‘पढ़ाई’क्या है और यह मस्तिष्क को कैसे प्रभावित करता है?

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भारतीय दर्शन मस्तिष्क के विकास के पाँच स्तर या पक्ष की बात करता है। इन स्तरों को समझना अपनी बौद्धिक क्षमता को बढ़ाने के लिए जरूरी है। ‘पढ़ना’ बौद्धिक क्षमता बढ़ाने का एक साधन है। डिजिटल या फिजिकल- दोनों माध्यमों की तुलना से पहले देखते हैं कि हमारा मस्तिष्क कार्य कैसे करता है। मौलिक प्रश्न यह भी है कि ‘पढ़ने’ का अर्थ क्या है और यह किस तरह मस्तिष्क की क्षमता को बढ़ाता है?

मस्तिष्क विकास के पाँच पक्ष

दक्षिण भारत के मंदिर, तिरुपिरन तुरई मंदिर में पाँच आकृतियां उकेरी हुई है। ऐसी मूर्तियाँ अन्य स्थानों में भी  हो सकती हैं लेकिन साधारणतः हम इन मूर्तियों को कोई सजावटी मूर्ति मान कर इस पर अधिक ध्यान नहीं देते। पर इस मंदिर में जो मूर्तियाँ हैं उसके ऊपर तमिल भाषा में इनके नाम लिखे गए हैं। ये नाम हैं- प्रतिष्ठा कलय, निवृति कलय, विद्या कलय, शांति कलय एवं शांतितित कलय। इन पांचों को मिला कर पंच कलय कहा जाता है।

वास्तव में ये हमारे मस्तिष्क के कार्यकलापों का बहुत ही सटीक विवरण है। पंच का अर्थ है पाँच। कलय का अर्थ है कला यानि पक्ष अथवा भाग। ये पाँच हैं:   

प्रतिष्ठा कला

ऐसी बाहरी जानकारी जो हमारे मस्तिष्क में प्रतिष्ठित हो गया है यानि बस गया है। जब हमारे अपने अनुभव या फिर किसी और के विचार शब्द, कला या किसी और माध्यम से हमारे मस्तिष्क में आ जाते हैं, तो उसे प्रतिष्ठा कहा गया है।

हम जब जन्म लेते हैं तब हमारा मस्तिष्क बिलकुल खाली होता है। उस समय हमारा केवल भौतिक अस्तित्व होता है, वैचारिक नहीं। शब्द हमारे लिए केवल ध्वनि होती है। शिशु को दूध की जरूरत होती है पर उसे नहीं पता कि उस ‘चीज’ को ‘दूध’ कहते हैं। धीरे-धीरे विभिन्न माध्यमों से कई विचार, सूचना या ज्ञान हमारे अंदर आ जाता है। ‘दूध’ शब्द उस ‘चीज’ से जुड़ जाता है। विचार शब्दों से जुड़ते चले जाते हैं। एक समय ऐसा भी आता है जब अपने मन को इन विचारों एवं शब्दों से मुक्ता करना लगभग असंभव लगने लगता है। 

निवृति कला

निवृति का अर्थ होता है मुक्ति। यह प्रतिष्ठा का विलोम शब्द होता है। जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं वैसे-वैसे हमारे मस्तिष्क में जमा यानि प्रतिष्ठित होने वाले विचारों/सूचनाओं की संख्या बढ़ने लगती है। सबको याद रखना न तो व्यवहारिक है न ही उचित। इसलिए हमारा मस्तिष्क अपने आप कुछ विचारों और ज्ञान को निकाल देता है। यानि अनावश्यक बातों को भूलने की स्वाभाविक क्षमता को ही निवृति कहते हैं। प्रतिष्ठा एवं निवृति में संतुलन मस्तिष्क के स्वास्थ्य के लिए बहुत जरूरी है।

विद्या कला

विद्या कला का आशय है ऐसी आवश्यक चीजें जो हमारा मस्तिष्क प्रयास कर सीखता है, लेकिन मस्तिष्क इसे भी पूरी तरह अपने पास नहीं रखता बल्कि प्रतिष्ठा एवं निवृति में संतुलन बनाते हुए उसका जो मूल तत्व होता है, उसे संभाल कर रख लेता है बाकी को या तो अवचेतन (शांति कलय) में रख लेता है या फिर निकाल देता है। बिल्कुल उसी तरह जैसे हम भोजन करते हैं तब शरीर आवश्यक तत्व को रख कर बाकी को निकाल देता है यानि अपने को उससे निवृत कर लेता है।

उदाहरण के लिए हमने बचपन में क, ख, ग, घ, या A, B, C, पढ़ा था। गिनती और पहाड़ा (table) पढ़ा था। लेकिन अब जब हम कोई वाक्य या अंक देखते हैं तो वर्णमाला को या पहाड़ा को याद नहीं करते बल्कि सीधा उस वाक्य को पढ़ कर उसका अर्थ समझ लेते हैं। किसी को 10 रुपए देने होंगे तो हम बिना सोचे उसे 5-5 के दो सिक्के दे देंगे, 5 का पहाड़ा नहीं याद करने लगेंगे। क्योंकि हमारे मस्तिष्क ने अवचेतन वाले कक्ष में उस सूचना के सार को इस तरह सुरक्षित कर लिया है कि बिना पूरी सूचना को याद किए भी हम उस सार का उपयोग कर लेते हैं।

जब हम कोई किताब पढ़ते हैं तो उसका सारी पंक्तियाँ हमें याद नहीं रहती पर कहानी और विचार याद रह जाते हैं। इसी प्रक्रिया को विद्या कला कहा गया है। यह स्मरण शक्ति से इस अर्थ में भिन्न है कि पूरे तथ्य या विचार को याद रखने के बदले केवल सार रखता है।

विद्या कला बहुत महत्वपूर्ण प्रक्रिया होती है। व्यक्ति एक शिशु से जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, उसका वैचारिक अस्तित्व बनने लगता है, इस दौरान सूचनाओं की संख्या इतनी बढ़ने लगती है कि अगर मस्तिष्क सभी सूचनाओं को रखने लगेगा तो नए विचारों के लिए स्थान ही नहीं होगा, या फिर मस्तिष्क अव्यवस्थित सूचनाओं का एक कबाड़खाना बन जाएगा। इसलिए निवृति के तहत अनावश्यक सूचनाओं को हटाता है, और विद्या के तहत आवश्यक सूचनाओं में से अतिआवश्यक सार को रख कर बाकी को निकाल देता है या अवचेतन में रख लेता है।

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इन सभी प्रक्रियाओं के द्वारा व्यक्ति उम्र बढ़ने के साथ-साथ मानसिक और बौद्धिक रूप से अधिक परिपक्व होता रहता है क्योंकि उसके पास विचारों एवं सूचनाओं का भंडार बढ़ता जाता है।

शांति कला

यह मस्तिष्क की अधिक आंतरिक गतिविधि है। विद्या कला के विपरीत यह ऐसी सूचना होती है जो जिसे हमारा मस्तिष्क भी भूल जाता है लेकिन अपने किसी तहखाने में रख देता है, बिल्कुल वैसे ही जैसे हम कभी-कभार उपयोग में आने की संभावना वाली वस्तुओं को किसी स्टोर रूम में रख देते हैं। इसे सबकॉन्शियस माइंड और सबकॉन्शियस मेमोरी कहा जा सकता है। बहुत जरूरी होने पर कोशिश कर मस्तिष्क उसे खोज लेता है क्योंकि यह निवृति के दौरान हटा नहीं दिया गया है।

उदाहरण के लिए हम कॉलेज के समय के किसी पुराने मित्र से अचानक मिलते हैं तो उसका चेहरा तो जाना पहचाना लगता है लेकिन नाम नहीं याद आता है। हो सकता है कुछ देर बाद नाम भी अचानक याद आ जाए। किसी पुराने जगह जाना हो तो पहले नक्शा याद नहीं आता है पर जब जाते हैं तो धीरे-धीरे सही रास्ते का अनुमान होने लगता है। ये सारी यादें हमारे मस्तिष्क के तहखाने में कहीं गहरी दबी हुई थी क्योंकि इन सूचनाओं का उपयोग ज्यादा नहीं होना था।

शांति कला वास्तव में अवचेतन मस्तिष्क में पड़ी अथाह स्मृतियाँ हैं। यह कम उपयोग में आने के बावजूद बहुत महत्वपूर्ण है। वैज्ञानिक मानते हैं कि मस्तिष्क का 90 से अधिक गतिविधियां अवचेतन स्तर पर ही होता है जिसके प्रति हम जागरूक नहीं होते हैं पर ये हमारे व्यक्तित्व और व्यवहार को प्रभावित करती हैं।

शांतितित कला

इसका अर्थ है शांति कला से परे। हमारे विशाल अवचेतन मस्तिष्क में नीचे का स्तर है यह। सुपरकॉन्शसनेस कहा जा सकता है इसे।

इसे ही दर्शन की भाषा में आत्मा कहा जाता है। शरीर के साथ ही मस्तिष्क और पहली चारों कलाएं- यानि प्रतिष्ठा, निवृति, विद्या एवं शांति, समाप्त हो जाती हैं लेकिन पाँचवी शरीर के समाप्त होने के बाद भी सूक्ष्म रूप से बनी रहती है। यह बिलकुल वैसे ही कार्य करता है जैसे हवाई जहाज में ब्लैक बॉक्स। वह जहाज दुर्घटना होने के बाद भी उसकी सूचनाएँ एक छोटे से यंत्र के माध्यम से रखता है, जिस यंत्र का तब तक कोई प्रयोग नहीं था जब तक जहाज ठीक से कार्य कर रहा था।

चूंकि आत्मा को बहुत से लोग दर्शन, धर्म, पैरासाइकोलॉजी, या फिर परा भौतिकी का विषय मानते हैं। इसलिए हम ज्ञान एवं मस्तिष्क के केवल पहले चारों स्तर तक ही विचार करते हैं।     

पढ़ने का अर्थ क्या है?

पंच कलय के सिद्धान्त से इतना तो स्पष्ट है कि मस्तिष्क अव्यवस्थित सूचनाओं का भंडार मात्र नहीं है। बल्कि यह सूचनाओं के उपयोग के आधार पर उसे श्रेणीबद्ध कर व्यवस्थित करता है। मस्तिष्क के लिए प्रतिष्ठा यानि सूचनाओं की प्रविष्टि जितना महत्वपूर्ण है उतना ही निवृति यानि अनावश्यक सूचनाओं को निकालना।

‘पढ़ना’ मस्तिष्क को सूचना पहुंचाने का एक माध्यम है। इसे दो अर्थों में लिया जा सकता है। संकुचित अर्थों में किताब यानि शब्दों के द्वारा सूचना पहुंचाना ही ‘पढ़ना’ कहलाता है। लेकिन व्यापक अर्थों में पढ़ाई का अर्थ है इंद्रियों के द्वारा सूचनाओं को मस्तिष्क में पहुंचाना। उदाहरण के लिए जब हम कोई मूर्ति, चित्र या नाटक देखते हैं, कोई गीत सुनते हैं, किसी व्यक्ति के जीवन पर विचार करते हैं, किसी प्रकृतिक या मानव कृत चीजों या घटनाओं को देखते हैं, तो ये सभी चीजें पढ़ने की श्रेणी में ही आ जाती हैं।

पुस्तक क्यों पढ़ना चाहिए?

शब्दों द्वारा जो हम पढ़ते हैं उसका विशेष महत्व इन  कारणों से है-

(1) जब हम कोई मूर्ति, चित्र, दृश्य आदि देखते हैं, गीत सुनते हैं, तो हम स्वयं उसका एक पक्ष होते हैं। यानि हम उसे अपने दृष्टिकोण से देखते हैं। लेकिन हमारा जीवन काल सीमित है, हमारे इंद्रियों की क्षमता सीमित है। हम सभी समय, सभी जगह एवं सभी परिस्थितियों में नहीं हो सकते। पुस्तक हमारे जैसे किसी अन्य व्यक्ति का अनुभव होता है। सैकड़ों, हजारों वर्ष पहले लिखी गई पुस्तक हो, या फिर सैकड़ों, हजारों किमी दूर बैठ के लिखी गई कोई पुस्तक हो, वह हमें लेखक के अनुभव, विचार एवं परिस्थितियों को बताता है। जब उसके अनुभव एवं विचार हमारे अपने विचार एवं अनुभव से मिलते हैं तो हमारे विचार क्षमता कुछ न कुछ बढ़ जाती है।

   उदाहरण के लिए कोई भी आविष्कार एक दिन में नहीं हुआ। किसी ने पहले इसके लिए प्रयास किया होता है, उसका अनुभव होता है, जो आने वाले आविष्कारों के लिए आधार बनता है। जब हम प्रेमचंद, गोर्की, टोल्स्तोय, मार्क्स, गाँधी, शेक्सपियर को पढ़ते हैं तो हो सकता है हम उनके सभी विचारों से सहमत नहीं हो, हो सकता है अब परिस्थिति बदल गई हो, फिर भी हमारे विचार एवं कल्पना के क्षेत्र में थोड़ा सा विस्तार हो जाता है क्योंकि उसमें हमारे साथ-साथ किसी और का दृष्टिककोण भी समाहित हो जाता है। संक्षेप में कहें तो हम बौद्धिक रूप से थोड़े अधिक समृद्ध हो जाते हैं।

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(2) पुस्तक की दूसरी विशेषता यह है कि जब हम पढ़ रहे होते हैं तब मस्तिष्क को यह छूट होती है कि वह अपना विचार कर सके या कल्पना कर सके। अगर हम महाराणा प्रताप के बारे में पढ़ते हैं तो मस्तिष्क केवल शब्दों को ग्रहण नहीं करता है बल्कि एक छवि भी बना लेता है। लेकिन जब हम कोई चीज देखते हैं तब मस्तिष्क छवि निर्माण का कार्य नहीं करता बल्कि देखने में इतना व्यस्त हो जाता है कि कई बार विश्लेषण नहीं कर पाता क्योंकि ‘दृश्य’ सबसे प्रभावी सूचना होती है।

(3) पुस्तकें हमारी संवेदना को नया आयाम देने की भी क्षमता रखती। जब हम कोई कहानी पढ़ रहे होते हैं तब हमारी कल्पना शक्ति को मौका मिलता है कि वह आगे के कहानी का अनुमान लगाए या उसका विकल्प सोचे। कई बार हम पात्रों से भावनात्मक रूप से इतने जुड़ जाते हैं कि उसकी भावनाओं की अनुभूति हमें भी होने लगती है। यह हमारे विचारों को बदलने की शक्ति रखता है। अगर हम कोई ऐसी कहानी पढ़ते हैं जिसमें किसी बच्चे के मनोभावों को दर्शाया गया हो, तो हो सकता है, अब हम किसी वैसे बच्चे को अगर देखें तो उसकी भावनाओं से जुड़ाव महसूस कर सकें जिस पर हमारा ध्यान पहले नहीं गया था। क्योंकि लेखक ने अपनी कहानी या कविता के माध्यम से हमारी भावनाओं को उस बच्चे की भावना से जोड़ दिया है।

(4) पढ़ना मनोरंजन का भी साधन होता है।

क्या पढ़ना चाहिए?

1. अर्थ उपार्जन के लिए उपयोगी पुस्तकें

   जब हम पढ़ने की या विद्यार्थी की बात करते हैं तो सबसे पहले जो छवि हमारे मस्तिष्क में उभरती है वह है छोटे बच्चों और युवाओं की। यह सही भी है। पाठ्यक्रम के माध्यम से हमें ऐसा विशेष ज्ञान एवं प्रशिक्षण मिलता है हमें हमारे परिवेश को जानने का एक स्पष्ट दृष्टिकोण देते है। साथ ही धन उपार्जन के योग्य बनाता है।  स्कूल एवं कॉलेज के पाठ्यक्रम इसी तरह बनाए जाते हैं। इसलिए पाठ्य पुस्तक पढ़ने का भी अपना महत्व है।

2. अपने को अद्यतन (up to date) रखने के लिए आवश्यक सूचना

   किसी भी व्यवसाय में सफलता के लिए जरूरी है कि हमें उस विशेष क्षेत्र में हो रहे आधुनिक परिवर्तन से अवगत रहें। साथ ही अपने परिवेश में हो रहे परिवर्तनों के प्रति भी जागरूकता जरूरी है।

 3. ऐसी पुस्तकें जो हमारी विचार एवं संवेदना को सशक्त करे

   अपने व्यवसाय एवं पाठ्यक्रम से अलग कुछ पुस्तकें भी नियमित रूप से पढ़ना चाहिए। जैसे शरीर के लिए खुराक की जरूरत होती है वैसे ही मस्तिष्क के लिए भी पोषण चाहिए। रुका हुआ पानी खराब हो जाता है। वैसे ही अगर मस्तिष्क को नया-नया विचार नहीं दिया जाय तो हमारे विचारों में भी सड़न उत्पन्न होने लगेगा। हम अपने को बदलने या नई चीजों को सीखने की क्षमता खो देंगे। हमारा मस्तिष्क नकारात्मक बातों के खर-पतवाड़ से भरने लगेगा।

4. अलग-अलग विषयों की पुस्तकें पढ़ें

अपनी रुचि और आवश्यकता की किताबें अवश्य पढ़ें। पर कोशिश करें कि कुछ अलग हट कर किताबें भी कभी-कभी पढ़ा जाय। जैसे अगर आप की रुचि तकनीकी विषयों में अधिक है तो उससे संबन्धित किताबें अधिक पढ़ें। पर साथ ही साहित्य एवं दर्शन की पुस्तकें भी पढ़ें। अगर जासूसी, थ्रिलर या हॉरर कहानियाँ पढ़ने के शौकीन हैं तब भी बीच बीच में सामाजिक एवं वैज्ञानिक पुस्तकें पढ़ लें। इससे अलग-अलग तरह के विचार मन में आएंगे। यह मस्तिष्क के लिए एक तरह से कसरत की तरह होता है।

5. नकारात्मक किताबों को पढ़ने से बचे

हम जो चीजें पढ़ते हैं वह हमारे अवचेतन मस्तिष्क में सुरक्षित रहता है (शांति कलय)। लगातार ऐसी चीजें पढ़ने से धीरे-धीरे हमारी सोचने-समझने की क्षमता नकारात्मक होने लगती है। उदाहरण के लिए अगर हम कामुक या हिंसक चीजें पढ़ेंगे या देखेंगे तो हमारे मस्तिष्क में ये चीजें कहीं-न-कहीं स्टोर हो जाएगी। अगर इनकी मात्रा बढ़ जाए तो यह विचार हमारे व्यवहार में भी दिखेगा और मानसिक स्वास्थ्य पर भी कुप्रभाव डालेगा।

6. अलग-अलग तरह की सामाग्री पढ़ें

अगर हम कोई बड़ी कहानी या उपन्यास पढ़ते हैं, मोटी-मोटी किताबें पढ़ते हैं तो इसे एक बार में खत्म नहीं कर पाते। जब हम फिर से उसे पढ़ने बैठते हैं तो पिछली चीजें मस्तिष्क दुहराता है। साथ ही अगली चीजों के विषय में कल्पना करने का अवसर भी मिलता है। जब हम छोटी कहानी पढ़ते हैं तो एक साथ ही उसे खत्म कर सकते हैं। इससे हमें कल्पना करने का ज्यादा अवसर तो नहीं मिलता लेकिन उस संवेदना से जुड़ने का अवसर ज्यादा मिलता है जो उस कहानी में निरूपित किया गया है। इसी तरह कविता, कहानी, लघुकथा, नाटक, व्यंग्य, आलोचना इत्यादि अलग-अलग तरह से हमारे मस्तिष्क को प्रभावित करती है। कोशिश होनी चाहिए कि जहां तक संभव हो थोड़ी-बहुत अलग-अलग तरह की विधाओं का साहित्य पढ़ना चाहिए।

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कैसे पढ़ना चाहिए?

‘क्या पढ़ना चाहिए?’ यह प्रश्न जितना महत्वपूर्ण है उससे भी महत्वपूर्ण है कैसे पढ़ना चाहिए? बहुत से विद्यार्थी बहुत कम समय पढ़ कर भी अच्छा परिणाम ले आते हैं जबकि कई विद्यार्थी अधिक समय दे कर भी परिणाम अपेक्षा के अनुरूप नहीं ला पाते। कहाँ कमी रह जाती है? क्या स्मरण शक्ति में? या फिर पढ़ने के तरीके में?

एक सामान्य अनुभव की बात है जब लैंड लाइन फोन होता था, लोग नंबर डायल कर फोन कनैक्ट करते थे, तब लोगों को फोन नंबर याद होते थे। अब मोबाइल में नंबर सेव होने लगा। हम सेव नंबर को टच कर कॉल कनेक्ट कर सकते हैं। अब बहुत कम नंबर ही लोगों को याद होता है।

वास्तव में हमारा मस्तिष्क बड़े ही व्यवस्थित तरीके से सूचनाओं को संग्रहीत करने, छाँटने और हटाने का काम करता है। जब हम पढ़ने के द्वारा या किसी अन्य माध्यम से कोई सूचना मस्तिष्क को पहुंचाते हैं, तब मस्तिष्क उस सूचना की उपयोगिता के बारे में निश्चित नहीं होता। हम बार-बार अगर उस सूचना को मस्तिष्क में दुहराते हैं, उस सूचना के विभिन्न पहलुओं पर विचार करते हैं, तब मस्तिष्क उस सूचना के सार को संचित कर लेता है। इसे हटाता (निवृति) नहीं है।

इसलिए जब भी हम कुछ पढ़ें तो पढ़ना शुरू करने से पहले इसके विषय में जो भी हमें जानकारी है उस पर एक विचार कर लें यानि मस्तिष्क में उसका दुहराव कर लें। पढ़ने के बाद भी इसी प्रक्रिया को दुहराएँ। संक्षेप में कहूँ तो पढ़ना जितना जरूरी है उससे भी जरूरी है उस पर विचार करना। नहीं तो मस्तिष्क उसे भूल जाएगा बिल्कुल वैसे ही जैसे रास्ते में चलते हुए कितने ही व्यक्तियों को हम देखते हैं लेकिन मस्तिष्क उन सब को याद नहीं रखता है।

कितना पढ़ें?

कितना पढ़ें? इस सवाल का सबसे साधारण जवाब यह है कि उतना ही पढ़ें जितने पर आपका मस्तिष्क विचार कर सकें। ज्यादा देर लगातार पढ़ते रहने से बेहतर है कुछ देर पढ़ कर उस पर विचार कर लिया जाय। फिर आगे पढ़ा जाय।

किताबें बहुत अच्छी चीज है। यह हमें दूसरों के विचार एवं अनुभव से रूबरू करती हैं। लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हमारे अपने अनुभव एवं विचारों का भी महत्व है। इसलिए किताबें पढ़ने और वास्तविक अनुभव दोनों में संतुलन बहुत जरूरी है।

ज्यादा पढ़ने के नुकसान

“अति सर्वत्र वर्जयेत।” अच्छी से अच्छी चीजों का भी अति होना घातक हो जाता है। एकाकी व्यक्तित्व, अभिमान, निर्णायक की भूमिका, व्यावहारिक जगत से दूरी इत्यादि ऐसी कुछ विशेषताएँ हैं जो समान्यतः ज्यादा पढ़ने वाले व्यक्ति में आ जाती हैं। हम किताबों की दुनिया में ऐसे खो जाते हैं कि अपने आस पड़ोस की वास्तविक दुनिया से भी कई बार दूर हो जाते हैं। कई लोग किताबों के साथ रहने के लिए लोगों से दूर होने लगते हैं। लेकिन दोनों में संतुलन होना जरूरी है। 

पढ़ने वाले लोगों की दूसरी बड़ी समस्या यह है कि उन्हें अपने पढ़ने और अधिक बुद्धिमान होने का अभिमान हो जाता है। वे दूसरे लोगों को अपने से कम बुद्धि  का मानते हुए उनके प्रति अपना विचार बना लेते हैं। इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण है भारत का स्वतन्त्रता संग्राम। शुरू में कॉंग्रेस यह मानती थी कि पढ़े-लिखे होने के नाते उनका यह कर्तव्य है कि विशाल अनपढ़ जनता के भले के लिए काम करें। उस समय देश की साक्षारता दर बहुत कम थी। इसलिए शुरुआती कॉंग्रेसी नेता सामान्य जनता को इस लायक नहीं मानते थे कि वे अपने भलाई के लिए सही कदम उठा पाते। महात्मा गाँधी ने आम जनता की शक्ति को पहचाना और विभिन्न उपायों द्वारा उन्हें स्वतन्त्रता संग्राम से जोड़ा। इसी कारण उन्हें ‘राष्ट्र पिता’ कहा गया।

पढ़ाई एवं सहज बुद्धि (कॉमन सेंस)

एक बड़ा सवाल यह भी होता है कि पढ़ाई और कॉमन सेंस में क्या कोई संबंध है? कई बहुत पढ़े-लिखे लोग व्यक्तिगत रूप से बहुत सफल नहीं होते, जबकि कम पढ़े-लिखे लोग भी विवेक शक्ति से भरे होते हैं। मेरे विचार से ये दोनों एक-दूसरे को पूरक हैं। पढ़ने से हमारी विचार शक्ति बढ़ती है। हम किसी निर्णय पर पहुँचने से पहले विभिन्न दृष्टिकोण से, और, अधिक आत्मविश्वास से उस पर विचार कर सकते हैं। दूसरी तरफ क्या पढ़ना चाहिए, क्या सोचना चाहिए, इस का निर्णय सहज बुद्धि से ही करते हैं।

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