कहानी सच है, काल्पनिक है, या सांकेतिक- मुझे नहीं पता, लेकिन सुना है कि हजारों वर्ष पहले अपने देश में एक राजा हुए थे। राजा परम पराक्रमी, शौर्यशाली और धर्म आचरण वाले थे। समय आया। उनके बच्चे युवा हो चले और वे स्वयं बूढ़े। लेकिन वे बूढ़ा नहीं होना चाहते थे। उन्हें एक वरदान मिला था कि वे चाहते तो किसी से अपने शरीर की अवस्था बदल सकते थे अर्थात अपनी बुढ़ापा देकर युवावस्था ले सकते थे।
उन्होने अपने पुत्रों से अपनी ये इच्छा बताया। लेकिन उनका कोई भी पुत्र अपनी युवावस्था देकर उनका बुढ़ापा लेने के लिए तैयार नहीं हुआ। भले ही पिता का बुढ़ापा लेने के बदले उन्हें पिता का राज्य और ऐश्वर्य भी मिलता। क्योंकि उन्हें लगा कि बुढ़ापे का दुर्बल और दुर्ददर्शनीय शरीर लेकर राज्य और उसके ऐश्वर्य का कोई उपभोग नहीं किया जा सकता था। लेकिन राजा का छोटा पुत्र अपनी युवावस्था के बदले पिता का बुढ़ापा लेने के लिए राजी हो गया।
पर कहानी यहीं समाप्त नहीं हुई। सैकड़ों वर्षों तक उधार का युवा शरीर लेकर विभिन्न सुख भोगने के बाद भी पिता का मन सुख से तृप्त नहीं हुआ। अंततः उसने अनुभव किया कि उसने सुखों को नहीं भोगा बल्कि सुखों ने ही उसे भोगा है।
उसने माना कि सुख भोगने से तृप्ति संभव नहीं है। अतः प्रकृति के नियमों को मानते हुए प्रकृति प्रदत्त शरीर को स्वीकार करना ही सही रास्ता है। उसने पुत्र का युवावस्था उसे लौटा कर अपना बुढ़ापा वापस ले लिया। सारे भोग-विलास से विरक्त होकर आत्म कल्याण के लिए तपस्या में लीन हो गया। यह कहानी है राजा ययाति और उसके छोटे बेटे पुरू की।
इसी से मिलती-जुलती कई कहानियाँ अन्य सभ्यताओं में भी है। एक ग्रीक कहानी है राजा क्रोनोलोजस की। क्रोनोलोजस को किसी ने बताया था कि उसका पुत्र ही उसे मारेगा। इसलिए वह स्वयं अपने सारे पुत्रों को जन्म लेते ही मार डालता था।
पर उसकी पत्नी को अपने बच्चों का मारा जाना अच्छा नहीं लगता। अतः उसने प्रयास कर अपने एक पुत्र को जीवित बचा लिया। उसके पति को जीवित पुत्र का पता नहीं था। अंततः वही हुआ जिसका उसे डर था। उसके पुत्र ने ही उसकी हत्या कर दी। कहते हैं क्रोनोलोजस समय का देवता था। उसी के नाम पर आज भी ‘क्रोनोलोजी’ शब्द प्रचलित है। अगर इस कहानी को सांकेतिक अर्थ में ले तो आशय यही निकलता है कि हर आने वाला समय पहले वाले समय को खत्म कर देता है।
अमरत्व की चाहत और चीरस्थायी युवावस्था से संबन्धित कहानियाँ लगभव सभी सभ्यताओं में हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि मृत्यु से भय और युवावस्था को बनाए रखने की चाह एक सनातन सत्य है। लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि हम चाहे या नहीं, अगर हम जीवित रहेंगे तो बुढ़ापा आएगा ही, शरीर कमजोर होगा है, और नई पीढ़ी धीरे-धीरे हमे विस्थापित कर ही देगी। तो क्यों न इस सत्य को स्वीकार कर लें। क्यों न बुढ़ापे का स्वागत करने के लिए खुले मन से तैयार रहें। क्यों न बुढ़ापे में भी अपने को प्रासांगिक बनाए रखने का प्रयास करें।