हम सब जब अपने जीवन चक्र की एक अवस्था या स्टेज से बढ़ते हुए जब दूसरे स्टेज में जाते हैं, तब हमारे शरीर और मस्तिष्क में कई परिवर्तन होता है। जैसे-जैसे हमारा शरीर वृद्ध होने लगता है इसके प्रत्येक अंग की क्षमता कम होने लगती है।
वृद्धावस्था में होने वाले मानसिक परिवर्तन
इसका असर हमारे मस्तिष्क पर भी पड़ता है। जिसके कारण कई तरह की मानसिक समस्याएँ उत्पन्न होने लगती है। अलझाइमर, पर्किंसन आदि ऐसी बीमारियाँ होती है। डायबिटीज़, हृदय रोग, अस्थमा आदि अन्य सामान्य शारीरिक बीमारियों के क्रोनिक हो जाने से भी कई बार अवसाद जैसे मानसिक समस्याएँ उत्पन्न होती है।
इस समय शारीरिक के साथ ही भावनात्मक रूप से भी बहुत परिवर्तन होते है। बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं। नौकरी या बिजनेस से भी रिटायर हो जाते हैं। इससे उन्हे अचानक अपनी उपयोगिता ख़त्म होने और उपेक्षित होने का एहसास होने लगता है।
धीरे-धीरे उनके पुराने दोस्त, रिश्तेदार, यहाँ तक कि जीवनसाथी भी साथ छोड़ कर दुनिया से विदा होने लगते हैं।
ऐसी स्थिति में शारीरिक और आर्थिक कमजोरी के साथ ये सभी मिलकर बुजुर्गों की मानसिक स्थिति पर बहुत बुरा प्रभाव डालते हैं। उनका दृष्टिकोण नकारात्मक होने लगता है।
ये नकारात्मकता अपने आप में एक बड़ी समस्या होती है। इससे उनकी समस्याएँ और भी बढ़ जाती है।

मानसिक बीमारियों के प्रति उदासीनता
उपर्युक्त कारणों से उम्र बढ़ने पर लोग कई तरह के मानसिक बीमारियों या समस्याओं के शिकार हो जाते हैं। लेकिन इन में से बहुत कम लोग ही इन समस्याओं के लिए मनोवैज्ञानिक के पास जाते हैं। बहुत लोगों को तो पता ही नहीं होता है कि उन्हे कोई बीमारी है।
चिड़चिड़ापन, यादश्त कमजोर हो जाना, मनोदशा में तीव्र परिवर्तन (mood swing), किसी घटना या बात पर उचित प्रतिक्रिया नहीं देना, नींद नहीं आना या अत्यधिक नींद आना, भोजन का स्वाद नहीं लगना, इत्यादि ऐसी सामान्य समस्याएँ हैं, जिन्हें आम तौर पर “बुढ़ापे का लक्षण” “सठिया जाना” जैसे शब्दों से व्यक्त करते हैं पर ये नहीं समझ पाते कि उन्हें कोई मानसिक समस्या हो सकती है।
परिवार वाले “बुढ़ापे का सामान्य लक्षण” समझ कर इन लक्षणों पर ध्यान नहीं देते। जबकि पीड़ित वृद्ध बहुत कम मामलों में ऐसी किसी समस्या की शिकायत करते हैं। वे साधारणतः किसी शारीरिक समस्या के बारे में बताते हैं या अनुभव करते हैं। जैसे हाइ ब्लड प्रेसर, किसी अंग में दर्द (यद्यपि हो सकता है कि उन्हें वास्तव में कोई दर्द नहीं हो, लेकिन वे दर्द महसूस करते हैं) आदि।
हमारे समाज में अभी भी मानसिक समस्याओं/बीमारियों को लेकर कई प्रकार की भ्रांतियाँ है। अभी भी कई लोग इसे सोशल स्टिग्मा समझते हैं और छुपाते हैं। इसलिए परिवार के सदस्यों को बुजुर्गों के व्यवहार में कोई असामान्य परिवर्तन दिखे तो उसे तुरंत ध्यान देना चाहिए, नहीं तो ये समस्याएँ बहुत गंभीर हो सकती है।
वृद्धावस्था में होने वाली प्रमुख मानसिक बीमारियाँ
वृद्धावस्था में होने वाली बीमारियों में निम्नलिखित सबसे सामान्य है:
अवसाद (depression)
अवसाद को मनोविज्ञान की भाषा में mood disorder का ही एक प्रकार माना जाता है। यह सबसे सामान्य मनोवैज्ञानिक समस्या है। लेकिन साथ ही सबसे उपेक्षित भी। न तो बुजुर्ग और न ही उनके परिवार के सदस्य इसे बीमारी के रूप में समझ पाते हैं। लेकिन अगर इसका इलाज नहीं हो, या सही देखभाल नहीं मिले तो यह कई शारीरिक और मानसिक समस्याओं का कारण बन सकता है।
यह सामाजिक संबंधों में भी अवरोध उत्पन्न कर सकता है। क्योंकि अवसाद ग्रस्त व्यक्ति किसी से मिलना-जुलना पसंद नहीं करता, उसका मूड तेजी से बदलता रहता है, जल्दी गुस्सा करता है, खुशी के मौकों पर भी खुश नहीं होता है। उदासी, नींद नहीं आना, शरीर में कहीं-न-कहीं दर्द महसूस होना इत्यादि इसके अन्य लक्षण होते हैं।
एक अध्ययन के अनुसार पुरुषों की तुलना में स्त्रियाँ इस बीमारी से अधिक ग्रस्त हैं। लेकिन अवसाद के साथ अच्छी बात यह है कि इसके इलाज के लिए प्रभावी दवा उपलब्ध है और सही से इलाज होने पर यह बिल्कुल ठीक हो सकता है।
दुश्चिंता (anxiety disorder)
यह बुजुर्गों में सबसे अधिक होने दूसरी मानसिक बीमारी है। डिप्रेसन की तरह यह भी एक mood disorder ही है। इसमे पीड़ित व्यक्ति को हर समय इस बात की घबराहट या चिंता है कि कहीं कोई अनहोनी न हो जाए, कुछ बुरा न घटित हो जाए।

यद्यपि यह एक सामान्य मानसिक स्थिति है और प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी चिंता होती है। लेकिन अगर यह इतना अधिक बढ़ जाए कि जीवन के सामान्य आनंद लेने में रुकावट डाले और इस चिंता का कोई वास्तविक कारण नहीं हो तो उसे मनोविकार या मनोरोग की श्रेणी में रखा जाता है।
बिना किसी कारण के असस्थ्य महसूस करना, नींद नहीं आना, बेचैनी होना आदि इसके लक्षण हो सकते हैं।
किसी क्रोनिक शारीरिक बीमारी, जीवन की किसी बहुत दुखद दुर्घटना, जीवन साथी या साथी की मृत्यु, कुछ दवाइयों के साइड इफेक्ट, शराब का अधिक सेवन, बचपन की बुरी यादें आदि इस समस्या को बढ़ते हैं।
दुश्चिंता (anxiety disorder) के कई प्रकार होते हैं: फोबिया, Panic disorder, Social Anxiety Disorder, Post-Traumatic Stress Disorder, Obsessive-Compulsive Disorder इत्यादि इसी के प्रकार हैं
बाइपोलर डिसऑर्डर (Bipolar disorder)
बाइपोलर डिसऑर्डर एक जटिल मानसिक बीमारी है। जिसमे मूड बदलने का फेज होता है। यह फेज कुछ दिन, कुछ सप्ताह या कुछ महीनों का हो सकता है। एक फेज में व्यक्ति बहुत अधिक खुश या उत्साहित होता है, लेकिन दूसरे फेज में बिना किसी कारण के अवसाद, उदासी और क्रोध में रहता है। अर्थात यह एक साइक्लिक डिसऑर्डर है। इसमे पीड़ित व्यक्ति का मूड (मनोदशा) बारी-बारी से दो अलग अवस्था में होता है और दोनों एक दूसरे के विपरीत होता है।
बाइपोलर डिसऑर्डर डेमेंशिया (dementia) और अलझाइमर (Alzheimer) जैसी बीमारियों के कारण भी हो सकता है। अध्ययन बताते हैं कि इससे पुरुष और स्त्री दोनों एक जैसे प्रभावित होते हैं।
ईटिंग डिसऑर्डर (Eating disorder)
इसमें व्यक्ति कभी तो बहुत अधिक खाता है और कभी बहुत कम। इस कारण और भी कई समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं।
अलझाइमर (Alzheimer)
इस बीमारी का सामान्य लक्षण है “भूलना”। इसलिए इसे “भूलने की बीमारी” भी कहते हैं। यदाश्त में कमी, निर्णय न ले पाना, बोलने में रुकावट, व्यवहार में परिवर्तन आदि इस बीमारी के लक्षण हैं।
यह देखा गया है कि वृद्धावस्था में अगर किसी मानसिक बीमारी के कारण लोगों की स्मरण-शक्ति कमजोर होती है, तो उन्हें अपेक्षाकृत हाल की चीजे अधिक भूलता है, जबकि पुरानी बातें याद रहती है।
इस बीमारी के लिए लंबे समय तक ब्लड प्रेसर, डायबिटीज़, आधुनिक जीवन शैली, सिर में लगी गंभीर चोट, मस्तिष्क के स्नायुओ में क्षरण इत्यादि को कारण माना जाता है। यह सामान्यतः 60 वर्ष के बाद ही होता है।
अगर शुरुआत में इस बीमारी का पता लग जाए तो दवाओं द्वारा इसकी वृद्धि को रोका जा सकता है। लेकिन अलझाइमर का अभी कोई स्थायी इलाज नहीं है।
पार्किंसन (Parkinson)
पर्किंसन केंद्रीय तंत्रिका तंत्र की बीमारी है। इसमे पीड़ित व्यक्ति के शरीर में कंपन होता है। इसके लक्षण तुरंत प्रकट नहीं होते। रोगी के व्यवहार में अन्तर आने लगता है। धीरे-धीरे जब यह इतना अधिक हो जाता है कि व्यक्ति को शारीरिक रूप से कोई तकलीफ़ हो, या वह सामाजिक-पारिवारिक मामलों में असामान्य व्यवहार करने लगे तभी इसकी तरफ ध्यान जाता है। पर, कंपन इसका मूल लक्षण हैं।
यह कंपन प्रायः हाथ की कलाई, अंगुलियों या बाँह से शुरू होता है। पहले कभी-कभी होता है। और फिर जल्दी ही रुक जाता है। फिर यह कंपन अधिक देर तक रुकता है और बार-बार होता है। बाद में यह अन्य अंगों में भी हो सकता है। लिखने, बटन लगाने, दाढ़ी बनाने जैसे कामों में दिक्कत होने लगता है।
पैरों में भारीपन या धीमापन के कारण पैर घसीट कर चलना भी इसका एक लक्षण हो सकता है। यद्यपि मांसपेशियों में कमजोरी नहीं आती हैं लेकिन तंत्रिका तंत्र (nervous system) में कमजोरी के कारण सभी काम धीरे होने लगता है।
वृद्धावस्था में होने वाले मानसिक समस्याओं के कारण
Þ क्रोनिक दर्द या बीमारी (Chronic pain or disease);
Þ शारीरिक अक्षमता (Physical disabilities);
Þ मानसिक तनाव, अकेलापन, परिवर्तित परिस्थितियों से सामंजस्य नहीं बैठा पाना, साथी, विशेषकर जीवनसाथी की मृत्यु, अपनी मृत्यु का भाय, असुरक्षा का भाय आदि;
Þ लंबे समय तक लेने वाले दवाओं के साइड इफेक्ट;
Þ कुपोषण;
Þ शराब, सिगरेट आदि का अधिक सेवन;
Þ शारीरिक निष्क्रियता;
Þ मानसिक निष्क्रियता;
Þ व्यायाम (exercise), योग आदि नहीं करना;
Þ सामाजिक रूप से लोगों से कम मिलना-जुलना; इत्यादि।
मानसिक रोगियों की संख्या
विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2015 में विश्व जनसंख्या में 60 वर्ष से अधिक आयुवर्ग का प्रतिशत 12% था जो कि 2021 में 22% होने का अनुमान है। वृद्ध जनसंख्या में वृद्धि (graying population) का कारण है स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण औसत जीवन अवधि में वृद्धि और मृत्यु दर में कमी। इस जनसंख्या प्रतिशत का 15% किसी-न-किसी मानसिक बीमारी से ग्रस्त है। 60 वर्ष से अधिक आयु के कुल जनसंख्या में जो असक्षमता (disablity) है, उसमें 6.6% मानसिक या तंत्रिका संबन्धित है।

अमेरिका के the Centres for Disease Control and Prevention (CDC) के अनुसार वहाँ 60 वर्ष से अधिक जनसंख्या के लगभग 20% लोग किसी-न-किसी मानसिक बीमारी से ग्रस्त हैं। इनमे से एक-तिहाई को किसी तरह का इलाज नहीं मिल रहा है।
WHO ने विश्व के सरकारों को 60 वर्ष से अधिक उम्र के व्यक्तियों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए समेकित और प्रभावी रणनीति बनाने में सहयोग के लिए “the Global strategy and action plan on ageing and health” बनाया। इसे World Health Assembly ने 2016 में अपनाया था। इस रणनीति का एक उद्देश्य था कि सरकारों के स्वास्थ्य नीतियों को वरिष्ठ जनसंख्या की समस्याओं पर विशेष ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रेरित करना।
“The Comprehensive Mental Health Action Plan for 2013-2020” भी मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर करने के लक्ष्य को रख कर WHO द्वारा बनाया गया है।
भारत की वरिष्ठ जनसंख्या में मानसिक समस्याएँ
भारत में भी वरिष्ठ जनसंख्या का प्रतिशत तेजी से बढ़ रहा है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2000 से 2050 के बीच देश की जनसंख्या 55% बढ़ेगी जबकि वरिष्ठ जनसंख्या 326%। दूसरी तरफ इनमे मानसिक स्वास्थ्य की समस्या गंभीर है। पर, इस दिशा में बहुत गंभीर प्रयास अभी तक नहीं हुए है। इस संबंध में जो भी अध्ययन हुए हैं, वे स्वास्थ्यकर्मियों, हॉस्पिटल, वृद्ध आश्रम आदि के आँकड़ों के आधार पर है, या सामान्य जनसंख्या का ही एक भाग मान कर किए गए हैं। एक मिलियन वरिष्ठ आबादी के लिए मात्र लगभग 4000 प्रशिक्षित मनोरोग चिकित्सक (psychiatrists) हैं। गिने-चुने हॉस्पिटल में ही अलग से वरिष्ठ इकाई (geriatric units) है।
निष्कर्ष
मानसिक स्वास्थ्य हालांकि वरिष्ठ जनसंख्या की एक बड़ी समस्या है। लेकिन अध्ययन बताते हैं कि यह उम्र के साथ निश्चित रूप से जुड़ी नहीं होती हैं। अर्थात ये समस्याएँ कम उम्र में भी हो सकती हैं तो अधिक उम्र में भी उचित जीवन शैली और उपचार अपना कर इनसे बहुत हद तक बचा जा सकता है।
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