चौरासी वर्ष की आयु में एक ऐसा साहित्यकार जिन्होंने भोजपुरी में ‘करुनाकर रामायन’ (करुणाकर रामायण) सहित भोजपुरी और हिन्दी में कई ग्रंथों की रचना की है। उनकी लेखनी आज भी सतत् क्रियाशील है।

पं. व्रतराज दुबे “विकल” की रचनाएँ साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग, नवराष्ट्र, अँजोर, भोजपुरी माटी, जयभोजपुरी, आखर ग्रुप सहित आकाशवाणी पटना से भी प्रकाशित/प्रसारित हुई है। इसके अलावा उनकी प्रकाशित पुस्तकों में दोहा दरबार, आस के दिअरी (दोहावली), केकई माई, उरमिला, बैदेही बियाह, बहरिआवल बहू (सभी खंडकाव्य) तथा भोजपुरी में अनुवादित ग्रंथ श्री दुर्गासप्तशती, श्रीमद्भगवदगीता व रासपंचअध्यायी आदि हैं।
उनसे सेलेब्रेटिंग लाइफ पत्रिका की तरफ से इसके उप-संपादक मनोज कुमार जी ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के ऐसे समस्त जाने-अनजाने पहलुओं को जानने का प्रयास किया जो पाठकों के लिए काफी रोचक एवं प्रेरणादायी सिद्ध होगा।
से.ला.प.: आपने अपनी लेखनी के माध्यम से बहुत से लोगों को प्रेरणा दिया है। अपनी इस लेखन यात्रा के आरंभ के बारें में कुछ बतायें।
श्री व्रतराज:
प्रश्न ही जहान है, आदमी नादान है।
उत्तर वह क्या देगा, जो खुद से अंजान है।।
हम जो कहते हैं, सब झूठा है।
सही को बताने वाला केवल भगवान है।।
मेरी काव्य यात्रा बचपन से ही प्रारम्भ है। महाविद्यालय में आने पर इसमें निखार आना प्रारम्भ हुआ। 1955 में स्थापित जानकी कुँअर महाविद्यालय के प्रथम बैच का मैं विद्यार्थी बना। उस विद्यालय की प्रथम पत्रिका में मेरी पहली कहानी ‘नानी की कहानी’ छपी। फिर मेरी काव्यधारा में एक विचित्र मोड़ आया जिसका वर्णन एक रोचक उपन्यास है। मैं एक फिल्मी असफल कलाकार के चक्कर में पाँच फिल्मों की कहानी, संवाद और संगीत के साथ 1957 में बम्बई गया लेकिन किस्मत ने साथ नहीं दिया और चकोड़ों के चक्कर में सबकुछ गँवा कर घर लौट आया।
फिर मेरी साहित्यिक यात्रा ने मोड़ ले लिया और मैं नवराष्ट्र, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग, अँजोर, भोजपुरी माटी, पूर्वांकुर, कविता, पराग, भोजपुरी विश्व आदि अनेक पत्रिकाओं में छपता आ रहा हूँ। समुचित काव्यगुरू के अभाव में मैंने हनुमान जी को ही अपना गुरु मान लिया जिन्होंने मेरी काव्ययात्रा को अध्यात्म की ओर मोड़ दिया है।
से.ला.प.: चौरासी साल की उम्र में भी आप एक युवा जैसे ऊर्जा के साथ लेखन कार्य में लगे हैं और इस बात का प्रमाण दे रहे हैं कि रचनाकार कभी वृद्ध नहीं होता, कभी सेवानिवृत नहीं होता। इस ऊर्जा के लिए आपके प्रेरणास्रोत क्या हैं?
श्री व्रतराज: मैं शरीर से चौरासी वर्ष का वृद्ध हूँ। परन्तु आत्मा से 34 वर्ष का जवान हूँ। मेरी ऊर्जा के स्रोत स्वयं श्री हनुमान जी हैं। इच्छा आदमी की उलझन है, जिसे संकल्प शक्ति से सुलझाया जा सकता है। हनुमान जी ने ही मुझे रस, आनंद और माधुर्य स्वरूप राम तत्व से परिचय कराकर मुझे राममय बना दिया है।
से.ला.प.: आपने भोजपुरी में रामायण (रामायन) की रचना की है। अपने इस रामायण के बारे में हमें कुछ बतायें।

श्री व्रतराज: भोजपुरी में रामायन (रामायण) लिखने की प्रेरणा में ही रामायण की विशेषता सन्निहित है। यह रामायण, अध्यात्म रामायण, वाल्मीकि रामायण, तुलसीकृत तथा कुछ अन्य रामायणों का सार है जिसमें सभी विवादों का निराकरण करके परोसा गया है। संभवतः इसके पढ़ लेने पर मन की सभी शंकाओं का समाधान सहज ही प्राप्त हो जायेगा तथा बहुत सी नई जानकारियाँ भी प्राप्त हो जायेगी।
से.ला.प.: अपने समाज में साधारणतः लोग नौकरी से सेवानिवृत होने के बाद या 60-65 के बाद अपने को वृद्ध मानकर निष्क्रिय जीवन शैली अपनाने लगते हैं। ऐसे लोगों के लिए आप प्रेरणास्रोत हैं। 60 वर्ष की उम्र के बाद जीवन कैसे जिया जाय, आप इस पर हमारे पाठकों को कुछ सुझाव देना चाहेंगे?
श्री व्रतराज: हमारे धर्मशास्त्रों में मानव के चार आश्रम बताये गये हैं। ये हैं- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ वानप्रस्थ और संन्यास। 60 वर्ष की अवस्था वानप्रस्थ की अवस्था होती है। वानप्रस्थ त्याग की अवस्था है। इसमें अपनी सारी जवाबदेहियों का त्याग कर परमात्मा के चिन्तन में लग जाना चाहिए तथा 75 के बाद संसार से विमुख होकर भगवान में समर्पित हो जाना चाहिए। भगवान में समर्पण के बाद भगवान उस आदमी का सारा भार स्वयं वहन करते हैं। यह मेरे अनुभव की बात है। गीता में यही बात भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥ सीताराम सीताराम सीताराम कहिए।
जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए।।
साठ वर्ष के बाद भी लोग सारी जिम्मेवारी अपने सिर पर लादे रहते हैं जिससे जीवन नरक बना रहता है।
से.ला.प.: भविष्य में आप और क्या कुछ लिखने की या अन्य कोई योजना बना रहे हैं?
श्री व्रतराज: भविष्य में जब तक मेरे शरीर में साँस चलती रहेगी तबतक मेरी लेखनी क्रियाशील रहेगी क्योंकि लेखन ही मेरा जीवन बन गया है। आगे भगवान मुझसे कितनी सेवा लेकर कितने ग्रंथों का निर्माण करा देंगे मैं नहीं जानता।
से.ला.प.: भोजपुरी में रामायण लिखने के बाद बिहार के अलावा अन्य जगहों से कैसा रेस्पोंस मिल रहा हैं?
श्री व्रतराज: किसी भी सत्साहित्य का सही मूल्यांकन साहित्यकार के मरने के बाद ही होता है जिसके उदाहरण स्वयं तुलसीदास ही हैं। मैं लोगों के रिस्पौंस की बात को छोड़कर केवल अपने सृजन का आनंद उठा रहा हूँ। जो रामायन पढ़ेगा उसका रिस्पौंस कभी खराब नहीं होगा ऐसा विश्वास है।
से.ला.प.: ये भावना या विचार आपके मन में कैसे आया कि भोजपुरी में रामायण की रचना की जाये?
श्री व्रतराज: भोजपुरी में रामायण लिखने का विचार तो मेरे सपने में भी नहीं आया था। इसकी प्रेरणा तो मुझे नरदेवी (उनके कार्यक्षेत्र वाल्मिकीनगर की संरक्षक मानी जाने वाली देवी) माता से मिली है जिसमें स्वयं राम की कृपा है। क्योंकि, ‘उर प्रेरक रघुवंश मणि’ राम को ही माना गया है।
से.ला.प.: और भी कोई ग्रन्थ भोजपुरी में लिखेंगे क्या या आगे भी अन्य भाषा में रचना करने की सोच रहे हैं क्या?

श्री व्रतराज: भोजपुरी में “करुनाकर रामायन” (करुणाकर रामायण) के अलावे भोजपुरी में गीता का पद्यानुवाद, दुर्गा सप्तशती पर आधारित दुर्गापाठ, श्री सत्यनारायण व्रत कथा, दोहा दरबार (पाँच सौ चौवन दोहा), केकई माई, सती उर्मिला, राम चालीसा, शिव चालीसा, शनि चालीसा, महावीर दुहाई, दुर्गा दुहाई, नरदेवी चालीसा, गंडक चालीसा, चंपारण चालीसा, श्री गणेश चालीस, ब्रह्म चालीसा, माया चालीसा आदि अनेक ग्रन्थ तैयार हैं। भोजपुरी मेरी माता है और हिन्दी मेरी बहन है। इसलिए दोनों की मर्यादा के लिए मैं समर्पित हूँ। हिन्दी में विपर्यय महाकाव्य, सीतायन प्रबन्ध काव्य, श्री रामगीता, भागवत कथा आदि सब तैयार है। आगे कितने तैयार होंगे, ईश्वर जानें।
से.ला.प.: कुछ अपने बचपन की बातें हमारे साथ शेयर करें।
श्री व्रतराज: व्रतराज पर्व (भाद्र शुक्ल तृतीया) के दिन जन्म लेने से मेरा नाम व्रतराज पड़ा। मैं ग्रामवासी साधारण परिवार का बालक हूँ। भाव और अभाव दोनों से जूझता हुआ जीवन की गाड़ी खींच रहा हूँ। देहात से अब बेतिया शहर में शरण लिया हूँ। मेरे बचपन की दो-तीन घटनायें ऐसी हैं जो कुछ प्रेरणादायक है, मैं उन्हीं को बता रहा हूँ।
पहली घटना पढ़ाई सम्बंधी है-
मेरे पड़ोसी गाँव में गगनदेव लाल नाम के एक लाला जी थे जो बच्चों को पढ़ाया करते थे। प्रत्येक शनिवार को एक-दो पैसे तथा कुछ चावल उन्हें शनिचरा के रूप में देना पड़ता था। यही उनकी फीस थी तथा प्रत्येक हिन्दू लड़के से थोड़ा-थोड़ा भूजा (भुना हुआ चावल) लेते थे जो उनके जलपान के काम आता था। उस समय छुआछुत की बड़ी बीमारी थी। एक दिन एक लड़के ने रास्ते में मुझे दूसाध जाति (एक अनुसूचित जाति) के लड़के के ऊपर धकेल दिया और जाकर लालाजी से कह दिया कि भूजा देने के डर से इसने इस दूसाध से अपना भूजा छुवा लिया है। वे बिना कुछ पूछे बूझे मुझे चार बेंत कस दिए। इस अन्याय पर मेरा स्वाभिमान जाग गया और मैंने उनके यहाँ जाना बंद कर दिया। तब मेरे ज्येष्ठ पिता (चाचा) ने, जो एक पंडित थे स्वयं मुझे घर पर ही पढ़ाना प्रारम्भ किया। वे अपने पास ही रात में सुलाते थे और संस्कृत के श्लोकों को रटाते थे। मैं पाँच वर्ष की अवस्था में ही खूब श्लोक पढ़ता था। लोग देखकर चकित हो जाते थे।
फिर मेरा नामांकन बगही मध्य विद्यालय में हुआ (1946)। वहाँ के प्रधानाध्यापक एक अंग्रेज थे। विद्यालीय विषयों की जानकारी के अभाव में मैं फेल हो गया। तब मैं जोर-जोर से चिल्लाकर रोने लगा। उस अंग्रेज शिक्षक ने चपरासी भेजकर मुझे कार्यालय में बुलाया। मेरे आँसुओं को रूमाल से पोंछकर खाने के लिए मिठाई दिये और कहे कि तू फेल नहीं हुए हो। मैंने तुम्हें रोका है। इस बार यदि रुक जाओगे तो जीवन में कभी रुकना नहीं पड़ेगा। उनकी वाणी मेरे लिए एक अद्भुत आशीर्वाद थी।
मेरे यहाँ एक घोड़ा था जिसपर चढ़कर मैं बारात में घुड़दौड़ करता था। मेरे इस करामात से भी लोग मुझे बहुत मानते थे। मेरे पिता जी कपड़ा बेचने का काम करते थे जिसमें मैं भी सहयोग देता था।