
गुरुग्राम, हरियाणा
मित्रो! आप मेरे साथ सहमत होंगे कि इस भौतिकतावादी और प्रतिस्पर्धा के युग में मनुष्य स्वार्थी एवं आत्म केंद्रित होता जा रहा है। अब उसके आसपास उसे केवल ‘मै’ की गूंज सुनाई देती है।
अधिक से अधिक धन कमाकर एवं सुख सुविधाएं जुटा कर अपने आपको सफल समझने वाला मनुष्य कहीं ना कहीं अकेला है, अपने संघर्षों से जुझने के लिए, अपनी समस्याओं का सामना करने के लिए।
इस ‘मै’ से वशीभूत व्यक्ति को अपनी महत्वाकांक्षों एवं सुख-सुविधाओं के बीच कोई और दिखाई नहीं देता। वह किसी भी कीमत पर अपनी इच्छाओं को पूरा करना चाहता है। चाहे उसे सफल होने के लिये दूसरों के सिर पर पांव रखकर आगे बढ़ना पड़े।
हमारे ऋषि-मुनियों ने भी ‘वसुदेव कुटुंबकम्’ अर्थात् पूरी धरती एक परिवार है इसका पाठ पढ़ाया है। ‘एक अकेला, दो ग्याहरा’ आदि कहावतें भी साथियों का महत्व बताती है।
‘मोबाइल’ और ‘मॉल कल्चर’ मे पल रही युवा पीढ़ी फेस बुक और आभासी दुनिया के साथियों में ही खोई रहती है इसलिए शायद उसकी संवेदनशीलता में कमी आ रही है और वह आत्मकेंद्रित होती जा रही है।
महत्वकांक्षी होना अच्छी बात है और अपनी उन्नति के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहना भी। परन्तु इससे किसी दूसरे को क्षति न पहुँचे यह भी व्यक्ति विशेष का दायित्व है।
आए दिन समाचार पत्रों में दिल दहलाने वाले समाचार पढ़ने को मिलते हैं, जायदाद के लिए भाई ने भाई की हत्या कर दी, प्रेमी ने प्रेमिका के शादी से इंकार कर देने पर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। यहाँ तक कि पालने-पोसने वाले माता-पिता को भी अपने स्वार्थसिद्धी के लिये नहीं बक्शा जाता।
निश्चय ही यह स्थिति समाज एवं देश के लिए घातक है जहाँ स्वार्थ में अंधे मनुष्य को अपने अतिरिक्त किसी की भावनाओं का सम्मान करना नहीं आता।
आज के मनुष्य को “मैं” और “हम” के बीच की बढ़ती दूरियों के विषय में सोचना होगा। केवल अपने ही नहीं औरों के हितों का भी सम्मान करना होगा। दूसरों के हितों को अनदेखा कर उनकी भावनाओं को कुचल कर यदि व्यक्ति को सफलता मिल भी गई तो क्या वह अकेला उस सफलता का जश्न मना पाएगा? अपने सुख-दु:ख एवं दूसरों के सुख-दु:ख में एक दूसरे की भागीदारी अपेक्षित है, इसीलिए “मैं” से “हम” तक के बीच की दूरी जितनी जल्दी मानव तय कर लेगा उतनी जल्दी स्वस्थ समाज एवं विकसित राष्ट्र के सपने को साकार कर पाएगा।
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