संस्कार क्या है और क्यों आवश्यक है?

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65 वर्षीय प्रभा जी ने विवाह के बाद मायके और ससुराल दोनों के संबंधियों से संपर्क नहीं रखा। पड़ोसियों और मित्रों से भी लगभग संपर्क में नहीं थीं। पति-पत्नी दोनों अच्छे पदों पर थे, बच्चों को पढ़ाने  और उनके करियर बनाने में व्यस्त रहे दोनों। माँ-बाप या सास-ससुर का भी कभी ख्याल नहीं रखा। उन्हें कभी न तो समय मिला, न ही जरूरत महसूस हुआ कि कभी किसी दोस्त, रिश्तेदार की हालचाल लेतीं। जब बच्चे अपनी दुनिया में व्यस्त हो गए, पतिदेव का निधन हो गया, तब उन्हें अकेलापन खलने लगा। अब उन्हें शिकायत है कि कोई दोस्त, रिश्तेदार उनके साथ नहीं है। लेकिन वह यह नहीं सोचती कि वह कब किसके साथ जरूरत के समय खड़ी थीं। उनके बच्चों ने व्यवहार में यही देखा कि उनके माता-पिता ने अपने बच्चों के अलावा किसी से कोई संपर्क नहीं रखा, तो वे भी ऐसा ही करने लगे। वे भी अपने बच्चों में लगे रहे। किसी सामाजिक और पारिवारिक सम्बन्धों को वे समझ ही नहीं पाए थे।

कुछ ऐसे ही कहानी रही सत्येन्द्र जी की। भाई से संपत्ति संबंधी विवाद के कारण बहुत दिनों तक मुकदमा चलता रहा। उनके अनुसार उनके पिता ने बड़े भाई के प्रति ज्यादा प्रेम दिखाया था, इस गुस्से के कारण उन्होने माता-पिता से भी संबंध नहीं रखा। बहनों, अन्य रिश्तेदारों या मित्रों से भी बहुत कम संपर्क रखते थे क्योंकि लोगों के घर आने जाने से एक तो खर्च होता था, दूसरे उनके बच्चों की पढ़ाई में खलल पड़ता था। उन्होने सोचा वे तो अपने तीनों बच्चों से एक जैसे प्रेम करते हैं, सबको सारी सुविधाएं देते हैं, फिर उनके बच्चे तो सारी जिंदगी उनका साथ देंगे ही। पर ऐसा नहीं हो सका। बच्चे बड़े हुए, बड़े-बड़े पदों पर नियुक्त हुए। दूसरे शहरों में चले गए। विवाह हुआ। परिवार और करियर में व्यस्त हो गए। कभी-कभी माँ-बाप का फोन पर हाल चाल पूछ लेते। अपने पिता की तरह वे भी नहीं चाहते कि उनके घर कोई आए- जाए ताकि उनके बच्चों की पढ़ाई में कोई बाधा हो। अब उनके माँ-बाप और भाई-बहन भी उनके लिए ‘कोई’ हो गए जो उनके बच्चों के करियर में बाधा बन सकते थे। दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची, मौसा-मौसी आदि रिश्ते तो उनके लिए पहले ही बहुत दूर हो चुके थे।   

इन दोनों से अलग कहानी है 37 वर्षीय क्षितिज की। पिता ने उसे वह सभी सुख-सुविधाएं उपलब्ध करवा दिया था जो पैसों से खरीदा जा सकता था। बहुत कम उम्र में ही उसने वह सब हासिल कर लिया था जो कई लोगों के लिए सपना होता है। मंहगी गाड़ियाँ, ब्रांडेड कपड़े, मंहगे स्कूल कॉलेज से डिग्रियाँ सब कुछ। बहुत सारे दोस्त भी थे। बड़ों को देख कर कभी-कभार थोड़ा झुक कर प्रणाम भी कर लेता था। लेकिन बड़ों के पास बैठने, छोटों को स्नेह बांटने, सामान्य जनजीवन को जीने, जीवन के संघर्ष आदि का वह अनुभव नहीं कर पाया। उसे जीवन में रोमांच चाहिए था। उसके लिए रात रात भर पार्टी करना, नशा करना, तेज रफ्तार से गाड़ी चलाना, दोस्तों के साथ मस्ती करना आदि ही ज़िंदगी का आनंद था। उसके पास पैसे थे लेकिन यह नहीं पता था इनका उपयोग कैसे किया जाय। सामान्य लोगों कि जिंदगी उसके लिए पैसों से खरीदा जा सकने वाली ‘चीज’ थी। इस दिनचर्या ने उसे धीरे-धीरे शारीरिक और मानसिक रूप से रोगी बना दिया। अब पुराने दोस्त साथ छोड़ चुके थे। वह अकेला अपनी समस्याओं के साथ था। भौतिक सुख सुविधाएं अब उसे खुशी नहीं दे पाते। 

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इससे भी अधिक त्रासदी रही 19 वर्षीय शशांक का जीवन। पिता की मृत्यु के बाद माँ ने ही उसे पाला पोसा। माँ सरकारी कर्मचारी थी। वह चाहती थी कि उसका बेटा ऐसा बड़ा ऑफिसर बने जैसा उसे मोहल्ले और गाँव में कोई नहीं हो। वह अपने लिए थोड़ा सामाजिक सम्मान और बेटे के लिए सारी खुशियाँ चाहती थी। इसलिए शुरू से ही उसने कड़े अनुशासन से शशांक का पालन पोषण किया था। शशांक का सपना अपनी माँ का सपना पूरा करना था। दोनों माँ बेटे के जीवन का एक ही सपना हो गया बड़ा ऑफिसर बनना। जीवन एक छोटे से लक्ष्य से बहुत अधिक और सुंदर है। नौकरी के अलावा भी जीवन होता है। यह वे दोनों नहीं समझ सके। जीवन का कोई सौन्दर्य, सारे रिश्ते नाते, प्रेम-स्नेह सब उनके लिए एक नौकरी के बाद ही था। परिणाम यह हुआ कि ऊपर से सामान्यतः शांत और अनुशासित दिखने वाला शशांक अवचेतन रूप से भयभीत और कमजोर होने लगा। जब उसे लगने लगा कि वह परीक्षा पास नहीं कर सकता तब उसने आत्म हत्या जैसा अतिवादी कदम उठा लिया।   

अक्सर हम अपनी परेशानियों का कारण अपने अंदर नहीं खोज कर अन्य व्यक्तियों या परिस्थितियों में ढूंढते हैं। अगर अपने अंदर अगर खोजेंगे तो पाएंगे कि इन सबका मूल कारण संस्कारों की कमी है। ये कुछ उदाहरण हैं आधुनिक जीवन में अपने जड़ों से कट जाने के, संस्कारों को भूल जाने के परिणामों के, पर ऐसे अनेक उदाहरण हम अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी में देखते रहते हैं। लेकिन जब हम संस्कारों की बात करते हैं तब सबसे पहले प्रश्न आता है कि संस्कार क्या है? यह क्यों जरूरी है और इसे कैसे बच्चों को दिया जाय?

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संस्कार क्या है?

शब्द शास्त्र की दृष्टि से संस्कार शब्द का संधि विच्छेद होगा समः कार। ‘कृ’ मूल धातु है जिसमें ‘सम’ उपसर्ग और ‘घञ्’ प्रत्यय लगाया गया है। मीमांसा शास्त्र, कालीदास, आदि ने ‘संस्कार’ शब्द का अर्थ ‘शुद्धि’ से लगाया है और यही अर्थ वर्तमान में सबसे अधिक स्वीकार किया जाता है। कुछ संस्कृत ग्रन्थों में आभूषण और अतिरिक्त प्रभाव के अर्थ में भी संस्कार शब्द का प्रयोग हुआ है। सामान्य अर्थ में संस्कार ऐसी विधि है जिसके द्वारा व्यक्ति को शुद्ध कर अपने समुदाय यानि समाज के योग्य बनाया जाता है।

व्यवहार में संस्कार शब्द का प्रयोग दो आशय से किया जाता है: रूढ़िगत और सामान्य।

रूढ़िगत रूप से यह कुछ औपचारिक धार्मिक कृत्य है जो किसी व्यक्ति के शरीर, मन और मस्तिष्क को शुद्ध कर उसे अपने समाज के लिए योग्य बनाने के उद्देश्य से किए जाते थे। ऐसे संस्कारों में गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि तक 16 संस्कार सबसे महत्त्वपूर्ण थे। यानि संस्कार जन्म से पहले ही शुरू हो जाते थे। ये संस्कार केवल औपचारिक नहीं थे बल्कि व्यक्ति में उन गुणों को विकसित करने का प्रयास भी किया जाता था। उदाहरण के लिए यज्ञपवीत संस्कार के बाद बच्चों को विद्याध्ययन के लिए गुरु आश्रम में भेजा जाता था। 

सामान्य अर्थ में संस्कार का अर्थ हुआ ऐसे गुणों का समुच्चय जिससे व्यक्ति जिस समुदाय या समाज में रहता है उससे उसका तादात्म्य बना रहे। यह व्यक्ति के अंदर नैतिक, सामाजिक और मानवीय गुणों का प्रतिनिधित्व करता है। यह व्यक्ति को बताता है कि आप अकेले नहीं हो बल्कि एक बृहत्तर समाज का अभिन्न हिस्सा हो। इसलिए आप सब के लिए हो और सब आपके लिए हैं। मुंडन, जनेऊ, विवाह आदि सभी संस्कार हैं और इन्हें समाज और परिवार के लोगों के साथ मनाए जाने का रिवाज इसीलिए है।

इस दृष्टि से इस दृष्टि से संस्कार को दो  स्तर पर समझ सकते हैं:

अन्य व्यक्ति के प्रति व्यक्ति का कर्तव्य

दूसरों की पीड़ा को समझो, दूसरों की सहायता करो, झूठ नहीं बोलो, चोरी नहीं करों, किसी का दिल नहीं दुखाओ, परिश्रम से आजीविका कमाओ, अनैतिक चीजों से दूर रहो, सबसे प्रेम करो, बड़ों का आदर और छोटों को स्नेह करो, किसी से ईर्ष्या नहीं करो, दूसरों के चीजों के प्रति लालच नहीं करो, जैसी बाते बच्चों को संस्कारों के माध्यम से बताया जाता है। ये संस्कार ही वह सीमा रेखा बनाता है जिससे व्यक्ति अपनी शिक्षा, कौशल और साधनों का सम्यक उपयोग कर पाता है, नहीं तो इन चीजों का दुरुपयोग होते देर नहीं लगेगी।

स्वयं के प्रति व्यक्ति का कर्तव्य

अन्य के प्रति कर्तव्य तभी संभव हो पाएगा जबकि हम तन, मन से स्वस्थ्य हो। हमारा शरीर, हमारा जीवन केवल अपना नहीं होता बल्कि हमारे माता-पिता, परिवार और समाज का भी उस पर अधिकार होता है। इसलिए स्वस्थ्य नियमित दिनचर्या यानि समय पर सोना-जागना, उचित भोजन, व्यायाम, व्यक्तिगत सफाई आदि भी बहुत जरूरी है। इसी उद्देश्य से यज्ञोपवीत संस्कार के बाद व्यक्ति जब विद्याध्ययन के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करता यानि 8-12 वर्ष के बीच उसे एक स्वस्थ्य दिनचर्या अपनाने के लिए शिक्षित और प्रशिक्षित किए जाने की परंपरा रही है।

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क्यों जरूरी हैं संस्कार?

रावण जगत प्रसिद्ध विद्वान, धनवान और शक्तिवान था। महाभारत के खल पात्र जरासंध, कंस, दुर्योधन इत्यादि भी अनेक गुणों और साधनों से परिपूर्ण थे। पर इन सबमें एकमात्र कमी थी- संस्कारों की। यही एकमात्र कमी उनके सभी गुणों पर भरी पड़ी।

अरस्तू के शब्दों में मनुष्य एक सामाजिक पशु है। यह चाहे या नहीं चाहे, पर समाज से अलग नहीं रह सकता है। मानव शिशु संभवतः सबसे असहाय शिशु होता है। दूसरे व्यक्ति के सहयोग के बिना वह अपना अस्तित्व भी नहीं रख सकता है। पर जब वह आर्थिक और शारीरिक रूप से सक्षम हो जाता है तब उसे लगने लगता है कि वह अकेले जी लेगा। कई बार दूसरे लोग उसे अपनी आजादी में खलल लगने लगते हैं। वह अपनी जड़ों से कट जाता है। ऐसे लोग या तो जाने अनजाने अपराध के रास्ते पर चल निकलते हैं, या अकेलेपन अथवा शारीरिक-मानसिक बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। वे न तो अपनी उपलब्धियों को बर्दाश्त कर पाते हैं और न ही अपनी असफलताओं को। नशा, उन्मुक्त जीवन, अपराध और कभी कभी तो आत्महत्या जैसे कदम ऐसे ही जड़ से कटे और अपने आप में रमे लोगों द्वारा उठाया जाता है।

कब दिए जाएँ बच्चों में संस्कार?

संस्कार कोई घटना नहीं बल्कि एक स्वभाव होता है। बच्चों में अच्छी आदते शुरू से ही डाले जाने चाहिए ताकि ये कोई बाहर से ओढ़ा हुआ अनुशासन नहीं बल्कि एक स्वाभाविक प्रवृति बन जाए। हम किसी दुखी को देखें तो करुणा स्वाभाविक रूप से हमारे अंदर से आ जाए, किसी की खुशी में हम स्वाभाविक रूप से खुश हो सके, सुबह उठना हमारे लिए कोई बोझ नहीं हो, माँ-बाप और का आदर हम सहज स्वभाव से करें न कि उनके कार्यों और अपने नफा-नुकसान का हिसाब लगा कर।

स्पष्टतः संस्कारजीवन अपने स्वयं के लिए, परिवार के लिए और समाज के लिए- तीनों के लिए हानिकारक है। आज के बच्चे कल युवा, प्रौढ़ और बूढ़े होंगे। इसलिए संस्कारवान बच्चे से ही संस्कारवान समाज बनेगा।  

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