वृद्धावस्था का भय केवल आज की समस्या नहीं है बल्कि हजारों वर्ष पहले रचित आयुर्वेद ग्रंथ चरक संहिता में भी इसके संकेत मिलते हैं।

यह तो कटु सत्य है। प्रत्येक व्यक्ति या जीव, जिसने इस संसार में जन्म लिया है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है और इस सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। ज्यों-ज्यों आयु बढ़ती जाती है मृत्यु का समय भी पास आता जाता है। अतः मृत्यु वृद्धावस्था के अधिक निकट होती है। जबकि यह भी सत्य है जीवन और मौत पर इन्सान का कोई अधिकार नहीं है। जो व्यक्ति दुनिया से ऊब चुका होता है और जीना नहीं चाहता उसे मौत नहीं आती। अनेक प्रकार की शारीरिक परेशानियों के बावजूद जीना पड़ता है। कभी-कभी तो गंभीर बीमारी के चलते वर्षों बिस्तर पर पड़े रह कर भी जीवन को ढ़ोना पड़ता है। जिसे जीने की लालसा होती है, सब प्रकार से समृद्ध होते हैं, कई बार उसे ज़िंदगी नसीब नहीं होती।
सुनयना कुमारी, चिरैयाटाँड़, पटना, बिहार
अक्सर, जब भी एक वृद्ध व्यक्ति अपने पड़ोसी, मित्र या परिजन की मौत का समाचार सुनता है, देखता है तो उसके मन में स्वयं की संभावित मौत का भय सताने लगता है। उस भय के कारण उसके दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं। उसका ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है। वह मानसिक रूप से व्यथित हो जाता है। बाद में भी काफी दिनों तक उसके मानस पटल पर यह भय बना रहता है। जैसे-जैसे उम्र बढती जाती है उसका भय भी बढ़ता जाता है।
उपरोक्त भय का कोई निश्चित समाधान नहीं है। मौत तो सच्चाई है। वह आनी ही है। तो उससे भय मानने से क्या लाभ। इस सच्चाई को स्वीकार कर लेना ही श्रेष्ठ है। जितने दिन की जिन्दगी है, उसे प्रसन्नतापूर्वक जीना ही अपना मकसद होना चाहिए। वास्तव में जिस मौत से हम खौफ खाते हैं, वह एक असीम शांति का स्वरूप है, चिरनिद्रा है, जो हमें सभी दुखों एवं तनावों से मुक्त होने का अवसर देता है। अतः जितना समय हमें जीने को मिल रहा है, भय मुक्त होकर जीना चाहिए।
क्या कभी आप सोने से पूर्व तनावग्रस्त या भयग्रस्त होते हैं। जबकि आप सोने के पश्चात् अपना अस्तित्व भूल जाते हैं, एक नयी सुबह होते ही सब कुछ पहले जैसा हो जाता है। मौत भी निद्रा का एक रूप है जिस निद्रा के बाद सुबह नहीं होती। अतः हम यह सोच लें की मौत और कुछ नहीं सिर्फ ऐसी असीमित नींद है जिसके पश्चात् दोबारा होश में नहीं आ सकते। मन को शांत करने का इससे अच्छा विकल्प नहीं हो सकता। मौत के भय से जीवन असहज होता है, इससे अधिक कुछ होने वाला नहीं है।
प्रायः पुरानी पीढ़ी के लोग नए परिवर्तनों को न तो समझ पाते हैं और न ही स्वीकार कर पाते हैं। शारीरिक क्षमता भी कम होने लगती है। कमाई के नए साधनों के अनुरूप अपने आपको ढ़ाल पाने में भी सक्षम नहीं होते हैं। अतः उनके पुराने कारोबार सफेद हाथी साबित होने लगे हैं। बढ़ते खर्चों के सामने वे अपनी कमाई को ऊँट के मुँह में जीरा की तरह महसूस करते हैं। इतनी तीव्र गति से आया परिवर्तन उन्हें शारीरिक एवं मानसिक रूप से व्यथित करता है।
जीवन का सूरज ढलने से पहले, फूल मुरझाने से पहले, दीपक बुझने से पहले, अंधेरा होने से पहले, व्यक्ति् को अपना जीवन समझ लेना चाहिए। इसलिए समय रहते, बुढ़ापा आने से पहले, जीवन को ऐसा बनाना चाहिए कि मरने के बाद लोगों के लिए प्रेरणा बनें।
वृद्धावस्था को एक अभिशाप नहीं बल्कि वरदान के रूप में लेना चाहिए। इस उम्र में आँखों की ज्योति चाहे क्षीण हो जाए लेकिन आध्यात्मिक ज्योति निश्चित रूप से बढ़ती है। याद रखें हम उसी दिन बूढ़े होंगे जिस दिन हम सीखना बंद कर देंगे। आपके चेहरे पर भले ही झुर्रियाँ पड़ जाएँ पर उत्साह में झुर्रियाँ नहीं पड़ने दें। वृद्धावस्था में जो चला गया उसके लिए चिंतित होने के बजाय जो मिला है उसमें संतोष करें।
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