हमारी लोक संस्कृति में तो रूठे हुओं को ही नहीं बिना रूठे हुओं को भी मनाने का विधान है। मकर संक्रांति का दिन हमारे पूरे देश में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। उत्तर भारत में ही नहीं दक्षिण भारत तथा देश के दूर-दराज के क्षेत्रों में भी यह बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है बेशक इसके मनाने के तरीके अलग-अलग हों। उत्तर भारत में विशेष रूप से हरियाणा में मकर संक्रांति के दिन घर के बड़े-बूढ़ों को मनाने का रिवाज है।

पीतमपुरा, दिल्ली
हरियाणा में इस आयोजन अथवा उत्सव को सकराँत या सँकराँत कहते हैं। बड़े-बूढ़ों को मनाने का ये कार्य घर की महिलाएँ विशेष रूप से नई बहुएँ करती हैं। मुख्यतः अपने सास-ससुर, जेठ-जेठानियों और ननदों को मनाने का रिवाज है। कई जगह घर-कुनबे के दूसरे परिवारों के सदस्यों को भी मनाया जाता है। इसमें किसी रूठे हुए को नहीं मनाया जाता अपितु ये एक प्रतीकात्मक आयोजन होता है। यह हमारी लोक संस्कृति की विशिष्टता ही है जिसमें रूठे हुओं को ही नहीं बिना रूठे हुओं को भी मनाने का विधान है। बिना रूठे हुओं को मनाने के आयोजन का कोई महत्त्वपूर्ण प्रयोजन ही होगा इसमें संदेह नहीं।
मकर संक्रांति अथवा सकराँत के दिन जिनको मनाया जाना होता है वे घर से दूर किसी सार्वजनिक स्थान पर अथवा खेतों आदि में चले जाते हैं। उनको मनाने के लिए मनाने वाली वहीं पहुँच जाती है। कई महिलाएँ इकट्ठी होकर समूह में गीत गाती हुई उस स्थान तक जाती हैं और मनाए जाने वालों को उपहार आदि देने के बाद मनाकर अपने साथ घर ले आती हैं। उपहारों में प्रायः कपड़े और मिठाइयाँ होती हैं। मौसम को देखते हुए महिलाओं को शॉल और पुरुषों को कंबल भी उपहारस्वरूप दिए जाते हैं। घर के सदस्यों को छोड़िए घर में तथा बाहर काम करने वाले मददगारों तक को उपहार दिए जाते हैं। इस दिन पशुओं को भी विशेष चारा डाला जाता है। कुत्तों तक को हलवा बनाकर खिलाने की परंपरा है। इस दिन खिचड़ी का दान दिया जाता है और घर के सदस्यों के लिए भी खिचड़ी बनाई जाती है जिसे खूब घी डालकर खाया जाता है।
वैसे तो खिचड़ी वैचारिक विभिन्नता का प्रतीक है लेकिन पकने के बाद उसमें समरसता आ जाती है। हाँ घी खिचड़ी होना एक मुहावरा है जिसका अर्थ है आपस में बहुत मेल होना या एकरूप व सामंजस्यपूर्ण होना। खिचड़ी में घी डालने के बाद दोनों को मिलाने पर घी उसमें इतनी अच्छी तरह से मिल जाता है कि वो दिखलाई ही नहीं पड़ता लेकिन इससे खिचड़ी का स्वाद कई गुना बढ़ जाता है। मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी बनाने और घी-खिचड़ी खाने-खिलाने का यही निहितार्थ है कि परिवार के सभी सदस्य घी- खिचड़ी की तरह मिलकर इस तरह रहें कि घर में सौहार्दपूर्ण वातावरण बना रहे। लेकिन ये तभी संभव है जब सभी अपने बड़ों का आदर और छोटों से प्रेम करें और परस्पर एक दूसरे की भावनाओं का ध्यान रखें। किसी के नाराज हो जाने या रूठ जाने पर फौरन उसे मना लें।
घर के सदस्यों से घर के बुजुर्गों व अन्य सदस्यों के प्रति कोई गलती हो सकती है जिससें वे नाराज हो सकते हैं। यह नाराजगी रूठने के रूप में प्रत्यक्ष भी हो सकती है और अप्रत्यक्ष भी। किसी के रूठने पर तो नाराजगी जाहिर हो जाती है लेकिन न रूठने पर नाराजगी जाहिर भी नहीं होती। इस आयोजन का उद्देश्य यही है कि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से घर का कोई भी सदस्य विशेष रूप से बड़े-बुजुर्ग नाराज न रहें। वे प्रसन्नचित्त व स्वस्थ रहें। वे स्वयं को उपेक्षित नहीं सम्मानित अनुभव करते रहें। मनाना क्रिया स्वयं में एक उत्सव का प्रतीक है। हम सभी त्यौहारों को मनाते ही तो हैं। यदि मनुष्य को मनाने की बात करें तो इसका भी यही अर्थ होगा कि उसके जीवन में उत्सव जैसा आनंद उत्पन्न करना। किसी रूठे हुए बच्चे को मनाना हो अथवा प्रेमी-प्रेमिका को मनाना यह जीवन का एक बेहद खूबसूरत अहसास होता है। जो रूठों को मनाने को महत्त्वपूर्ण नहीं समझते या रूठों को मनाने की कला नहीं जानते अथवा रूठों को मनाने का प्रयास ही नहीं करते वे जीवन में महत्त्वपूर्ण अनुभूतियों से वंचित रह जाते हैं।

जब किसी के रूठा हुआ होने की संभावना या कल्पना मात्र से उसे मनाना उत्सव का रूप ले सकता है तो वास्तव में किसी रूठे हुए को मनाना कितना महत्त्वपूर्ण होगा इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। जिन लोगों से हम प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए होते हैं उनकी नाराजगी हमारे लिए किसी भी तरह से उचित नहीं होती। माता-पिता हों, भाई-बहन हों, बच्चे हों अथवा मित्र, सहकर्मी या सगे-संबंधी हों रूठ जाने पर उनके रूठने का कारण जानकर उसे दूरकर उन्हें मना लेना अनिवार्य होता है। एक नियोक्ता के लिए अपने कर्मचारियों को और एक कर्मचारी के लिए अपने नियोक्ता की नाराजगी को दूर करना अथवा रूठने पर उन्हें मना लेना दोनों ही पक्षों के हित में होता है। इसी प्रकार से जो हमारे सहायक अथवा मददगार होते हैं उनकी नाराजगी का ध्यान रखना भी ज़रूरी होता है। कहने का तात्पर्य यही है कि रूठने वाला कोई भी क्यों न हो उसे मनाना अनिवार्य है। अपने प्रियतम अथवा प्रियतमा या पति अथवा पत्नी के रूठने पर उसे न मनाने की भूल तो किसी भी कीमत पर नहीं की जानी चाहिए क्योंकि इस प्रकार की भूल जीवन को नीरस बना देती है, जीवन का सर्वनाश कर सकती है।
जीवन में गलतियाँ और गलतफहमियाँ दोनों का होना स्वाभाविक है अतः रूठना और मनना-मनाना भी जीवन का स्वाभाविक क्रम है। रूठना और मनना-मनाना ये विपरीतार्थक नहीं अपितु पूरक शब्द हैं। इसके बिना जीवन की गाड़ी चल ही नहीं सकती लेकिन रूठने और मनने-मनाने की एक सीमा होती है। सभी समझदार लोग रूठे हुओं को फौरन और बार-बार मनाने की सलाह देते हैं। रहीम कहते हैं:
रूठे सुजन मनाइए जो रूठें सौ बार, रहिमन फिरि-फिरि पौहिए टूटे मुक्ताहार।
यदि कोई सुजन अर्थात् हमारा कोई स्वजन, कोई प्रिय अथवा कोई अच्छा व्यक्ति हमसे रूठ जाए तो उसे हमेशा ही मना लेना चाहिए चाहे वो सौ बार अर्थात् बार-बार ही क्यों न रूठता हो। रहीम कहते हैं कि यदि मुक्ताहार अर्थात् मोतियों का हार टूट कर बिखर जाए तो उसके मोतियों को फिर से धागे में पिरो लेना चाहिए। यदि हम टूटे हुए मुक्ताहार अर्थात् बिखरे हुए मोतियों को दोबारा धागे में पिरो लेंगे तो वो पहले की तरह ही उपयोगी और सुंदर हो जाएगा जिससे आसानी से उसे पहन सकेंगे अन्यथा मोती इधर-उधर बिखरकर महत्त्वहीन हो जाएँगे अथवा खो जाएँगे। उनकी आब भी जा सकती है। जिस तरह मोती जब तक एक सूत्र में गुँथे रहते हैं तभी तक उपयोगी रहते हैं उसी प्रकार से जब तक संबंध भी मधुर और आत्मीय रहते हैं तभी तक उनका महत्त्व है।
हमारे संबंध भी मुक्ताहार की तरह ही क़ीमती और महत्त्वपूर्ण होते हैं इसलिए उन्हें हर हाल में टूटने से बचाना चाहिए और संबंध टूट जाने के बाद फौरन उन्हें सुधारने अथवा रूठे हुओं को मनाने का प्रयास करना चाहिए ताकि संबंधों की सार्थकता बनी रहे।
टूटे अथवा बिखरे हुए संबंध अनुपयोगी हो जाते हैं। अच्छे संबंध हमारा पोषण और विकास करते हैं जबकि ख़राब संबंध हमारे स्वास्थ्य के लिए घातक और हमारी उन्नति में बाधक होते हैं। यदि हम अपने रूठे हुए स्वजनों अथवा प्रियपात्र को नहीं मनाएँगे तो इसका दुष्प्रभाव ही हमारे जीवन पर पड़ेगा। यदि हमारा कोई प्रिय हमसे रूठ जाता है तो हमें भी अच्छा नहीं लगता। हम भी बेचैन हो जाते हैं और जब तक सामनेवाला मान नहीं जाता हम मानसिक रूप से उद्विग्न रहते हैं। रूठा हुआ व्यक्ति अथवा हम स्वयं कई बार कुछ ऐसा कर गुज़रते है जो दोनों के लिए ही ठीक नहीं होता। इसलिए यह अनिवार्य है कि रूठे हुए को फौरन मानाया जाए। ये हमारे हित में ही होगा। फिर भी यदि हम उसे नहीं मनाते या मनाने का प्रयास नहीं करते हैं तो इसका अर्थ है कि हममें आत्मीयता अथवा प्रेम का अभाव है या फिर अहंकारवश ऐसा नहीं कर रहे हैं।
रूठे हुए स्वजनों अथवा प्रियपात्र को फौरन मनाने का अर्थ है कि हम न केवल उससे अगाध प्रेम करते हैं अपितु हम पूर्णतः निरंहकार भी हैं। प्रायः अहंकार, उपेक्षा अथवा स्वार्थ के कारण ही हमारे संबंध खराब होते हैं। जब कोई उपेक्षित अनुभव करता है तभी वह दुखी होता है अथवा रूठता है। जब हम रूठे हुए को फौरन मना लेते हैं तो सामनेवाले की ये गलतफहमी भी फौरन ही दूर हो जाती है कि उसकी उपेक्षा की गई थी।
यदि हमसे कोई ग़लती हो गई हो तो उसे स्वीकार कर क्षमा माँगी जा सकती है। ऐसा करेंगे तो सामनेवाला न केवल अपने अमर्ष का त्याग कर देगा अपितु ऐसे में संबंध और अधिक प्रगाढ़ हो जाएँगे इसमें संदेह नहीं। जब लंबे समय तक रूठना चलता है तो दोनों तरफ से बहुत सी ग़लतफहमियाँ बढ़ती चली जाती हैं जिन्हें बाद में दूर करना मुश्किल हो जाता है। अच्छे लोगों को नहीं मनाएँगे तो उनके मार्गदर्शन व उनकी संगति से होने वाले लाभों से वंचित रह जाएँगे अतः रूठे हुए अच्छे व्यक्तियों को मनाना भी हमारे स्वयं के हित में ही होगा।
प्रेम मनुष्य के जीवन में उतना ही अनिवार्य और उपयोगी है जितना साँस लेना। प्रेम के अभाव में मनुष्य जी ही नहीं सकता। प्रेम का अभाव मनुष्य को हैवान और शैतान बना सकता है। प्रेम के अभाव में अनेक मनोग्रंथियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। इसी से मानसिक रुग्णता के साथ-साथ दैहिक व्याधियाँ भी व्याप्त हो जाती हैं। इन सबसे बचने के लिए अपने प्रियतम की संगति, उसका स्पर्श और साहचर्य अनिवार्य है। एक रूठे हुए प्रियतम से इन सबकी अपेक्षा असंभव है। प्रियतम की संगति, स्पर्श व साहचर्य तभी आनंददायक हो सकता है जब वह हर तरह से प्रसन्न हो। एक रूठे हुए प्रेमी से प्रेम करना या प्रेम पाना असंभव है। एक रूठे हुए प्रेमी को मनाने की प्रक्रिया भी प्रेम का ही एक रूप है। जब तक यह प्रक्रिया प्रारंभ नहीं होती साँस लेना तक मुहाल हो जाता है।
समग्र रूप से सृष्टि के विस्तार के लिए और व्यक्तिगत रूप से मनुष्य के जीवन को सार्थकता प्रदान करने के लिए रूठे हुए प्रियतम को मनाना सबसे महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य है। यही कारण है कि हमारी लोक संस्कृति में रूठे हुओं को ही नहीं बिना रूठे हुओं को भी मनाने की परंपरा का विकास हुआ।
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