हस्तिनापुर के महाराजा शांतनु ने प्रथम पत्नी के जाने के कुछ वर्षों बाद निषादराज दशराज की पुत्री सत्यवती से विवाह करने का विचार किया। इस विवाह के लिए निषादराज सहर्ष तैयार थे। लेकिन उन्होने एक शर्त रखा।
शर्त यह थी कि उनकी पुत्री से उत्पन्न पुत्र ही उनका उत्तराधिकारी होगा। चूँकि शांतनु को पहली पत्नी से एक पुत्र था और नियम के अनुसार बड़ा पुत्र ही राजगद्दी का अधिकारी होता था, इसलिए निषादराज के इस माँग को धर्म विरुद्ध और अनुचित मानते हुए उन्होने इसे मानने से इंकार कर दिया। बाद में उनके बड़े पुत्र देवव्रत को जब इस शर्त की जानकारी हुई तो उन्होने स्वयं जाकर निषाद राज की शर्त को पूरा करने का वचन दे दिया। लेकिन निषाद राज की शंका तब भी दूर नहीं हुई। उन्होने यह संशय प्रकट किया कि कहीं देवव्रत के पुत्र या पौत्र राजसिंहासन पर अपना हक न माँगने लगे। उनके इस भय को दूर करने के लिए देवव्रत ने आजीवन ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा किया और इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण वे भीष्म कहलाए।
सत्यवती से शांतनु को दो पुत्र हुए लेकिन दोनों ही बिना कोई उत्तराधिकारी छोड़े हुए युवावस्था में ही परलोक सिधार गए और वंश की समाप्ती का भय हो गया। महाराज शांतनु के एकमात्र जीवित बचे पुत्र भीष्म तो ब्रह्मचर्य और सिंहासन नहीं लेने की प्रतिज्ञा में बंधे थे। अब राजमाता सत्यवती को पिता की शर्त के लिए पछतावा हुआ।
निषादराज की तरह ही धृतराष्ट्र भी पुत्रों के मोह से ग्रसित होने के कारण पुत्रों के बुरे कर्मों का भी विरोध नहीं कर सकें। इसका परिणाम महाभारत के विनाशकारी युद्ध के रूप में हुआ।
अपनी संतान के प्रति स्नेह एक स्वाभाविक गुण है। यह संतान और माता-पिता दोनों के भावनात्मक विकास के लिए बहुत जरूरी है। लेकिन अति किसी चीज के बुरी हो जाती है। एक सीमा के बाद यह स्नेह मोह बन जाता है। मोह को पाँच महापाप में गिनने का कारण यही है कि मोह के कारण मनुष्य कई बार पाप यानि गलत कार्य भी कर जाता है। इसीलिए इसे पाप का मूल कहा गया है।
कई माता-पिता अपनी संतान का भविष्य सँवारने के लिए इतने चिंतित या प्रयासरत रहते हैं कि वे भूल जाते हैं, यदि माता-पिता के करने से बच्चे खुश रहते तो शायद दुनिया में कोई भी व्यक्ति दुखी नहीं रहता। व्यावहारिक रूप से संतान के प्रति अधिक मोह के दो परिणाम सबसे अधिक दृष्टिगोचर होते हैं:
पहला, माता-पिता का बच्चों पर बहुत अधिक नियंत्रण, जिससे बच्चों के व्यक्तित्व को निखरने का पूरा मौका नहीं मिल पाता है। कई बार बच्चे भी अपने लिए कुछ व्यक्तिगत जगह (स्पेस) चाहते हैं। इसके नहीं मिलने पर चिड़चिड़ापन या घुटन अनुभव करने लगते हैं।
दूसरा, माता-पिता का बच्चों से अधिक अपेक्षा हो जाना। अगर माता-पिता बच्चों के लिए बहुत कुछ करते हैं तो उनके चेतन या अवचेतन मन में एक उम्मीद हो जाती है कि उन्होने जब इतना किया है तो बच्चे भी उनके लिए कुछ जरूर करेंगे। वे अपने कार्यों से उम्मीद करने लगते हैं न कि बच्चों की स्थिति देख कर। इन दोनों ही स्थितियों का परिणाम अच्छा नहीं होता है।
इसलिए क्यों न बच्चों की चिंता तभी तक करें और उसकी ज़िम्मेदारी तभी तक लें, जब तो वह स्वयं इसके योग्य न हो जाए। इसके बाद उन्हें अपनी ज़िम्मेदारी उठाने दें। बच्चों के बच्चों की चिंता उनके माता-पिता को करने दें और उन्हें उनका व्यक्तिगत स्थान दें। इसका आशय यह नहीं कि उनकी सहायता न करें और उनसे प्रेम न करें, बल्कि यह है कि हम स्नेह और मोह के सूक्ष्म अंतर को पहचान लें।