयी मैनहट्टन परियोजना के वैज्ञानिक निर्देशक थे। उनके निर्देशन में ही वह परमाणु बम बना था जो जापान पर गिराया गया। इसीलिए उन्हें परमाणु बम का जनक माना जाता है।
ओपनहाइमर का बचपन से ही सपना एक बड़ा भौतिक वैज्ञानिक बनने का था। इसके लिए उन्होने बहुत मेहनत किया। उनकी मेहनत और प्रतिभा रंग लायी। वे एक बड़ा आविष्कार करने में सफल रहे। लेकिन इस सफलता ने उन्हें संतुष्टि और खुशी नहीं दिया। बल्कि एक अपराधबोध और अंतर्द्वंद्व दिया। गीता का ये श्लोक उन्हें अपने पर लागू लगने लगा- “दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता। यदि भाः सदृशी सा स्याद् भासस्तस्य महात्मनः॥१२॥ कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो। लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।…॥३२॥” अर्थात आकाश में हजार सूर्यों के एक साथ उदय होने से उत्पन्न जो प्रकाश हो, वह भी उस विश्वरूप परमात्मा के प्रकाश के सदृश कदाचित् ही हो। श्रीभगवान् ने कहा- मैं लोकों का नाश करने वाला प्रवृद्ध काल हूँ। इस समय, मैं इन लोकों का संहार करने में प्रवृत्त हूँ।” अब ओपनहाइमर को प्रतीत होने लगा कि मृत्यु का ऐसा साधन बना कर वे स्वयं मानो मृत्यु बन गए थे, वे लोगों का संहार कर रहे थे। वे सफल होकर भी खुश और प्रसन्न नहीं थे।
ओपनहाइमर की कहानी सुन कर जाने क्यों मुझे ऋषि परशुराम की याद आ गई। दोनों के समय, स्थान, परिस्थिति और कार्य में बहुत अंतर था। परशुराम एक ब्राह्मण ऋषि के पुत्र थे। जीवन तप और साधना में बीत रहा था। उनके जीवन में निर्णायक मोड़ तब आया जब एक क्षत्रिय ने उनके निर्दोष पिता की निर्दयता से हत्या कर दी। उनके मन में क्षत्रियों के लिए प्रतिशोध की अग्नि जल उठी। इस प्रतिशोध के लिए उन्होने 21 बार अकेले ही बिना किसी सेना के क्षत्रियों पर आक्रमण किया और हजारों-लाखों निर्दोष क्षत्रियों को मार डाला। उन क्षत्रियों के रक्त से उन्होने कुरुक्षेत्र, जो उस समय स्यमंतक क्षेत्र कहलाता था, में सरोवर का निर्माण किया। उन्होने उसी रक्त से अपने पूर्वजों का तर्पण किया। उनके पूर्वज प्रकट हुए और उनसे वरदान मांगने के लिए कहा।
तब परशुराम ने जो वरदान मांगा वह उनका मनोभाव दिखाता है। वह वरदान दिखाता है कि उनमें और ओपनहाइमर की मनःस्थिति में अधिक अंतर नहीं था। देश-काल का अंतर मिटा कर मानव की मौलिक मनोवृति समान होती है। उन्होने वरदान मांगा “मैंने बहुत से निर्दोष क्षत्रियों की हत्या की है, इस पाप से मेरी मुक्ति हो जाय।”
स्पष्टतः अकेले इतने क्षत्रियों का संहार करने के कारण हर जगह अपने पराक्रम और शक्ति का बखान करने वाले परशुराम अंदर से व्यथित थे। उनमें कहीं-न-कहीं अपराध बोध भी था। अन्तःकरण में गहरे रूप से पश्चाताप था। क्या यही पश्चाताप तमाम सफलता के बावजूद ओपनहाइमर में नहीं था?
नाश कर जो सफलता मिलती है, वह व्यक्ति की आंतरिक शांति छीन लेती है। दूसरों को कष्ट देकर मिली सफलता के स्वाद में वह मीठापन नहीं होता जो दूसरों को खुशी देकर मिली सफलता में होता है। शायद सफलता की हमारी परिभाषा ही गलत है। शायद अपनी जिद पूरी होने को ही हम सफलता मान लेते हैं।
वास्तव में सबके साथ खुशी बांटने में ही सच्ची खुशी और सफलता होती है। अपने पिता या भाई से लड़ कर हम भले ही संपत्ति प्राप्त कर लें लेकिन इसमें शायद वह आनंद नहीं होगा जो उनके साथ प्रेम और शांति से बैठ कर सूखी रोटी खाने में हो।