अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा, सम्मान अथवा आभार प्रकट करने का एक तरीक़ा है श्राद्ध। निस्संदेह हमें उनका आभारी, उनका कृतज्ञ होना चाहिए। लेकिन क्या मात्र पितृपक्ष का अनुष्ठान उनके प्रति वास्तविक श्रद्धा व्यक्त करने में सक्षम हो सकता है? क्या किसी को भोजन करा देने से किसी दिवंगत की आत्मा वास्तव में तृप्त या प्रसन्न हो सकती है? किसी को भोजन करा देने से भोजन करने वाले व भोजन कराने वाले का मन अवश्य प्रसन्न हो सकता है लेकिन किसी दिवंगत की आत्मा भी इससे तृप्त हो जाए इसका कोई प्रमाण भी है क्या?

ए.डी. 106 सी., पीतमपुरा
दिल्ली
इस पर थोड़ा सा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से चिंतन करने की आवश्यकता है। श्राद्ध की परंपरा का श्रीगणेश कब हुआ? निस्संदेह यह एक बहुत पुरानी परंपरा है। हमारे पौराणिक ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। श्राद्ध का प्रारंभ कब से हुआ यह सुनिश्चित करने के लिए मानव जाति के इतिहास के साथ-साथ मानव सभ्यता व संस्कृति के इतिहास को जानना भी अपेक्षित है। प्रश्न उठता है कि मानव जाति का इतिहास कितना पुराना है? मनुष्य जीवन कब अस्तित्व में आया? वैज्ञानिकों के अनुसार हमारी पृथ्वी पाँच अरब साल पुरानी है।
इस पाँच अरब साल के पूर्वार्ध में अर्थात् दो-तीन अरब साल तक तो हमारी धरती पर किसी प्रकार के जीव-जंतु थे ही नहीं। फिर करोड़ों साल तक केवल वनस्पतियाँ और जानवर ही अस्तित्व में आए। मनुष्य ने लगभग पाँच लाख साल पहले जन्म लिया और विकास की सीढ़ियाँ पार करते हुए वर्तमान विकसित अवस्था में पहुँचा। इस विकास के क्रम में कोई दस हज़ार साल पहले मनुष्य ने बस्तियाँ बसाना शुरू किया। दस हज़ार साल पहले या अपने प्रारंभिक दौर में पाँच लाख साल पहले वह किस अन्य रूप से तत्कालीन उस रूप में आया होगा इस पर भी विचार कर लेना चाहिए।
यह सर्वविदित हैं कि बंदरों की किसी प्रजाति विशेष के रूपांतरण से ही मनुष्य जाति के विकास का प्रारंभ होता है। प्रश्न उठता है कि मनुष्य जब से सभ्य हुआ तब से श्राद्ध कर्म अनिवार्य हुआ या उससे पहले भी था? क्या जंगल में जानवरों की तरह रहने वाला मनुष्य भी अपने पूर्वजों का श्राद्ध कर्म करता था? यदि नहीं तो फिर उनकी मुक्ति कैसे होती थी? आधुनिक विकसित मानव होने के नाते उसके लिए अनिवार्य है कि वो अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता, सम्मान अथवा श्रद्धा व्यक्त करे। अब यह कृतज्ञता, सम्मान अथवा श्रद्धा कैसे व्यक्त की जाए?
जिसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनी है उसको स्मृति में लाकर उसका आभार व्यक्त किया जाए, उसको प्रणाम किया जाए अथवा उसकी याद में कोई अच्छा कार्य किया जाए अथवा किसी को भोजन कराया जाए? इस प्रक्रिया में जिसको जो अच्छा लगा वह वही करने लगा और इस प्रकार से बहुत सारे तरीक़े लोगों ने निकाल लिए। किसी ने अपने पूर्वजों की स्मृति में किसी को भोजन कराया तो किसी ने उनके नाम पर कोई स्मारक बनवाया। अनेक व्यक्तियों ने अपने माता-पिता अथवा बुज़ुर्गों की स्मृति में कुएँ खुदवाए, धर्मशालाएँ बनवाईं और स्कूल, कॉलेज व अन्य शिक्षा-संस्थान खुलवाए।

समाज नकलची होता है। एक ने जो किया दूसरों ने भी उसकी नक़ल की। कुछ तरीक़े ज़्यादा प्रसिद्ध व प्रचलित हो गए क्योंकि उन्हें करना आसान था। उन्हीं में एक है पूर्वजों की स्मृति में भोजन कराना। एक ने कराया तो दूसरों ने भी वही किया। कुछ खिलाने वाले थे तो कुछ खाने वाले भी पैदा हो गए। कुछ अकर्मण्य लोगों की उदरपूर्ति से जुड़ गई ये परंपरा। उन्हें इसके स्थायीकरण में लाभ लगा। परंपराएँ रूढ़ियाँ बनती चली गईं। उसके पीछे के उद्देश्य और भावनाओं को लोग भूलते चले गए। कहीं किसी डर के मारे तो ये श्रद्धा नहीं पनपती? कहीं प्रेत योनि की अतृप्ति से उपजे व्यवधान का डर तो नहीं?
क्या कारण है कि हम जिन माता-पिता का जीते जी यथोचित आदर-सत्कार नहीं करते, श्रद्धा और कृतज्ञता प्रकट नहीं करते, वृद्धावस्था में ठीक से देखभाल नहीं करते उन्हीं माता-पिता के दिवंगत होते ही उनके प्रति श्रद्धातिरेक उमड़ पड़ता है? यह रूढ़ियों का बंधन नहीं तो और क्या है? समय-समय पर समाज के प्रबुद्ध जनों ने समाज के विकास के लिए अच्छी चीज़ों को परंपरा का हिस्सा बना दिया लेकिन आज वो परंपराएँ जिस रूप में विद्यमान हैं उनमें परिवर्तन की आवश्यकता प्रतीत होती है। चलिए आप परंपराओं को नहीं तोड़ना चाहते तो मत तोड़िए लेकिन जीते जी वृद्ध माता-पिता व अन्य वृद्धों की उचित देखभाल से मुँह मत मोड़िए।
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