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पितर पक्ष

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अनीता मिश्रा, दिल्ली 

सावन महिने की वर्षा ने विकराल रूप पकड़ रखा था। कभी-कभी तो पवन वेग पूरी शक्ति में खपड़ैल छत को ही तहस-नहस कर दे रही थी। तेज हवा के झोंको ने तो फूस के कई घर के छप्पर को ही उड़ा के फेंक दिया। सब अपने–अपने घरों से टॉर्च लेकर अपने मवेशियों को बचाने के लिए निकल पड़े। करीब एक घंटे की अफरा-तफरी के बाद पवन वेग कम हुआ। लेकिन उमा देवी के मन में तूफान उफान पर था।

70 वर्ष की उम्र में कई उतार-चढ़ाव देखी थी। लेकिन इतनी विचलित कभी नहीं हुई थी। मन के सागर में ज्वार-भाटा उठ रहा था, जिसके खिंचाव के कारण पानी की धारा कई ऐसे तटों को छू रही थी। जिससे अतीत के पन्ने मन के सागर में तैरने लगे थे। पवन वेग शांत हो गया था। सभी लोग अपने-अपने घरों में शांति से सो गए थे, सुनसान अंधेरी रात थी।

  छत के खपड़े से होकर वर्षा का पानी बरामदे के नीचे रखे बर्तन पर टप… टप… टप… की आवाज से खामोश रजनी के एकाग्रता में थोड़ी से खलल डाल रही थी। बार-बार उमा  देवी का ध्यान फुलेसरा (खेती-पथारी का उमा  देवी का सारा कार्य वही संभालता था) पर जा रहा था कि इस भयंकर वर्षा में वह अपने परिवार के साथ कैसे रह रहा होगा।

उसकी फूस की झोपड़ी तो कागज की तरह उड़ गई होगी। कल ही उसे बोलूँगी दो-चार बांस मेरे बंसबाड़ी में से काट लेगा। दरवाजे पर जो झटटा (धान का तना) रखा है, वह भी दे दूँगी। अपने-आप से बोली दोनों बेटे तो विदेश में रहते हैं। असली बेटा तो फुलेसरा ही है।

अनाज का दाना-दाना ईमानदारी से बाँट कर दे देता है। कोई भी नई सब्जी जब उसके बाड़ी में फलता है, तब मुझे दे जाता है। जहाँ फुलेसरा के लिए कृतज्ञता और स्नेह की भावना उमा देवी के हृदय में हिलकोरे ले रही थी, वहीं अपने पड़ोसी दिनेशवा के लिए मन में आक्रोश था कि उसने दस रुपये में छोटी-सी घीया (सब्जी) दिया था।

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उमा देवी अपने मन में बुदबुदाई “जब मैं सब्जी उगाती थी तो माँग कर भी और चोरी से भी तोड़ लेता था। पैसा-चिन्ह हो गया है।” दिनेशवा अपने दोनों शहरी कमौआ भाई के बराबर में आने के लिए इसी यत्न में रहता है कि कैसे उसके पास पैसे आ जाए, बस। यही सब सोचते-सोचते उमा देवी की आँखें लग गई। सुबह जब उठी तब हर निशानी रात के वर्षा और तूफान की भयावहता बयान कर रही थी।

समतल आँगन ऊबर-खाबर बन गया था। आँगन में कंक्रीट की तरह हराशंख (घोंघे की एक प्रजाति) बिछे हुए थे। कहीं कीचड़ पर कुत्तों के पदचिह्न बता रहे थे कि रात आँगन में कुत्तों का जमावड़ा लगा था। उसके बाद उमा देवी दलान पर आई। एक-एक चीज का ऐसे मुआयना कर रही थी, मानो आपदा प्रबंधन अधिकारी हो। एक-एक चीज का हिसाब अपने आँखों में रखती थी। किसी की मजाल कि एक तिनका भी खड़का दे। कोई जानवर भी अगर आकर उनके धान के झटटे या जलावन को हिला दे तो शक दिनेश पर ही जाता था। फिर तो सारा आक्रोश दिनेश पर ही फूटता था। दिनेश यह कहते हुए “बुढ़िया पागल हो गई है” वहाँ से हट जाता था।

एकाएक उमा  देवी चौंक गई जब छोटे बेटे के हाथ का स्पर्श उसके पाँव पर पड़ा तो।

“तुम सुबह-सुबह कहाँ से?”

“मैं तो रात में ही दरभंगा पहुँच गया था। मौसम खराब हो जाने के कारण वहीं होटल में रुक गया था।”

बेटे के जवाब सुनकर चिंता जताते हुए बोली “कोई चिंता की बात तो नहीं? अचानक बिना खबर किए आए हो।”

“नहीं माँ, पहले चाय तो एक कप पिलाओ तब इंटरव्यू ले लेना।”

“हाँ! हाँ!” यह कहते हुए उमा देवी रसोई घर में घुस गई। खाना-पीना होने के बाद उमा देवी बेटे से बात करते-करते अचानक सन्न रह गई जब बेटा ने कहा “माँ अपना सामान बाँध लो, कल मेरे साथ तुम्हें भी दिल्ली जाना है।” कुछ देर बाद बेटे से बोली “बेटा यहाँ सब कुछ बर्बाद हो जाएगा। यदि मैं दिल्ली चली गई तो”

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“तेरे मरने के बाद क्या होगा?” “इसलिए मोह छोड़ो और मेरे साथ चलो।” 

बेटे की बात सुनकर कुछ नहीं बोली। पूरी रात टकटकी लगाए सोचती रही, बार-बार पति की प्रतिमा मन मंदिर में चमकती रही। अंत में उन्होनें निर्णय लिया कि कुछ भी हो जाए, मैं अपना घर छोड़कर परदेश नहीं जाऊँगी। जिस घर में गौना कर के आई थी, अर्थी भी वहीं से उठेगी। सुबह-सुबह उठ कर बेटे को साफ मना कर दी। 

यह सुनते ही विकास (उमा देवी का बेटा) का खून खौल गया और गुस्से से बोला “तुम माँ नहीं राक्षसी बन गई हो। चाहती हो मेरा घर बर्बाद हो जाए। बार-बार तुम्हारे चक्कर में मैं गाँव आता रहूँ। शहर में चैन से न जीऊँ।”

विकास की आवाज सुनकर पड़ोस की औरते और आदमी इकट्ठा हो गए। प्रताप के कानों में भी यह आवाज गई जो मोहल्ले का सबसे ज्ञानी व्यक्ति था। मानो कि वह मोहल्ले का प्रधान था। वह जहाँ-जहाँ जाता था अनुशासन उसके पीछे-पीछे चलता था। 

वह आते ही बोला “क्या बात है? किस बात का हँगामा है?”

“क्या बताऊँ प्रताप भैया, मैं अपनी माँ से परेशान हो गया हूँ। आप ही बताओं जो अब इसकी अवस्था हो चुकी है। अकेले कैसे रहेगी?” “इसलिए अपने साथ टिकट बनवा कर लाया हूँ। यह जाना ही नहीं चाहती है?”

बात सुनकर प्रताप बोला “काकी विकास सही कह रहा है। अब आपकी अवस्था अकेले रहने योग्य नहीं है। दिनभर हमलोग रहते हैं। लेकिन रात में तो आप अकेली हो। वहाँ बना बनाया खाना मिलेगा, बच्चों के साथ वक्त बिताओगी।

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“बहुत अच्छा कह रहे हो प्रताप, अपनी सुख की खातिर अपने पति को भूखा-प्यासा छोड़ दूँ।”

प्रताप उमा देवी की बातें सुनकर आश्चर्यचकित हो गया और मन ही मन सोचने लग गया कि काकी सच में पागल हो गई है क्या? पति को मरे हुए पच्चीस वर्ष हो गए है और उनके भूख-प्यास की बात कर रही है।

फिर उमा देवी बोली– “पच्चीस वर्ष से वर्ष में एक बार ही तो पितर पक्ष (पित्र पक्ष या श्राद्ध पक्ष) में खाना खाने और पानी पीने आते हैं तुम्हारे काका। मैं दिल्ली चली जाऊँ तो उन्हें भूखे-प्यासे वापस लौटना पड़ेगा। वे इतनी दूर दिल्ली कैसे जाएँगे!

प्रताप भावविह्वल हो गया। उसकी आँखों में आँसू आ गए। बोला “विकास इन्हें मत ले जाओ, ले गए तो वह वैसे ही तड़प-तड़प कर मर जाएँगी जैसे पानी बिन मछली।”

“मैं इन्हें नहीं ले जाऊँ तो भैया इनका देख-रेख कौन करेगा?”

“हम लोग हैं न” – प्रताप ने जवाब दिया।

विकास माँ पर लाल-लाल आँखे करते हुए चला गया।

ठीक एक वर्ष बाद!

उमा देवी की आवाज सुनकर दिनेश दौड़ा।

अपने आँगन में मुख्य द्वार पर बैठी बोल रही थी “दिनेश, रे दिनेशवा दौड़ अब मैं नहीं बचूँगी।” दिनेश पास जाकर उनका माथा छूआ, चौंक उठा। उमा देवी का शरीर जल रहा था।

“अरे! दादी तुझे तो तेज बुखार है। दिनेश अपनी पत्नी को दादी के पास बैठाकर ठंढा पानी का पट्टी देने के लिए बोला और दौड़ कर डॉक्टर के पास गया। डॉक्टर जाँच करने के बाद बोला “अब यह कुछ घंटों की मेहमान हैं।” यह सुन कर सभी दंग रह गए। पड़ोस के सभी लोग इकट्ठा हो गए। प्रताप आकर अपनी गोद में उमा देवी का सिर रख कर सहलाने लगा।

उमा  देवी प्रताप को एक बार गौर से देखी और हमेशा के लिए आँखें बंद कर ली।

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