पीपल के पेड़ के नीचे बैठे उस वृद्ध भिक्षुक में न जाने ऐसा क्या था कि मां हर रोज़ उसके लिए खाना निकालती थी। वह भिक्षुक निश्चित समय पर अपनी साफ़-सुथरी थाली लेकर भोजन ले जाता था, मुंह से कुछ न कहता उसकी आंखे ढेरों आशीष देती थीं। कई बार हम बच्चे कहते थे “तुम उसकी ऐसे थाली सजाती हो जैसे कोई विशिष्ट अतिथि हो।” वो हंस पड़ती थी।
मां का कहना था “मुझे लगता है ये किसी अच्छे घर से सम्बन्ध रखते हैं। मजबूरीवश भीख मांग रहे हैं।”
हम लोग मां की कल्पना शक्ति पर हंसते थे।

गुरुग्राम, हरियाणा
महीनों तक एक ही वस्त्र पहने उलझे बाल, बढ़ी दाढ़ी में न जाने मां को क्या दिखता था? एक दिन देखा पीपल का पेड़ खाली पड़ा था। वह भिक्षुक कहीं नज़र न आया।
मां को धक्का लगेगा यह सोचकर मैं चिंता में थी, किंतु वो तो आज प्रफुल्लित थीं। “सुन! आज रिक्शे में बिठा कर उस बूढ़े बाबा को पास के वृद्धाश्रम छोड़ आई थी। अब उसको एक ठिकाना मिल गया।” मां की आवाज़ में अतिरिक्त उत्साह देखते बनता था। “चलेगी मेरे साथ, कल देख के आऊंगी, उनका वहां मन लगा या नहीं।”
मैंने मां की ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा, वो बोली थीं “रहने दे! मैं अकेले ही चली जाऊंगी।”
अगले दिन जब मां के साथ वृद्धाश्रम गई थी उन्हीं वृद्ध पुरुष को आराम से घूमता पाकर मन द्रवित हो गया था, वो पहचान में नहीं आ रहे थे।
एक दो महीने के बाद अचानक एक शाम फिर से उन बुज़ुर्ग को पीपल के पेड़ के नीचे बैठे पाया था।
मुझे देख कर हंस पड़े थे और बोले “तेरी मां के हाथ का भोजन करने आया था।”
सुबह जब आंख खुली तो खिड़की से बाहर शोर हो रहा था, लोग कह रहे थे “पता नहीं बुड्ढा कब गुजर गया?”
“इस पीपल से कोई तो नाता था।” “हां भैया” “ना जाने अंतिम इच्छा क्या थी बेचारे की।” भीड़ को चीर कर जब मैं आगे बढ़ी थी तो उन्हें शान्त चित्त चिर निद्रा में लीन पाया।
इतने दिनों बाद पुनः उनका वृक्ष के नीचे आना बता रहा था कि माँ के हाथ के भोजन में छिपे प्यार की भूख उसे वहाँ ले आई थी। मृत बाबा के चेहरे पर प्यार के तृप्ति की उजास स्पष्ट दिख रही थी। उधर जितने मुंह उतनी बातें हो रही थीं।
हमारा परिवार सकते में था। मां म्युनिसिपलिटी वालों को फ़ोन लगा रही थी। हम सबकी आंखे नम थीं। मां का विशिष्ट अतिथि विदा ले रहा था