भगवान कृष्ण के जीवन से जुड़ा एक बहुत ही प्रसिद्ध प्रसंग है उनके द्वारा अपने ही फुफेरे भाई शिशुपाल का वध करना। कथा इस प्रकार है कि जन्म के समय शिशुपाल के तीन आँखें और चार हाथ थे। आकाशवाणी यह हुई कि जिस किसी के गोद में जाने से उसके अतिरिक्त अंग गायब हो जाएंगे, उसी के द्वारा उसकी मृत्यु होगी। जब कृष्ण अपने फुफेरे भाई शिशुपाल से मिलने आए और उसे अपनी गोद में लिया तो उसके अतिरिक्त अंग अर्थात दो हाथ और एक आँख गायब हो गए। यह इस बात का संकेत था कि उसकी मृत्यु कृष्ण के हाथों की होगी।
यह देख कर शिशुपाल की माँ श्रुतसुभा (जिनका एक नाम श्रुतश्रवा भी था), जो कि कृष्ण की बुआ थी, ने कृष्ण से उसे नहीं मारने के लिए प्रार्थना किया। कृष्ण ने उन्हें वचन दिया कि वे उसकी सौ गलती क्षमा कर देंगे। अगर वह इससे अधिक गलती करेगा तो उसे मार डालेंगे।
बड़े होने पर जब शिशुपाल को यह बात पता चली तब से वह अकारण ही कृष्ण से द्वैष रखने लगा। वह कृष्ण के विरोधियों के साथ मित्रता रखता और उनको अपमानित करने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहता था। उसे अपने उच्च कुल और बड़े साम्राज्य का अभिमान भी था।
इस अकारण द्वैष को रुक्मिणी-कृष्ण के विवाह से और बढ़ावा मिला। हुआ यह कि रुक्मिणी कृष्ण को पसंद करती थी और उनसे ही विवाह करने का प्रण कर बैठी थी। पिता और अन्य सगे संबंधी भी इस रिश्ते के लिए प्रसन्नतापूर्वक तैयार थे। लेकिन उनका भाई रुक्मी, जो कि शिशुपाल का मित्र था अपनी बहन का विवाह बहन की मर्जी के विरुद्ध शिशुपाल से करने के लिए तैयार हो गया। अंततः रुक्मिणी के कहने के अनुसार कृष्ण ने उनका हरण कर उनसे विधिवत विवाह कर लिया। शिशुपाल, रुक्मी और उनके मित्र राजागण कृष्ण से युद्ध में हार गए।
इस से शिशुपाल के मन में कृष्ण के लिए और नफरत हो गई। इधर कृष्ण अपने कार्यों और गुणों के कारण दिनोंदिन अधिकाधिक लोकप्रिय होते जा रहे थे। आगे चल कर जब युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में शिशुपाल ने कृष्ण को सबसे सम्मानित होते और उनकी अग्रपूजा होते देखा तो अपने द्वैष के कारण इसका विरोध करने लगा। वह कृष्ण को अपमानित करने के लिए भरी सभा में उन्हें अपशब्द कहने लगा। कृष्ण चुपचाप यह सब सहते रहे। उन्होने अपने मित्रों को भी रोके रखा। लेकिन जब इन अपशब्दों और गालियों की संख्या सौ से ज्यादा हो गई तब उन्होने अपने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल को मार डाला।
यह तो हुई शिशुपाल की कहानी। लेकिन इस कहानी को अगर हम एक अलग दृष्टिकोण से सोचें तो क्या इसका अंत अलग होता? जब शिशुपाल की माँ को पता चला कि उनके बेटे की मृत्यु कृष्ण के हाथों होने वाली है तब उन्होने कृष्ण से बेटे की गलती को क्षमा कर देने के लिए प्रार्थना किया लेकिन अपने बेटे को यह संस्कार देने में विफल रही कि अकारण किसी से ईर्ष्या-द्वैष नहीं करना चाहिए, किसी का बुरा नहीं चाहना चाहिए, अगर कोई लड़की विवाह करने के लिए इच्छुक नहीं हो तो उससे जबर्दस्ती विवाह करने का प्रयास नहीं करना चाहिए, इत्यादि। अगर वह ऐसा करने में सफल हो जाती तो शायद शिशुपाल जीवित रह जाता।
हर माँ-बाप को अपने बच्चों के भविष्य की चिंता रहती है। वे अपने बच्चों के लिए अपनी खुशियाँ कुर्बान कर देते हैं। वे चाहते हैं कि अपने बच्चों को दुनिया की सारी खुशियाँ दें, वे खुशियाँ भी दे, जो उन्हें नसीब नहीं हो पाया। इसके लिए वे बच्चों के पढ़ाई, करियर पर ध्यान देते हैं, उनके लिए धन जमा करते हैं। उन्हे ऐसे सभी शिक्षा देने की कोशिश करते हैं जिससे उनका बच्चा एक अच्छा जीवन जी सके। लेकिन कई बार वह बच्चों में मानवीय जीवन मूल्य, सामाजिक सरोकार आदि के मूल मंत्र नहीं दे पाते जिससे कोई व्यक्ति एक सार्थक और संतुलित जीवन जी पाता है। परिणाम ये होता है कि बच्चे जीवन के चकाचौंध या परेशानियों में खो जाते हैं। समाज या परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को नहीं निभा पाते। उनकी सारी भौतिक उपलब्धियां उन्हें आत्मिक शीतलता नहीं दे पाता। और तब शायद संस्कारों का वास्तविक महत्त्व परिलक्षित होता है।