
अनीता मिश्रा, दिल्ली
दीपा बिस्तर पर लेटी-लेटी एक टक से अपनी मम्मी-पापा की तस्वीर को निहार रही थी। उसे लग रहा था जैसे आज वो बहुत खुश लग रहे थे क्योंकि उनकी बेटी भी अब इस दुनिया को छोड़ कर उनके पास जो आ रही थी। कैंसर का दर्द जितना नहीं तड़पा रहा था दीपा को, उससे ज्यादा सास और पति का व्यवहार उसके सीने को छलनी कर रहा था।
दीपा सोच की जाल में ऐसे उलझी थी कि उसे एहसास ही नहीं था कि उसे उसके नयनों से कब से नीर झर रहे थे। जैसे हिमालय से जलधारा निकल रही हो। दीपा सोच रही थी कि इंसान कितनी जल्दी बदल जाते हैं। जिस रितेश (दीपा का पति) ने दीपा को पाने के लिए अपनी मम्मी की पसंद की हुई लड़की को ठुकरा दिया, आज ऐसे दीपा से मुँह फेर लिया जैसे वह उसे पहचनता ही नहीं।
मन बहुत कोमल और चंचल होता है। जब वर्तमान की क्रूर व्यवहारों की चट्टान से टकराता है तो वह अपना रुख अतीत कि यादों की ओर कर लेता है। दीपा का मन भी अतीत की यादों में विचरने लगा।
दीपा अपनी सहेली की शादी में गई थी। वहीं जब रितेश ने दीपा को देखा तो ऐसे मोहित हुआ जैसे धरती पर अप्सरा देख लिया हो। दीपा सुंदर तो थी ही साथ-साथ पढ़ने में भी बहुत तेज थी। शिक्षा की पंख लगा कर स्वच्छंद आकाश में उड़ना चाहती थी। पर उसे कहाँ पता था कि उसके उड़ने से पहले ही बहेलिया जाल बिछा कर बैठा था।
दीपा के पिता के खुशी का ठिकाना नहीं था जब रितेश खुद रिश्ता लेकर दीपा के पापा के पास आया था। पूरे गाँव में यह खबर सनसनी की तरह फैल गई थी। सभी दीपा के भाग्य की सराहना कर रहे थे। सभी कह रहे थे कि दीपा के पापा कभी सपने में भी नहीं सोचें होंगे कि इतने बड़े घर से खुद रिश्ता चल कर उनकी बेटी का हाथ मँगेगा। एक गरीब पिता अपनी बेटी को और क्या दे सकते थे अपने आशीर्वाद के सिवा।
दीपा को अपनी तस्वीर देख कर यकीन ही नहीं हो रहा था कि यह उसकी ही तस्वीर है। गोरा वर्ण, सुंदर-सुडौल शरीर, चेहरे से टपकता नूर। सुनहरे सपनों के रथ पर उड़ान भरने के लिए तैयार। दीपा कभी नहीं सोची थी कि उसकी ज़िंदगी का अंत इतनी जल्दी और इतना भयानक होगा।
अभी कुल बत्तीस की ही तो थी दीपा। सभी दोस्तों को देख कर दीपा का मन स्कूल से कॉलेज तक भ्रमण करने लगा। उसके सबसे विश्वासी दो मित्र है जो स्कूल से कॉलेज तक साथ थे। करण और डॉली।
दीपा को पाकर रितेश बहुत खुश था। उसे लग रहा था दीपा मिल गई, सारे जहाँ की खुशियाँ मिल गई। लेकिन रीमा देवी की सीने में दहेज की चिंगारी सुलग रही थी। उसी चिंगारी की आग ने दीपा के सारे सपने जला कर उसके जीवन को तबाह कर दिया।
आज सारा दिन दीपा कमरे में पड़ी है। लेकिन रितेश एक बार भी झाँकने नहीं आया है। दीपा की सास तो खुशी से चहक रही थी। क्योंकि उसके मन की मुराद जो पूरी होने वाली थी। जिस लड़की से वह रिश्ता पहले करवाना चाहती थी उसी के साथ आज रिश्ता पक्का कर के आई थी रितेश का। अब बस दीपा के मरने का इंतजार था।
दीपा का कलेजा यह सोच-सोच के फट रहा था कि जिस घर के लिए अपना सपना, अपनी नौकरी, अपना सब कुछ उसने त्याग दिया। 24 घंटे सेवा में तत्पर रहती थी। वे लोग इतने निष्ठुर हो गए कि उसके लिए उन्हें रत्ती भर दुख भी नहीं है। वे दीपा के मरने का इंतजार भी नहीं कर पाए और दूसरा विवाह ठीक कर आए। सबसे आश्चर्यचकित दीपा इसके लिए थी कि रितेश ने भी इसके लिए हामी भर दिया था। एक बार भी नहीं हिचकिचाया।
“बेटा देख तो ये गहने, साड़ियाँ बीणा पर कितनी अच्छी जँचेगी। शादी की तारीख तो मैं अभी तय कर दूँ पर पहले ये आफत मरे तब ना।”
सास की बातें दीपा को ऐसे लग रही थीं जैसे नसों में सुई चुभो रही हो। दीपा आँसू पोछती हुई सिरहाने से डायरी निकालने लगी।
तभी जानी-पहचानी खुशबू ने उसके नाक से रोम-रोम में समाकर रितेश के सानिध्य का याद भरा एहसास कर दिया। दीपा को यह समझते देर न लगी कि रितेश आज बहुत खुश है। पर कारण दीपा को नहीं पता था कि क्यों? तभी रीमा देवी की आवाज ने दीपा के कानों में कंपन किया।
“जाओ बेटा अच्छे होटल में जाना। दोनों ज्यादा वक्त बिताना। घर आने की जल्दी मत मचाना।”
दीपा को समझते देर ना लगी कि रितेश वीणा के साथ डेट पर जा रहा था। “हे प्रभु! जल्दी से मुझे इस दुनिया से ले चलो। किसी को मेरी जरूरत नहीं।” यह कहती हुई दीपा फूट-फूट कर रोने लगी। कुछ देर रोने के बाद अपने-आप को समझाने लगी कि उसका अब इस दुनिया में समय ही कितना बचा है।
आँसू पोछने के बाद मोबाइल में तस्वीरों को देखने लगी। अपने इकलौते भाई की तस्वीर देख कर भाव-विह्वल हो गई। माता-पिता के मरने के बाद भाई पलटकर कभी दीपा से मिलने नहीं आया था क्योंकि भाभी को डर था कि ससुराल वाले बीमार अवस्था में कहीं दीपा को उसके पास ही न छोड़ दें।
तब भी दीपा की अंगुलियाँ अपने-आप ही भाई का नम्बर डायल करने लगीं। रिंग जाते ही फोन भाभी ने उठाया। “हलो! कौन” “भाभी मैं हूँ दीपा। थोड़ा भैया से बात करवा दो भाभी।”
दीपा की बात सुनते ही भाभी अकड़ कर बोली “अभी भैया घर पर नहीं हैं, बाद में बात कर लेना।” दीपा नयनों में आँसू लिए बोली “बाद के लिए समय तो नहीं भाभी।” अपने भाई से बात करने के लिए दीपा का मन वैसे ही तड़प रहा था जैसे जल बिन मछली।
फोन डिसकनेक्ट होने के बाद अपने को समझाने लगी शायद उसके जीवन में प्यार और स्नेह था ही नहीं। डायरी से तस्वीरें निकाल कर देखने लगी।
यह तस्वीर कॉलेज के अंतिम दिन खिंचवाई थी। करण दीपा का आदर्श मित्र है जो अबतक दीपा का हालचाल व्हाट्सएप पर पूछता रहता है। स्कूल और कॉलेज में हमेशा दीपा का पग-पग पर साथ देता था। जब वार्षिक परिणाम में दीपा हर कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करती थी तो सबसे ज्यादा खुशी करण को ही मिलती थी।
जब करण को डॉली ने बताया कि कितनी प्रताड़ना दीपा ससुराल में सह रही है तो करण पागल और बेचैन हो गया दीपा से मिलने को। तब डॉली बोली: “उसके परिवार और रिश्तेदारों को तो मिलने ही नहीं देती है उसकी चुड़ैल सास, तू कैसे मिल पाएगा।” “दीपा का नम्बर तो दे सकती हो न” करण बेचैन होते हुए बोला। “हाँ! नम्बर ले पर फोन मत करना व्हाप्ट्सएप पर बातें करना।”
तस्वीर में करण को देख कर दीपा भावुक हो गई। करण की एक-एक बातें उसकी कानों में गूँजने लगें।
“दीपा तुम तो टॉपर हो, तुम डॉक्टर बनाना और मैं बिजनेसमैन, तुम अपना पैसा मेरे बिजनेस में लगाना। हम दोनों बिजनेस पार्टनर बन जाएँगे। फिर अच्छी तरह एक-दूसरे को समझने के बाद तुम मुझे अपना लाइफ पार्टनर भी बना लेना। मुझे पूरी उम्मीद है कि तुम मुझे बना लोगी क्योंकि तुझे मेरी आदत जो हो जाएगी।”
दीपा नयन अश्रु लिए सोचने लगी उसके मरने के बाद किसी को दुख हो न हो पर करण को बहुत दुख होगा। क्योंकि करण ने हमेशा दीपा का साथ पवित्रता और ईमानदारी से निभाया था। हमेशा दीपा को हँसाने के लिए जोक्स भेजता था।
यही सोच कर दीपा भाव-विह्वल हो गई कि जिन लोगों की सेवा में अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया उन लोगों ने मेरा जीवन नरक से भी बदत्तर बना दिया। करण को तो हमेशा दुख का ही भागी बनाया।
उसको तो मुझ से कुछ नहीं मिला। अनायास की दीपा करण का नम्बर डायल करने लगी और अपनी भावना को कविता के रूप में दर्शाने लगी:
“मित्र मैं तुमझे मिलूंगी,
इस जन्म में नहीं, अगले जन्म में।
पुष्प बन खिलूंगी,
हर रंग बिखरूंगी तेरे उपवन में॥
सुकोमल अनिल चादर बन,
निर्मल जल शाबार बन।
मैं लिपटूँगी तेरे वदन में,
निर्झर स्वच्छ सरिता बन॥
संगीत स्वर में कल-कल,
कर मैं बहूँगी तेरे जीवन में।
पुष्प सुगंध कण बन,
विचर-विचर पवन संग,
मैं लिखूंगी तेरे रक्त-कण में॥
इंद्रधनुषी रंग सजा कर,
निर्मल तुहिन कण लाकर,
मैं बरसुंगी तेरे चमन में।
मन में तेरे गम लेकर,
ज्योति पुंज स्तंभ देकर,
बन पर्ण हरियाली की।
सप्त रंग डाली की,
मैं बरसुंगी तेरे नयन में॥
फिर हमसफर बन चलूँगी,
तेरे भवन में
मित्र मैं तुझे मिलूंगी
इस जन्म में नहीं
अगले जन्म में॥
कविता समाप्त होते ही एक हिचकी-सी हुई। करण “हलो! हलो!” करता ही रह गया। दीपा की कोई आवाज नहीं आई। करण समझ गया और सीने से फोन को लगा कर फूट-फूट कर रोने लगा।
जब दीपा की अर्थी शमशान जा रही थी। करण दूर से पीछे-पीछे जा रहा था। दीपा के चिता की अग्नि लपटों को देख कर करण को लग रहा था जैसे कोई उसका कलेजा निकाल रहा हो लेकिन अचानक उसे लगा जैसे दीपा उस लपट से निकल कर प्रसन्नचित्त हो आकाश की ओर जा रही थी। करण को शुकुन मिला कि दीपा प्रसन्नचित्त है। उसे जीवन की यातना से मुक्ति मिल गई थी।
करण ने निर्णय लिया कि वह अब वृद्धाश्रम और अनाथाश्रम में जाकर लोगों की सेवा करेगा। उसने जल्दी ही सेवा शुरू भी कर दिया। हर पीड़िता में उसे दीपा नजर आती थी।
एक दिन उसे दीपा की सास वृद्धाश्रम में मिली जो कुष्ठ रोग से पीड़ित थी। ऐसे अवस्था में बेटे-बहू ने उसे घर से निकाल दिया था। करण ने पूछा “आप दीपा की सास हो न?”
“हाँ बेटा” कराहती हुई उसने जवाब दिया।
“ठीक किया जो बहू ने आपको घर से निकाल दिया। आप जैसे सास की दशा इससे भी बदत्तर होनी चाहिए। जिस बहू के लिए आपने दीपा का जीवन नरक बना दिया, दीपा जैसी प्रकाश पुंज को आपने अंधेरे गर्त में गिरा दिया।”
बूढ़ी आँखों से ग्लानि के अश्रु झड़ रहे थे।
***