“नहीं है” का होना

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“नहीं है”

हम मनुष्यों की एक सामान्य प्रवृति होती है कि हम उन चीजों पर अधिक ध्यान देते हैं, जो हमारे पास नहीं होता है। हम में से अधिकांश अगर अपने मस्तिष्क में उठने वाले विचारों को का विश्लेषण करें तो पाएँगे कि हमारे एक-तिहाई विचार “नहीं” के आसपास ही चक्कर लगातें हैं।   

मेरे पास पैसे “नहीं हैं”, मेरे पास समय “नहीं” है, मेरे बच्चे/माँ-बाप मुझे समझते “नहीं” हैं, दुनियाँ में अब ईमानदारी “नहीं” है, मेरी तबीयत ठीक “नहीं” हैं, आज खाना ठीक “नहीं” बना है, आज मेरा मूड ठीक “नहीं” है, इत्यादि- इत्यादि।

“नहीं” की एक विशेषता है कि यह अपने साथ और भी कई “नहीं” को ले आता है। और दूसरी तरफ हमारे पास क्या “है” उससे हमारा ध्यान हटा देता है।

उदाहरण 1      

अगर आप एक विद्यार्थी हैं। जब आपकी परीक्षाएँ पास आई तो आपने देखा कि किसी कारण से आप पढ़ाई नहीं कर पाए। आपके सिलेबस का केवल 50% ही आपने पढ़ा है। अब इतना समय नहीं है कि शेष 50% पढ़ पाए।

अगर आप बार-बार उस 50% के विषय में सोचेंगे जो पढ़ नहीं पाए, तो क्या होगा, “नहीं” तो रहेगा ही, उसमें कोई बदलाव नहीं होगा। आप घबराहट में जितना जानते हैं उसके लिए भी आत्मविश्वास खो देंगे। लेकिन अगर आप बार-बार ये याद करें की आपको कितना याद है, तो जो 50% आपने पढ़ा है उसका दुहराव (revision) होगा, आपका आत्मविश्वास पढ़ेगा और हो सकता है कि आप उस पढ़े हुए 50% के बल पर परीक्षा पास कर लें।

उदाहरण 2     

वर्तमान लॉक डाउन संकट दो श्रेणी के व्यक्ति दिख रहें हैं। एक वे जो ये सोचते हैं, घर से निकल “नहीं” सकते; अपना रोजगार “नहीं” कर सकते, पैसे “नहीं” आ सकते इत्यादि, इत्यादि। ये सारे “नहीं” लॉकडाउन शुरू होने के साथ शुरू हुआ था। खतम होने के साथ भी कुछ बदलाव नहीं आया।

लेकिन दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं जिन्होने सोचा उनके पास “समय है”, वे अपने परिवार से साथ समय बिता “सकते हैं”, वे डिजिटल तरीके से बहुत कुछ सिख “सकते हैं” इत्यादि।

लॉक डाउन खतम होने के पास उनके पास खुश होने के लिए बहुत सी उपलब्धियाँ हैं। कई लोगों ने अपनी मनपसन्द किताबें पढ़ डाली; कई ने बहुत कुछ लिख डालें; कई लोग ऑनलाइन बहुत से काम करना सिख गए। कई लोग ऑनलाइन सिख कर कई नई चीजें बनाने लगे।

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नहीं वाले के साथ में कुछ नहीं रहा लेकिन “हाँ” सोचने वाले के पास सच में बहुत कुछ हो गया।

उदाहरण 3

महाभारत काल के तीन पात्रों के जीवन की तुलना मुझे बहुत रोचक लगता है। क्योंकि इन तीनों का जीवन “नहीं है” और “है” को बहुत अच्छे से स्पष्ट करता है।

पहले पात्र हैं कर्ण। कर्ण जैसा वीर और दानवीर दोनों ही इतिहास में विरले ही मिलते हैं। लेकिन वह इतिहास में एक नायक (hero) नहीं, बल्कि दुखांत नायक बना। उसकी “king” की भूमिका “tragedy king” की के समक्ष गौण हो गया।

कारण था उसका सामाजिक स्तर क्रम में छोटी (शूद्र) मानी जाने वाली जाती “सूत” का होना। उसकी क्षत्रीय माँ ने उसे नहीं अपनाया। जिस माँ-बाप ने उसे अपनाया, वे सूत जाती के थे। ऐसा कारण स्वयं कर्ण ने माना। वह ऐसा मानने में कितना सही था, यह उसके समय के ही दो अन्य पात्र से तुलना करके देख सकते हैं। 

पहले पात्र थे, स्वयं कृष्ण। जाति के मामले में वे भी तीसरे वर्ण में आते थे। वे भी एक राज परिवार से आते थे, लेकिन उनका बचपन एक ग्वाला मुखिया के घर साधारण गौ पालक के बीच ही बिता था। यहाँ तक कि कंस को मारने तक उन्होने न तो कोई औपचारिक शिक्षा ली थी और न ही युद्ध या किसी अन्य तरह का कोई प्रशिक्षण।

तीसरे पात्र थे, रोमहर्षण सूत। यह भी कर्ण की तरह ही सूत जाति में उत्पन्न थे।

सामाजिक स्तर पर ये तीनों लगभग समान थे। लेकिन इनकी सोच ने इन्हे अलग बनाया।

ये वो सोच था, जिसमे कर्ण को जब द्रौपदी ने स्वयंवर में भाग लेने से मना कर दिया तब इस अपमान से वह इतना व्यथित हो गया कि दुर्योधन के “दिए हुए” “अंग” देश को स्वीकार कर अपने को राजवंशियों के समकक्ष बनाने का प्रयास किया।

ऐसा कर उसने अपने समस्त पराक्रम को दुर्योधन की एहसान तले दबा दिया। उसमें इतनी क्षमता थी कि वह अपने बल पर राज्य स्थापित कर सकता था। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया क्योंकि उसमें इतनी क्षमता नहीं थी, कि एक स्त्री द्वारा किए गए अपमान को सह सके। उसमें इतनी क्षमता नहीं थी कि वह शांत होकर अपने पराक्रम के सही उपयोग करने के लिए सोच सके।

कर्ण में हमेशा यह भावना रही कि वह जो सम्मान या उपलब्धि पाने का हकदार है, वह केवल इसलिए नहीं पा सका क्योंकि वह एक छोटी जाती से था। अपने ऊँची जाति का “नहीं होने” का भाव उसमें इतना गहरा था, कि वह अपने शौर्य और सद्गुणों के “होने” का फायदा नहीं उठा सका।

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नहीं_है

अगर वह द्रौपदी के सभा में हुए अपमान का बदला लेने के लिए, अपने को योग्य साबित करने के लिए धैर्यपूर्वक कोई कार्य करता तो संभवतः उसे याद रखने का कारण कुछ अन्य होता।

ऐसा साबित करना कोई आसान काम नहीं था, तो कोई असंभव भी नहीं था। ग्वाला सामाजिक स्तर से सूत से कुछ ऊपर था, लेकिन वर्ण क्रम में ब्राह्मण और क्षत्रियों के बाद ही आता था। कृष्ण का वंश भी कोई बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं था।

शिशुपाल, जयद्रथ आदि प्रतिद्वंद्वी उन्हें कई बार कुल को लेकर ताने भी मारते थे। लेकिन कभी इन तानों को कृष्ण ने गंभीरता से नहीं लिया और न ही कभी उनका आत्मविश्वास कम हुआ या समाज के प्रति कोई द्वेष भाव आया।

वे तो इतने सहज थे कि मजाक में अपनी पत्नी को कहा कि “तुम्हें तो बड़े-बड़े वंशों के राजकुमार मिल जाते, फिर तुमने मुझ जैसे ग्वाले से शादी क्यों की?”

कृष्ण कि बुआ कुंती का जन्म तो यादव कुल में हुआ था, लेकिन वह क्षत्रिय को गोद दे दी गई थी। उनका विवाह भी क्षत्रीय कुल में ही हुआ था। उनके ससुराल वाले यानि कौरव कृष्ण के कुल को कभी अपने समकक्ष नहीं मानते थे।

कृष्ण के भाई बलराम जी जब अपने भतीजे साम्ब के दुर्योधन की पुत्री लक्षम्णा से विवाह के लिए प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर गए, तो कौरवों ने अपने से निम्न कुल का होने के कारण ही उन्हे अपशब्द कहा और विवाह से इनकार कर दिया।

 (लक्षम्णा और साम्ब एक-दूसरे से प्रेम करते थे, दोनों विवाह के लिए भाग रहे थे, तो एक अकेले साम्ब को कई योद्धाओं के मिलकर हरा कर कैद कर लिया था। बलराम इसीलिए विवाह का प्रस्ताव ले कर गए थे।) लेकिन बलराम जी में इस अपमान से दैन्य नहीं आया। बल्कि उनका पराक्रम प्रकट हुआ। भयभीत होकर दुर्योधन ने दोनों का विवाह का दिया।

ये कुछ उदाहरण बताते हैं कि कुल के लिए ताने तो कृष्ण को भी मिले लेकिन उन्होने इसे कभी बाधक नहीं बनने दिया।

गोवर्धन पर्वत को अँगुली पर उठाने का दम रखने के बाद भी उन्हे रणभूमि से भाग कर “रणछोड़” बनने में कोई शर्म नहीं आई। क्योंकि कभी-कभी पीछे हटना या अपमान सह लेना भी दीर्घ कालीन जीत के लिए जरूरी होता है। शायद यही कर्ण नहीं समझ सका।              

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कृष्ण ने कभी भी अपना जाति या कुल छुपा कर कोई काम नहीं किया। लेकिन कर्ण ने इसलिए अपनी जाति गलत (ब्राह्मण) बताया कि निम्न जाति का होने के कारण कोई योग्य गुरु उसे शिक्षा नहीं देते।

जब गुरु को उसकी जाति पर शक हुआ तब हालाँकि उसके अपना सही जाति (सूत) बताया लेकिन चूँकि वह एक बार झूठ बोल चुका था, इसलिए उसके लक्षण क्षत्रियों के देख कर गुरु को उस पर विश्वास नहीं हुआ और उसे वो शाप दिया (“मेरी सिखाई हुई विद्या तुम उस समय भूल जाओगे जब तुम्हें उसकी सबसे ज्यादा जरूरत होगी”) जिसके कारण उसकी रणभूमि में मृत्यु हुई।

कृष्ण को उनकी जाति ने सम्मान भले ही नहीं दिलाया लेकिन कृष्ण ने अपने कर्मों और अपने गुणों से अपनी जाति को जरूर सम्मानित किया। अगर कुछ लोग उनके कुल को लेकर ताने मारते थे, वो लाखों लोग उनके गुणों के दीवाने भी थे।

चलो मान लेते हैं कृष्ण भगवान थे, इसलिए कर्ण की उससे तुलना नहीं की जा सकती है। तो दूसरा उदाहरण एक अन्य “सुतपुत्र” रोमहर्षण का है।

अगर शूद्र वर्ण के लिए क्षत्रिय का कर्तव्य (जैसा कर्ण कर रहे थे) वर्जित था तो ब्राह्मण के लिए आबंटित धर्म ग्रंथों का पठन-पाठन भी अनुमत नहीं था। लेकिन ऐसे समय में रोमहर्षण ने न केवल इन ग्रंथों का ज्ञान प्राप्त किया बल्कि ब्राह्मणों को उन ग्रंथों को उपदेश भी दिया।

वे संभवतः भारत के सबसे सफल कथा वाचक हुए हैं। इतना ही नहीं इसी समाज के ब्राह्मणों ने उन्हे “ब्राह्मण” का पद दिया। यह पद बिना माँगे, बिना लड़े मिला।

अपने ज्ञान और कथा वचन प्रतिभा के कारण उन्होने यह योग्यता अर्जित कर ली। संभवतः समाज की यही प्रकृति है। आरंभ में वह भले ही बाधक लगे लेकिन अगर आप अभीष्ट योग्यता अर्जित कर लेते हैं तो यही समाज प्रसंशक बन जाता है। बस जरूरत होती है कुछ धैर्य रखने की।

स्पष्ट है कि कर्ण ने यह सोचा कि उनके पास क्या “नहीं है”। जबकि कृष्ण और रोमहर्षण जैसे लोग ये सोचते थे कि उनके पास “क्या है।”

हमलोग भी अपने जीवन में यही करते हैं। हमारे पास जो नहीं होता है, उसके विषय में अधिक सोचते हैं। और प्रकृति का नियम है कि हम जो सोचते है वही हमे मिलता है।

हम में से अधिकांश यही करते हैं। हमारे पास क्या है इससे ज्यादा ये सोचते हैं कि क्या नहीं है। जो नहीं है उसके लिए सोचकर हम उसका भी उपयोग नहीं कर पाते जो कि हमारे पास है।            

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