ये प्रेम कोई बाधा तो नहीं

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ये प्रेम कोई बाधा तो नहीं

दिलीप कुमार 

तुम आँचल समेटे कहती हो

मैं मृदु बातों में उलझा ही क्यों

ये भंवर सजीले हैं मितवा

जो हम दोनों को ही ले डूबेंगे

ये मोह का जाल है प्रेम भरा

जिसमें प्रेम के पक्षी फँसते ही हैं, फिर भी

ये प्रेम कोई बाधा तो नहीं 

तुम अक्सर इस बात को कहती हो

मैं इतनी दुहाई प्रेम की क्यों कर देता रहता हूँ

कि प्रेम बिना जीवन सूना और बिल्कुल ही आधा-अधूरा है

पर प्रेम जिन्हें हासिल ही नहीं

उनका जीवन भी तो चलता है, आधा और सादा ही सही, फिर भी

ये प्रेम कोई बाधा तो नहीं

मुझे बहुत लिजलिजे लगते हैं

ये प्यार-मोहब्बत के दावे

तुम इस बात पर हैरां रहती हो

कि मैं प्रेम बिना कैसे रहता हूँ

वैसे ही जैसे कितने ही लोग

बिन उम्मीदों और सपनों के जीते रहते हैं

थोड़ा अलग है उनका जीवन फिर भी

ये प्रेम कोई बाधा तो नहीं

चलो, अब प्रेम की बातें छोड़ो

कहीं तुम भी प्रेम में न रच-पग जाओ

जीवन है इतना क्रूर, विषम

हम सब ही उससे हारे हैं

अब प्रेम हो या फिर लिप्सा हो

जीना तो आखिर ऐसे ही है

अरे तुम, विचलित सोच रही कुछ, क्या कहना है,

फिर भी

ये प्रेम कोई बाधा तो नहीं है।

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