एक समय की बात है, एक व्यापारी का पुत्र बहुत कम उम्र में ही व्यापार करने के लिए अफगानिस्तान चला गया। वहाँ रहते रहते वह स्वाभाविक रूप से वहीं की भाषा और संस्कृति में रम गया। अपनी मूल भाषा की उसे याद नहीं रही। बहुत वर्षों बाद वह अपने परिजनों से मिलने अपने देश लौटा। यहाँ आकर वह बीमार हो गया। इतना बीमार कि उसने खटिया पकड़ ली। एक बार उसे प्यास लगी। कमजोरी के कारण वह उठ भी नहीं पा रहा था। वह लोगों से ‘आब’ माँगता था लेकिन लोग समझ नहीं पाते थे कि उसे क्या चाहिए। माँ-बाप, रिश्तेदार, पड़ोसी सब कोशिश कर थक गए। वह लड़का एक ही रट लगाए रहा ‘आब’ ‘आब’। लोग अलग-अलग चीजें लाकर देते लेकिन वह उन सबको मना कर देता था। ऐसे करते-करते ही एक दिन उसकी मृत्यु हो गई। सब लोग परेशान कि उसकी आखिरी इच्छा भी पूरी नहीं कर पाए। एक दिन उस गाँव में काबुल का एक व्यापारी आया। उनसे लोगों ने ‘आब’ के विषय में पूछा तब पता चला कि इसका अर्थ ‘पानी’ होता है। तभी से एक कहावत चल पड़ी कि ‘काबुल गए मुगल बनि आए, भूले अपनी बानी। आब-आब कर पूता मर गए, खटिया के नीचे पानी।’
बचपन में सुनी यह कहानी सच्ची है या झूठी, यह तो मुझे नहीं पता। लेकिन इतना जरूर है भाषा केवल एक किताब या व्याकरण नहीं होती बल्कि यह एक बर्तन की तरह होती है जिसमें उस प्रदेश की संस्कृति, इतिहास, भूगोल, अर्थ तंत्र आदि सब समाहित होते हैं। यही कारण है कि हर भाषा के अपने शब्द, मुहावरे, वाक्यांश, हंसी-मज़ाक, आदि होते हैं जो सबसे अच्छे रूप से उसी भाषा में अभिव्यक्त हो सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहे तो मानव के रूप में हमने जो कुछ भी उपलब्धि हासिल की होती है वह इसमें समाहित होता है। यही तो अंतर होता है भाषा और अभिव्यक्ति में। अभिव्यक्ति तो पशु-पक्षी भी कर लेते हैं।
भाषा जीवित लोगों के लिए होती है, इसलिए वह भी जीवित होती है। उसमें भी समय के साथ परिवर्तन होते रहना और अन्य भाषाओं से आदान-प्रदान जरूरी है नहीं तो स्थिर पानी की तरह यह भी खराब हो जाएगा।
वर्तमान में संस्कृतियों के अधिक मिलन और तकनीक के कारण बहुत सारी भाषाएँ, बोलियाँ और लिपियाँ सिमटती जा रहीं है। हालांकि यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और पहले भी बहुत सी भाषाएँ लुप्त हो चुकी हैं या हाशिये पर चली गईं हैं। किलाक्षरी, खरोष्ठी, प्राकृत, पालि, आदि अनेक भाषाएँ और लिपियाँ जो कभी संवाद, साहित्य और प्रशासन की मुख्य माध्यम थीं, हाशिये पर जाती गईं और उनका स्थान दूसरी भाषा और लिपि ने ले लिया। लेकिन वर्तमान में यह गति चिंताजनक रूप से तेज हो गई है। एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में 5000 से 7000 भाषाएँ हैं। इनमें से लगभग से 3500 भाषाएँ विलुप्त होने के कगार पर हैं। दुनिया की 70% आबादी केवल 23 भाषा बोलती है।
यह क्यों चिंताजनक है? एक भाषा अगर लुप्त हो जाती है तो उसकी जगह पर दूसरी भाषा आ जाती है जिसे लोग सुविधाजनक रूप से अपना चुके होते हैं। पर यह चिंताजनक इसलिए है कि भाषा के साथ पीढ़ियों का ज्ञान और अनुभव भी हमेशा के लिए लुप्त हो जाता है।
मानसून आधारित कृषि प्रधान भारत देश में घाघ और भड़ुरी के दोहे में कृषि का जो अनुभावजनित ज्ञान है, वह क्या रेगिस्तान या बर्फीले क्षेत्र की संस्कृतियाँ समझ पाएँगी? ‘गाय’ का भारतीय अर्थ व्यवस्था और संस्कृति पर जो प्रभाव है वह ‘गोत्र’, ‘गोष्ठी’, ‘गोहन’, ‘गोचर’ जैसे अनगिनत शब्दों से परिलक्षित होता है। ‘माँ’, ‘मासी’ ‘मामा’ ‘पित्र’ ‘पितामह’ जैसे अनेक रिश्तों को संयुक्त विस्तारित परिवार में रहने वाले ही जान सकते हैं। ‘सावन का अंधा’, ‘वैशाख का गदहा’, ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’, जैसे देशज मुहावरों, ‘चल बसना’ ‘जा बसना’ ‘चल देना’ ‘चाल चलना’ ‘अवकाश ग्रहण करना’ ‘अवकाश लेना’ जैसे देशज वाक्यांशों का सौन्दर्य अनुवाद में नहीं आ पाएगा।
इसीलिए आधुनिक हिन्दी के पितामह कहे जाने वाले भारतेन्दु जब कहते हैं ‘निज भाषा की उन्नति अहै सब उन्नति के मूल’ तो शायद उनका संकेत यही होता है कि अपनी समस्या और उसका समाधान अपनी भाषा में ही सबसे अच्छे से हो सकता है क्योंकि पीढ़ियों का ज्ञान, विज्ञान और अनुभव हमारे साथ हो जाते हैं।