एक फिल्म अभिनेता के हालिया निधन ने सोशल मीडिया पर तूफान ला दिया है। हर कोई बस पोस्ट कर रहा है। लोग इस तरह बातें कर रहें हैं जैसे वे अपने दोस्तों और रिश्तेदारों का कितना ध्यान रखते हैं और जरूरत के समय उनके लिए उपलब्ध होते हैं। लेकिन सच बात तो यह है कि मानसिक बीमारी या परेशानी की हालत में हम कई बार जब तक अपनों के लिए उपलब्ध होते हैं या इसे समझते हैं तब तक देर हो चुकी होती है।

इसका एक कारण यह है कि हम किसी की भावनाओं को तब तक अनुभव नहीं करते हैं जब तक कि हमने स्वयं इसका अनुभव न किया हो। हम व्यक्ति के चेहरे की मुस्कुराहट को देखते हैं। इसके पीछे छिपी पीड़ा तक हमारी दृष्टि नहीं जा पाती है। इसीलिए हम में से बहुत से लोग एक झूठी मुस्कुराहट के साथ अपने को एक जोशीले व्यक्ति के रूप में प्रकट करते हैं।
इसका कारण है हमारी कुछ पूर्व धारणाएँ। हमें यह कभी नहीं बताया गया है कि जितना मुस्कुराहट हमारे लिए महत्वपूर्ण है उतना ही रोना। रोना कमजोर होने की निशानी नहीं है। हम में से सभी, जो अपने को मानसिक रूप से बहुत मजबूत समझते हैं, के जीवन में भी ऐसे कमजोर क्षण आ जाते हैं, जब हम रोते हैं या रोना चाहते हैं। हमें इन कमजोर और मजबूत दोनों क्षणों में हमारे अपनों की भावनाओं को भी उतना ही समझना चाहिए जितना हम अपनी भावनाओं को समझते हैं। रोना कमजोरी नहीं बल्कि अपनी एक विशेष प्रकार की भावनाओं को अभिव्यक्त करने का एक साधारण तरीका है। इसलिए इसे छुपाने की जरूरत नहीं है। “मर्द को दर्द नहीं होता” या “अरे बच्चों की तरह रोते हो” जैसी बातें मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा नहीं है। कई बार तो हम अपनी पीड़ा को अपने में इस तरह समेट लेते है कि अपने अंधेरे समय में भी इसे प्रकट नहीं करते। भय इस बात का होता है कि कहीं हमे कमजोर न समझ लिया जाय। अपनी पीड़ा को खुलकर प्रकट करना और दूसरों की पीड़ा को स्वीकार करना, यह मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत ही जरूरी है। वास्तव में लोग कमजोर नहीं होते। हाँ, उनके पास कमजोर क्षण हो सकते हैं जहाँ वे अपने को निराश, असहाय, असुरक्षित, व्यर्थ, और दूसरों पर एक बोझ आदि महसूस कर सकते हैं। कोई भी दुखी होने का विकल्प नहीं चुनता। हम में से कई लोग उनकी “कायर” के रूप में पहचान कर सकते हैं। लेकिन एक बार हमें खुद से सवाल करना चाहिए कि क्या हम कभी इस तरह की मनःस्थिति से नहीं गुजरे हैं। हाँ, मात्रा कम या ज्यादा रहा होगा।
व्यक्ति को हमेशा यह साबित करने के लिए रोने की जरूरत नहीं होती हैं कि वह मानसिक शांति की स्थिति में नहीं है। हमें अपने और अन्य व्यक्तियों की पीड़ाओं और उसकी अभिव्यक्ति के प्रति अधिक संवेदनशील और विचारशील होने की जरूरत है। सही-गलत के लिए निर्णायक बनने की नहीं।
अगर हम वर्चुअल दुनिया के बदले अपने वास्तविक दुनिया के लोगों की वास्तविक पीड़ाओं के प्रति जागरूक और संवेदनशील हो जाएँगे, तो दुर्घटनाओं से पहले भी हम उनकी पुकार सुन सकेंगे। हमे उनकी पीड़ा समझने के लिए किसी दुर्घटना की प्रतीक्षा नहीं करनी होगी। एक खोखली संवेदना के बदले हम वास्तविक भावनाओं को साझा कर पाएँगे और पीड़ा को समझ पाएँगे, भले ही यह हमारी हो या किसी अन्य की।