यकीन कीजिए मेरा, मौत बहुत अच्छी चीज है। जो आपको जीते जी नहीं मिल पाता वह मरने के बाद मिल जाता है। यह अपने अनुभव से बता रहा हूं। रुकिए रुकिए। आप पूछेंगे मैं मरा कैसे, ये मैं बाद में बताऊंगा। पहले शुरुआत मेरे जीवन से।
मेरी शादी लव मैरेज़ थी। शादी से पहले वह मुझे वैसी ही लगती थी जैसे प्रेम से पगे हुए सभी लड़कों को सभी लड़की लगती है, प्यारी, स्वीट, केयरिंग, और हां, सबसे अलग। जैसी खुद प्यारी थी वैसा ही प्यारा-सा नाम था उसका, श्रेया।
फिर मेरी शादी हो गई। अब मुझे वह वैसी ही लगने लगी जैसे सभी पतियों को अपनी पत्नी लगती है, हेड मास्टर टाइप। लगता है हम फिर से स्कूल या हॉस्टल में आ गए हों। हर समय ये करो वो करो, यह नहीं करो, तुम्हे तो कोई तमीज ही नही है इत्यादि-इत्यादि।
हर मध्यम वर्गीय माता-पिता की तरह मेरे माता-पिता को भी मेरा लव मैरेज़ पसंद नहीं था। वह चाहते थे लड़की अपनी बिरादरी से हो, पढ़ी-लिखी, सुशील, सुसंस्कारी, सुसभ्य टाइप। ये अलग बात है कि मेरी बहनों को भी पता नहीं ऐसी लड़की होती कहां हैं।
हर मध्यम वर्गीय माता-पिता की तरह मेरे सास-ससुर को भी यह शादी पसंद नहीं थी। बेटी को इतना पढ़ाया -लिखाया इसलिए थोड़े ही ना कि केमिस्ट की दुकान में काम करने वाला दामाद मिले। वो तो चाहते थे उनकी बेटी किसी बड़े घर में जाए, वहां राज करे, उसके एक इशारे पर सारी खुशियां उसके सामने हाथ जोड़े आ खड़ी हों। ये अलग बात है कि उनके घर में भी उनकी बेटी अपने हाथों से ही सारा काम करती थी। घर का हर सामान पैसे जोड़-जोड़ कर ही आया था।
पता नहीं आप लोग कैसे संभालते हैं, मैं तो बिल्कुल ही थक गया था इस रोज-रोज के बखेड़े से। दुकान से आकर मां के पास बैठूं तो बीवी नाराज, बीवी के पास बैठूं तो मां नाराज। मां के हाथ का बना खाना चाव से खा लूं तो बीवी गाल फुला लेती। बीवी के हाथ का बना खाता तो मां को लगता था कि जब से बीवी आई है, मां की तो कोई पूछ ही नहीं। सच मानिए मां और पत्नी में संतुलन बनाना बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि तराजू में रख कर मेंढक तौलना। कभी कोई मेंढक इधर से उधर उछल जाता है कभी कोई।
पिता जी के अलग ही किस्से थे। वे चाहते थे मैं पैसे बचा कर रखूं, सारी कमाई तुरंत ही न ‘लुटा’ दूं। मां पिता जी दोनों की नजरों बहू तो पैसे उड़ाती ही थी, उसे समझाने के बदले मैं भी उड़ाने लगा हूं। रोज-रोज बहू न जाने क्या क्या ऑनलाइन ऑर्डर करती रहती हैं। बाहर का खाना रास आता है उसे पर घर का बना नहीं। घर का काम करने में तो उसे मन ही नही लगता है। जब भी घर में रहती है फोन पर ही लगी रहती है। इत्यादि।
श्रेया का तर्क भी अपनी जगह पर सही ही था। सारा दिन ऑफिस में काम कर घर आने के बाद सब उससे उम्मीद करते हैं कि वह घर का सारा काम करे। वह भी तो इंसान है, कोई मशीन नहीं। वह भी थकती है। रिलेक्स होने के लिए टीवी या मोबाइल पर कुछ देख लेती है या किसी से बात कर लेती है तो इसमें कौन सा पहाड़ टूट पड़ता है। इंसान दिन भर मेहनत कर कमाए, थोड़ा-सा जिंदगी के आनंद लेने के लिए बाहर चला जाए या बाहर खाना खा ले तो ये भी लोगों से बर्दाश्त नहीं होता।
मेरी हालत तो एक तरफ कुआं दूसरी तरफ खाई वाली थी। इसलिए चुप ही रहता था। लेकिन मेरे चुप रहने से क्या होता है। एक दिन चेतावनी मिल ही गई। या तो तुम इस घर में माँ-बाप के साथ रह लो या मेरे साथ चलो। पिता जी ने भी कहा कि रोज-रोज के झगड़े से अच्छा है तुम इसे लेकर कहीं चले जाओ। माँ ने भी उनसे सहमति दिखाई।

उस दिन से मैं और श्रेया एक अलग फ्लैट लेकर रहने लगे। माँ-पिताजी जी ने कह तो दिया कि अलग हो जाओ लेकिन उनके मन में तीन बातें खटक रही थी। बेटा पत्नी के साथ हम सबसे अलग हो गया, हम से ज्यादा पत्नी का ही महत्त्व है उसकी नजरों में। दूसरा, बहू पढ़ी लिखी है, कहीं केस कर हमारी संपत्ति में से हिस्सा न मांगने लग जाए। बेटा भी उसका विरोध नहीं कर पाएगा। तीसरा, बहू कहीं केस कर हम सबको फंसा न दे। लोगों ने भी उनके इन अंदेशों को बढ़ाया। तो इसलिए उन्होने फैसला ले लिया कि मुझे घर सहित अपनी तमाम संपत्ति से बेदखल कर देंगे और मुझ से कोई संबंध नहीं रखेंगे। अखबार में नोटिस देकर उन्होने मुझे बेदखल कर मुझ से सभी संबंध कानूनी रूप से खत्म कर लिया। अगर कभी मैं मिलने भी चला जाता तब उनके अंतहीन शिकायतें शुरू हो जाती थी। वे मुझ से कुछ पैसों की भी उम्मीद करते थे लेकिन मेरे पास पैसे बचते ही नहीं थे इसलिए चाह कर भी नहीं दे पाता।
इधर जब से मैं और श्रेया अलग फ्लैट में रहने लगे तब कुछ दिन तक तो सब ठीक रहा। श्रेया ने सारे घर को अपने हिसाब से सजाया संवारा। उसके सारे पैसे इन चीजों में ही खत्म हो गए और मेरे पैसे श्रेया की जरूरते पूरी करने में। फिर धीरे धीरे उसका मुझे निर्देश देना बढ़ने लगा। तुम्हें तो कोई तमीज नहीं है, तुम्हारा ड्रेसिंग कितना घटिया है, ये क्या रंग तुमने पहन लिया है, ये कैसी शर्ट पहन कर आज तुम मेरे दोस्तों के सामने आ गए थे, ये हेयर स्टाइल सही नहीं है, इत्यादि। जल्दी घर नहीं आ सकते तुम, मैं शाम से अकेले घर में क्या करूँ? मैं समझाना चाहता था कि तुम्हारा ऑफिस 9 बजे से शुरू होता है और शाम 6 बजे खत्म हो जाता है इसलिए तुम 7 बजे आ जाती हो। लेकिन मेरी दुकान तो सुबह 11 बजे खुलता है तो बंद भी 10 बजे रात के बाद होता है। लेकिन उसका जवाब होता था तो छोड़ दो यह नौकरी कोई दूसरी नौकरी कर लो। ये कैसा काम है रविवार की छुट्टी भी नहीं होती है। उसका ऑफिस रविवार को बंद रहता था और मेरी दुकान सोमवार को। हमारे मार्केट में सभी दुकानें रविवार को खुली होती थी क्योंकि रविवार को ही ज़्यादातर लोगों की छुट्टी होती थी और वे खरीददारी करते थे।
दिन भर दुकान में खड़े-खड़े थक कर जब रात को घर आता तब शिकायतों और फर्माइशों का बाजार लगा मिलता था। मैं कभी-कभी झुँझला उठता। एक दिन फिर नोटिस मिल गया। “अब हम साथ नहीं रह सकते। हमें अब तलाक ले लेना चाहिए।” मैं भी रोज-रोज के झगड़ों से तंग आ गया था। इसलिए तैयार हो गया। लेकिन अगली शर्त यह थी कि तलाक के लिए दस लाख रुपए मैं उसे दूँ। अजीब रिश्ता है ये शादी भी। रिश्ता बनाने की कीमत होती है, रिश्ता निभाने की कीमत होती है और रिश्ता खत्म करने की भी कीमत होती है। पर इतना पैसे तो थे नहीं मेरे पास। इसलिए श्रेया ने कोर्ट में तलाक के लिए मुकदमा दायर कर दिया।
चलिए अब मैं बताता हूँ कि मैं मरा कैसे। श्रेया से अलग होने के बाद मैंने एक अलग छोटा-सा कमरा लिया और वहीं रहने लगा। बड़ी तंग और भीड़भाड़ वाला मोहल्ला था वह। सस्ते में वहाँ कमरा मिला था इसलिए लिया ताकि पैसे बचा कर कर्जा चुका सकूँ और एक छोटा सा घर खरीद सकूँ। और फिर श्रेया को भी तो कुछ पैसा देना ही होता, जैसा कि वकील ने कहा था। एक दिन सुबह जब मैं कमरे से दुकान पर जा रहा था तब एक कार ने मेरे स्कूटर को टक्कर मार दी। लेकिन मैं उससे नहीं मरा। कार के टक्कर से मैं सड़क के बीच में जा गिरा। तभी एक तेज चलती बस मेरे ऊपर से गुजर गई।
कानून के अनुसार उस बस वाले और कार वाले दोनों को मेरी मृत्यु के लिए जिम्मेदार मानते हुए मुआवजा देना था। दोनों की बीमा कंपनी इसके लिए राजी भी हो गई। लेकिन अब समस्या यह हुई कि यह मुआवजा किसे दिया जाय- मेरी पत्नी को या मेरे पिता को। आखिरकार मेरे मुआवजा का केस कोर्ट में पहुंचा।
कोर्ट का दृश्य बहुत मजेदार था। काश आप वहाँ होते और देखते मेरे पिता और पत्नी की सूरत। मेरे पिता जज से कह रहे थे ‘वह मेरा बेटा था। मैंने उसे जन्म दिया, पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया। ….इस दुर्घटना ने मेरा लाल मुझ से छीन लिया। ….. पत्नी के साथ तो तलाक का केस चल रहा था उसका….यह उसे छोड़ कर चली गई थी……… अब मुआवजा का रकम लेने आई है। इस रकम पर इसका कोई हक नहीं है। यह हमे दिया जाय।’
दूसरी तरह पत्नी रुआंसी होकर कह रही थी … जज साहब! हमारी लव मैरेज थी। मैंने उनके लिए अपने घर परिवार तक तो छोड़ दिया। …….. सास-ससुर इस शादी से खुश नहीं थे इसलिए हम दोनों को घर से निकाल दिया। इन्होने अपने बेटे को कानूनी रूप से बेदखल कर दिया है। जब इनके संपत्ति पर बेटे का अधिकार नहीं है तब बेटे की संपत्ति पर इन लोगों का अधिकार कैसे हो सकता है……. मुआवजा की रकम पर इनलोगों का कोई अधिकार नहीं है।
जज साहब किसे और कैसे पैसा देंगे यह तो मैं नहीं जानता। पर मौत कितना फायदेमंद होता है यह तो मैंने देख लिया। कोर्ट में यह सब देख कर मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था। जब तक जिंदा था तब तक ‘तुम्हारा पति’ ‘तुम्हारा बेटा’ था। आज ‘मेरा पति’ ‘मेरा बेटा’ बन गया। पत्नी मुझ से 10 लाख मांग रही थी तलाक के लिए जो मैं उसे नहीं दे पाया लेकिन मेरे मौत की कीमत 20 लाख हो गई थी। मैं जीते जी अच्छा बेटा नहीं बन पाया क्योंकि माता-पिता को पैसे नहीं दे पाता था। पर, आज मरने के बाद शायद अच्छा बेटा बन जाऊँ।
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लघुकथा
समझाइश
टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”
व्याख्याता (अंग्रेजी)
घोटिया-बालोद (छत्तीसगढ़)
“इतने दिनों से मैं तुम्हें समझा रही थी; बात समझ नहीं आ रही थी? मेरे तन को खोखला तो कर डाला। मैंने तुम्हारे लिए कितना कष्ट सहा! दुःख सहा! कितनी पीड़ा हुई है मुझे! मैं ही जानता हूँ।”
“लेकिन आपने मुझे कभी क्यों नहीं दुत्कारा? क्यों नहीं भगाया मुझे? मेरे प्रति स्नेह व अपनतत्व क्यों जताया? आज बहुत रोना आ रहा है मुझे अपनी हालत पर।”
“मैंने कई बार तुम्हें अवगत कराया कि किसी को कष्ट पहुँचाकर मिला सुख लम्बी अवधि तक नहीं टिकता। शायद तुम यही सोचते रहे कि मेरे करीब रहकर तुम्हारा जीवन ठसके के साथ बीत जाएगा। जीवन भर तुम्हें कुछ करना ही नहीं पड़ेगा। तुम्हारी यह बहुत बड़ी भूल थी। हरेक को स्वयं के लिए जीवन में कुछ न कुछ करना ही पड़ता है। अब रही बात अपनतत्व की; तो भला मैं कब किसके प्रति अपनत्व नहीं रखता?”
“अब मैं क्या करूँ… क्या न करूँ…? मुझे कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है। मैं भाग भी तो नहीं सकता। मेरा अंत अब तो निश्चित है। सम्भव हो तो मुझे क्षमा कर देना।”
चुल्हे में जलती हुई लकड़ी की बातें सुन दूसरे छोर में लगे घुन (वुड वॉर्म) अपना सिर धुन रहा था।
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