तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु अर्थात् मेरा मन शुभ संकल्प वाला हो

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यदि किसी घाटी अथवा किसी बड़े से कमरे में हम कुछ बोलते हैं तो वो आवाज वहाँ गूँजने लगती है और बार-बार हमें सुनाई पड़ती है। इसी प्रकार से हमारे मन में उठने वाले विचारों की गूँज भी बार-बार प्रतिध्वनित होकर हमें सुनाई पड़ती है और उसका सीधा प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ता है। मन में जैसे विचार उत्पन्न होते हैं उन्हीं के अनुरूप हमारे जीवन की वास्तविकता निर्मित होती है। इसलिए अनिवार्य है कि मात्र अच्छे विचारों का चुनाव करके ही उन्हें मन के हवाले किया जाए।

सीताराम गुप्ता
पीतमपुरा,
दिल्ली

यजुर्वेद के चौंतीसवें अध्याय में छह मंत्र मिलते हैं जिन्हें शिवसंकल्प सूक्त के नाम से जाना जाता है। इन मंत्रों में मन की विशेषताएँ बतलाने के साथ-साथ हर मंत्र के अंत में प्रार्थना की गई है- ‘तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु’ अर्थात् ऐसा हमारा मन शुभ संकल्पों वाला हो। शुभ संकल्प से तात्पर्य सकारात्मक सोच व कल्याणकारी संकल्प से ही है। आजकल जिस सकारात्मक सोच को विकसित करने की बात की जाती है वे वास्तव में शुभ संकल्प ही होते हैं।

प्रायः कहा जाता है कि पुरुषार्थ से ही कार्य सिद्ध होते हैं मन की इच्छा से नहीं। बिल्कुल ठीक बात है लेकिन मनुष्य पुरुषार्थ कब करता है? वास्तविकता तो यह है कि मन की इच्छा के बिना पुरुषार्थ भी असंभव है। मनुष्य में पुरुषार्थ अथवा प्रयास करने की इच्छा भी किसी न किसी भाव से ही उत्पन्न होती है और सभी भाव मन द्वारा उत्पन्न तथा संचालित होते हैं। अतः मन की उचित दशा अथवा सकारात्मक विचार ही पुरुषार्थ को संभव व उपयोगी बनाते हैं। पुरुषार्थ के लिए उत्प्रेरक तत्त्व मन ही है। कहा गया है कि मनुष्य वास्तव में वही है जो उसकी सोच है। कार्य-सिद्धि अथवा सफलता या लक्ष्य-प्राप्ति पूर्ण रूप से पुरुषार्थ पर नहीं मन की इच्छा पर निर्भर हैं। मन की इच्छा के सम्मुख कुछ भी असंभव नहीं। मन ही समृद्धि प्रदाता है तो मन ही दरिद्रता के लिए उत्तरदायी होता है। एक घटना याद आ रही है।

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एक व्यवसायी के चार पुत्र थे। सभी मिलजुल कर रहते थे। व्यवसायी की मृत्यु के बाद पुत्र अलग-अलग हो गए और अपना अलग-अलग व्यवसाय करने लगे। चारों भाई अलग-अलग थे लेकिन जब भी किसी संयुक्त पारिवारिक दायित्व को पूरा करने का अवसर आता सभी मिलजुल कर उसे पूरा करते। सभी भाइयों का व्यवसाय अच्छा चल रहा था लेकिन बड़े भाई का व्यवसाय सबसे ज्यादा अच्छा था। अलग होने के कुछ दिनों के बाद ही बड़े भाई ने कहना शुरू कर दिया कि उसकी आय कम है और खर्च ज्यादा। वह संयुक्त पारिवारिक दायित्वों से बचने के लिए कहने लगा कि हमारी आय में तो हमारा अपना खर्च ही मुश्किल से चल पाता है और संयुक्त पारिवारिक दायित्वों से स्वयं को अलग कर लिया। बाकी सभी भाइयों के परिवार सीमित थे लेकिन बड़े भाई का परिवार लगातार बढ़ता ही गया।

एक बेटे की चाह में बड़े भाई को पहले ही पांच बेटियां हो चुकी थीं। अब एक और बेटे की चाह में दो और बेटियों ने आकर परिवार के आकार को अच्छा-खासा विस्तृत कर दिया। बड़े भाई का कथन कि हमारी आय में तो हमारा अपना खर्च ही मुश्किल से चल पाता है धीरे-धीरे वास्तविकता में बदलने लगा। समय बीतता गया और सचमुच ऐसे हालात बन गए कि बड़े भाई के लिए परिवार का भरण-पोषण करना मुश्किल होता चला गया। परिणामस्वरूप जमीन-जायदाद बिकने लगी। समृद्धि का धीरे-धीरे लोप होता चला गया। आखिर ऐसा क्यों हुआ? ऐसा सब हुआ बड़े भाई की सोच के कारण। बड़ा भाई स्वार्थी हो गया था। उसकी सोच विकृत हो गई थी। विकृत सोच के कारण ही परिवार इतना बढ़ गया और काम-धंधा कमजोर होता चला गया। विकृत सोच कितने प्रकार से दुर्भाग्यों को आमंत्रित कर सकती है इस बात का अनुमान लगाना भी असंभव है।

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हमारी सोच का हमारी परिस्थितियों पर सीधा असर पड़ता है। हम जैसा सोचते हैं हमारे विचार उसी प्रकार के वातावरण का निर्माण करने लगते हैं। यदि हमारे विचार सकारात्मक और आशावादी होंगे तो हमारे लिए अच्छी परिस्थितियाँ निर्मित होंगी और अच्छी परिस्थितियाँ हमारे जीवन में सुख-समृद्धि, आरोग्य और दीर्घायु लेकर आती हैं। वस्तुतः अपनी सोच द्वारा ही हम अपने भाग्य का निर्माण करते हैं। सकारात्मक सोच द्वारा सौभाग्य को तथा नकारात्मक सोच द्वारा दुर्भाग्य को आमंत्रित कर हम स्वयं अपनी नियति के नियामक होते हैं। नकारात्मक सोच से उत्पन्न कार्यों के जो दुष्परिणाम होते हैं उनसे हम सब परिचित होते हैं फिर भी कई बार तात्कालिक स्वार्थवश अथवा लोभवश हम अपने विचारों पर नियंत्रण खो बैठते हैं। क्योंकि हमारी इच्छाएँ हमारी सोच का परिणाम होती हैं अतः हमें हर हाल में अपनी सोच को विकृत होने से बचाए रखना चाहिए।

इच्छाएँ ही हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं, सफलता प्रदान करने में सहायक होती हैं लेकिन केवल संतुलित सकारात्मक इच्छाएँ क्योंकि जैसी इच्छा वैसा परिणाम। यदि हमारी इच्छाएँ सात्त्विक नहीं हैं तो परिणाम भी सात्त्विक नहीं होंगे। इसी कारण से कई व्यक्ति तथाकथित पुरुषार्थ तो करते हैं लेकिन फिर भी सफलता से कोसों दूर रहते हैं। तभी तो कामना की गई है कि ‘तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु’ अर्थात् मेरा मन शुभ संकल्प वाला हो। मन तो संकल्पविकल्पात्मक है। उसमें परस्पर विरोधी भाव उत्पन्न होते रहते हैं। अच्छे विचार आते हैं तो बुरे विचार भी आते हैं। बुरे विचार आते हैं तो उसके विरोधी विचार अर्थात् अच्छे विचार भी अवश्य उत्पन्न होते हैं। मन में उठने वाले विचारों पर नियंत्रण द्वारा हम केवल अच्छे विचारों का चयन करके जीवन को उत्कृष्टता प्रदान कर सकते हैं। इसके लिए सदैव सतर्क रहना अनिवार्य है।

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विचारों के प्रति सजग व सतर्क रहकर ही हम अच्छे विचारों का चुनाव करके अपने जीवन को स्वयं उन्नत बना सकते हैं। कुछ लोग जीवनभर दुखी बने रहते हैं तो कुछ लोग सदैव प्रसन्न। ये सब भी मन के कारण ही होता है। अशुभ विचारों के कारण ही हम जीवनभर दुखी रहते हैं व सफलता हमसे दूर रहती है। बुरे विचारों का चुनाव चाहे हम स्वयं करें अथवा हमारी सजगता व सतर्कता के अभाव में हो जाए वे हमें अवनति के मार्ग पर ले जाते हैं। यदि मन प्रसन्न नहीं है तो भी भौतिक सुख-सुविधाओं में आनंद नहीं मिल सकता। मन के प्रसन्न होने पर आर्थिक समृद्धि अथवा भौतिक सुख-सुविधाओं में कमी होने पर भी आनंद ही आनंद है। सुख-समृद्धि तथा आनंद दोनों ही प्राप्त करने के लिए मन की उचित दशा अथवा सकारात्मक भावधारा का निर्माण करना अनिवार्य है। और इसके लिए मेरा मन शुभ संकल्प वाला हो इससे अधिक कल्याणकारी विचार और क्या हो सकता है?

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