अपनी जरूरतों और भावनाओं को तो पशु भी अभिव्यक्त करते हैं, पर उस पर विचार करना एक ऐसा कार्य है जो केवल मनुष्य कर सकता है। मनुष्य को ही यह शक्ति मिली है कि वह अपने मस्तिष्क की क्षमता को बढ़ा सकता है। अपने विचारों को एक सकार रूप दे सकता है और इसे दूसरे व्यक्ति तक पहुंचा भी सकता है। इसी का एक माध्यम है शब्द।
“पढ़ाई” का अर्थ है “शब्दों के माध्यम से विचार एवं सूचनाओं को मस्तिष्क तक पहुंचाना।” मिट्टी के पत्र, ताड़ पत्र, काष्ठ पत्र, ताम्र पत्र, शिलालेख, इत्यादि की तरह ही डिजिटल तकनीक ने हमें पुस्तक पढ़ने का एक और विकल्प दे दिया है।
असीमितता एवं अति तीव्र गति- ये दो विशेषताएँ डिजिटल युग में पढ़ाई को अन्य परंपरागत विकल्पों से अलग करती है। इसलिए अब इस पर विचार करना अनिवार्य हो गया है कि डिजिटल युग में पढ़ाई के लिए क्या सहयोग मिला है? क्या चुनौतियाँ आई हैं? और इससे हम कैसे निपट सकते हैं?

डिजिटल होने का सकारात्मक पक्ष
1. अधिक विकल्प उपलब्ध होना
साहित्य सृजन ने शब्द की शक्ति को असीमित एवं अनंत कर दिया। प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार ने इसे सबके लिए अधिक सुगम्य दिया। डिजिटल तकनीक ने इस की गति बढ़ा और अति सुगम्य और विविध रंगी कर दिया। अब किताबों का विशाल भंडार सबके हाथों में रखे मोबाइल पर उपलब्ध है। किताबों यानि भावनाओं एवं विचारों का एक विशाल संसार। जहां भूगोल, भाषा, राजनीति की सीमा नगण्य है।
2. पुस्तकों के रूप में विविधता
प्रत्येक व्यक्ति की अपनी पसंद और सुविधा होती है। अब पुस्तकें ऑडियो और वीडियो के रूप में भी उपलब्ध हैं। चित्र, वीडियो, ऑडियो, ग्राफिक्स, सारणी, विभिन्न रंग समायोजन के द्वारा पुस्तकों को ऐसा रूप दिया जा सकता है जो ऐसे लोगों को भी आकर्षित कर सके जो पढ़ने में अधिक रुचि नहीं रखते हैं। अगर पढ़ने का समय नहीं है तो काम करते हुए या यात्रा करते हुए भी इसे सुन सकते हैं। अगर सुनना या पढ़ना बोरिंग लगे तो आकर्षक वीडियो के रूप में इसे देख सकते हैं।
3. प्रतिभाशाली लेखकों को अधिक अवसर
अब लेखक प्रकाशक के बिना भी सीधे पाठकों तक पहुँच सकते हैं और उनसे संवाद कर सकते हैं, वह भी बहुत कम खर्च पर। पाठकों की त्वरित प्रतिक्रिया लेखकों को प्रोत्साहित और लेखन में सुधार के लिए प्रेरित कर सकती है।
4. कम व्यय
एक तरफ लेखक जहां कम खर्चे में पाठक तक पहुँच सकते हैं वहीं पाठक भी कम खर्च में दुनिया भर की किताबों तक पहुँच सकता है।
नकारात्मक पक्ष

1. अधिक विकल्प उपलब्ध होने के दुष्परिणाम
अधिक विकल्प अधिक भटकाव भी लाता है। नोटबुक और लैपटॉप पर तो यह समस्या थोड़ी कम होती है पर मोबाइल में यह समस्या बहुत अधिक होती हैं। मोबाइल हाथ में लेते ही सोशल मीडिया के नोटिफिकेशन आने लगते हैं। हमारे सामने देखने, सुनने और पढ़ने वाली इतने सारी आकर्षक चीजें आ जाती हैं कि हम जिस चीज को पढ़ने आए थे उसे छोड़ कर कुछ और पढ़ने लग जाते हैं। इतना ही नहीं जब हम किसी वैबसाइट पर या ऐप पर कुछ पढ़ने लगते हैं तो इतने सारे विज्ञापन आने लगते हैं कि हमारा ध्यान भटकने लगता है। जो समय हमने पढ़ने के लिए सोचा था पता ही नहीं चलता इन सब को देखने में वह कब बीत गया।
2. मस्तिष्क के केन्द्रीकरण (फोकस) का अभाव
फोकस और नींद की कमी आजकल सारी दुनिया में देखा जा रहा है। अवसाद, गुस्सा आदि अन्य अनेक मानसिक समस्या भी बढ़ रही है। मेडिकल साइंस की भाषा में इस नई बीमारी को नाम दिया गया है ‘पॉपकॉर्न माइंड।’ विभिन्न रिसर्च इसका कारण सोशल साइट और ऐप के अधिक उपयोग को मान रहे हैं।
कुछ सेकेंड के रील और शॉर्ट वीडियो हम जब देखते हैं तब हमारा मस्तिष्क तुरंत-तुरंत स्क्रीन पर दृश्य बदल जाने का अभ्यस्त हो जाता है। इतने सेकंड में कोई काम की जानकारी देना संभव तो नहीं है। ज़्यादातर फूहड़ कॉमेडी, इमोश्नल ड्रामा, हिंसक या फिर कामुक दृश्य इत्यादि ही होते हैं। लगातार दृश्य बदलने से दिमाग विचार नहीं कर पाता। केवल देखता है। निरुद्देश्य। मस्तिष्क अनुपयोगी सूचनाओं का बेतरतीब कबाड़खाना बनने लगता है।
3. स्मरण शक्ति की कमी
चूँकि सबकुछ हमारी अंगुलियों के इशारों पर है। इसलिए हम सोचने और याद रखने की कोशिश नहीं करते। विश्लेषण कर अपने विचार नहीं बनाते। धीरे-धीरे मस्तिष्क यह क्षमता खोने लगता है।
4. गुणवत्ता में कमी
खुली प्रतियोगिता से जहाँ अच्छे लेखकों को बढ़ावा मिलना चाहिए, व्यवहार में इसके दुष्परिणाम देखने को मिल रहा है। ज़्यादातर लोग किताब मनोरंजन के लिए पढ़ते हैं या फिर उन्हें जो भावुक कर दें वैसी रचनों की तरफ आकर्षित होते हैं। इसलिए लेखक भी पाठक के अनुसार इसी तरह लिखने लगते हैं जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़ें या सुने। अश्लील, हिंसक एवं अपराध की कहानियाँ सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली श्रेणी बन चुका है। गंभीर रचनाओं को पाठकों के लिए मशक्कत करनी पड़ती है।
5. भाषायी अराजकता
पहले जब कोई लेखक लिखता था तो संपादक उसकी समीक्षा करता था। अगर गलतियाँ होती थी तो उसे सुधारने का अवसर होता था। स्वप्रकाशन के कारण लेखन जो चाहे लिख कर छाप सकता है। टायपिंग, भाषा एवं व्याकरण संबंधी गलतियाँ भरी हुई होती हैं रचनाओं में।
6. विविधता की कमी
यह सच है कि इंटरनेट ने विविधता का विशाल सागर खोल दिया है हमारे सामने। लेकिन फिर भी इसमें कुछ कमी होती है। सर्च इंजन लोगों को वही दिखता है जो उसने सर्च किया हो, पढ़ा हो, देखा हो। उदाहरण के लिए अगर किसी ने क्राइम/थ्रिलर फिल्म देखा, वैसे आर्टिकल पढ़ा या वैसा कोई किताब सर्च किया, तो उसके बाद सर्च इंजन लगातार उसे इसी तरह की सामग्री दिखाएगा। जो सामग्री आएगी वह फिर से वही देखेगा। अन्य विषयों से संबन्धित सामग्री आने की संभावना कम हो जाती है।
7. कॉपीराइट उल्लंघन
इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री को अथवा किसी को प्रकाशन के लिए सौंपी गई रचना के सॉफ्ट कॉपी को परिवर्तित करना बहुत ही आसान होता है। कोई भी किसी की रचना को थोड़े बहुत फेर बदल कर अपने नाम से प्रकाशित कर या बेच सकता है। एआई तो कहने मात्र से कुछ सेकंड में ही आकर्षक कहानी आदि लिख के दे सकता है वह भी आकर्षक फोटो और वीडियो के साथ।
8. झूठी एवं भ्रामक सामग्री
लोगों को आकर्षित करने के लिए बातों को सनसनी अथवा आक्रामक बना कर पेश करना, झूठे तथ्यों को बताना आदि बहुत ही सामान्य बात हो गयी है अब तो। फेक ऑडियो, वीडियो और चित्रों के साथ उसे ऐसे पेश किया जाता है कि असली नकली में अंतर कर पाना बहुत मुश्किल हो जाता है।
9. पढ़ने की रुचि में कमी
अब लोगों के पास समय बिताने एवं मनोरंजन के बहुत से अन्य अधिक आकर्षक विकल्प उपलब्ध हैं। खाली समय में लोगों को सोशल साइटस या वीडियो गेम में व्यस्त देखना एक सामान्य सी बात हो गई है अब तो। हर तरह के वीडियो आदि भी उसी मोबाइल में होता है, जिसमें पढ़ने की सामग्री। लोग अब पढ़ने से अधिक समय इन सब में बिताने लगे हैं। पढ़ने की आदत या रुचि में कमी वैश्विक स्तर पर देखा जा रहा है।
10. मुद्रित रचनाओं में गिरावट
कई कारणों से लोगों के पढ़ने की आदत में बहुत गिरावट आई है। जो पढ़ते भी हैं वे अधिकांश मोबाइल से ही पढ़ने लगे हैं, इसलिए प्रिंटेड सामग्री की मांग बहुत घट गई है। चूंकि इस घटे मांग के कारण छपने का खर्च तभी पूरा होगा जब कीमत बढ़ाया जाय। इससे मांग और भी घटती है। आज दुनिया भर में किताबों, पत्र-पत्रिकाओं की मांग में कमी महसूस की जा रही है। बड़े-बड़े प्रकाशन घाटे में जा रहे हैं। वाशिंटन पोस्ट जैसे अखबार को अपना ऑफिस बंद करना पड़ा है। प्रकाशन घाटे में रहेंगे तो वे लेखकों को भी रायल्टी नहीं दे पाएंगे। लेखक स्वप्रकाशन द्वारा और प्रकाशक डिजिटल होकर अपना काम चला रहे हैं। पर इससे साहित्य की गुणवत्ता से समझौता हो रहा है।
इतना ही नहीं गुनगुनी धूप में किताबों को हाथ में लेकर उसे महसूस कर पढ़ने का जो आनंद है, जो अनुभूति है, जो शकुन है, वह खत्म होता जा रहा है। क्योंकि धूप में मोबाइल या लैपटाप की स्क्रीन एक तो दिखती नहीं है, दूसरा कभी भी रिंग या नोटिफिकेशन आकर ध्यान भंग कर सकता है।
कागज से पढ़ना ही नहीं लिखना भी लुप्त होता जा रहा है। अध्ययन बताते हैं कि हाथ से लिखने से चीजें ज्यादा देर तक मस्तिष्क में संचित रहती हैं बनिस्पत टाइप करने के। टाइप करते समय ऑटो करेक्शन जैसे ऑप्शन के कारण व्याकरण एवं शब्दों की शुद्धि पर ध्यान देने की जरूरत भी अधिक नहीं रह गई है। अभी तक मानव सभ्यता ने जो सबसे बड़े आविष्कार किए हैं उनमें से एक है लिखने की कला। लेकिन अब वह कला भी खतरे में आने लगी है।
11. स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ
अधिक स्क्रीन टाइम (डिजिटल गजट पर बिताया जाने वाला समय) के कारण मानसिक स्वास्थ्य ही नहीं शारीरिक स्वास्थ्य पर भी बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। अधिक स्क्रीन टाइम से आँखें, सिर, गर्दन, पीठ एवं कमर संबंधी समस्याएँ अधिक होने लगती हैं। अधिक देर बैठने से मोटापा की समस्या भी बढ़ा रहा है।
क्या है समाधान?
हर तकनीक के साथ कुछ समस्या रही है। डिजिटल तकनीक के साथ भी है। लेकिन समस्या से बचते हुए मानवीय सहज बुद्धि का प्रयोग कर इसका इष्टतम उपयोग करना ही श्रेयस्कर होगा। ऐसी कुछ सावधानियाँ यह हो सकती हैं:
1. पढ़ने के लिए सामग्री हमेशा विश्वसनीय स्रोत से ही लें। जैसे विश्व की अधिकांश बड़ी पुस्तकालय (लाइब्रेरी) अब ऑनलाइन उपलब्ध है। सरकार भी इस तरह की डिजिटल लाइब्रेरी लाती है। हमें ऐसे स्रोत से ही ज्यादा से ज्यादा पढ़ना चाहिए। कोई जानकारी चाहिए तो विश्वसनीय संस्था और शोध प्रकाशनों का ही भरोसा पहले करना चाहिए।
2. जहां तक संभव हो पढ़ने से पहले उस सामग्री को डाउनलोड कर लें ताकि विज्ञापन आदि भटकाएँ नहीं। अगर संभव हो तो मोबाइल में पढ़ने से पहले मोबाइल को फ्लाइट मोड पर डाल लें।
3. हमारा मस्तिष्क प्रकृति की ओर से दिया गया सबसे अनमोल उपहार है। इसे स्वस्थ रखना और इसकी क्षमता का विस्तार करना हमारा सबसे पवित्र कर्तव्य है। इसलिए छोटे अनावश्यक, अनुचित एवं नकारात्मक वीडियो, ऑडियो, या किताबें पढ़ने से बचना चाहिए। वीडियो देखना ही हो तो यूट्यूब पर अपनी रुचि की सामग्री देखें। ताकि मस्तिष्क किसी एक विषय पर अधिक देर तक टिका रहे। हर कुछ सेकंड पर निरुद्देश्य दृश्य नहीं बदले।
4. हमार सामने कोई अवांछित सामग्री आ जाए और हम उसे गलती से देख लें तो भी अगर हम अच्छी चीजें ज्यादा पढ़ेंगे, देखेंगे और सोचेंगे तो हमारा मस्तिष्क कुछ दिनों बाद स्वयं उसे हटा देगा। लेकिन अगर हम उस पर सोचेंगे अधिक देखेंगे तब अवचेतन मन में वह संग्रहीत हो जाएगा।
5. जहां तक संभव हो अलग-अलग रूप में किताबें पढ़ें। जैसे कुछ किताबें इंटरनेट से पढ़ें, कुछ ऑडियो या वीडियो रूप में सुनें। कोशिश करें कि कुछ प्रिंटेड किताब भी पढ़ें। इससे किसी एक अंग पर दवाब नहीं पड़ेगा।
6. लगातार स्क्रीन देखने से आँखों में शुष्कता, जलन एवं सिर में दर्द जैसी समस्या हो सकती है। गर्दन, कंधे और पीठ में दर्द हो सकता है। पढ़ने के बीच-बीच में टहलना, गर्दन और आँखों को रिलेक्स करना जैसे काम करते रहें।
निष्कर्ष
रामचरित मानस में अंगद रावण से कहते हैं ‘चलई बहुत सो वीर न होई।’ हालांकि यहाँ वह यह वाक्य अलग संदर्भ में कहते हैं पर आधुनिक तकनीक पर भी यह सटीक बैठता है। डिजिटल तकनीक की गति बहुत तेज है। यही तेजी इसकी खूबी और खामी दोनों ही है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए ‘विज्ञान अच्छा नौकर पर बुरा मलिक है।” तकनीक का उपयोग मनुष्य की बुद्धि से होना चाहिए, उसकी बुद्धि कम करने के लिए नहीं। कृत्रिम बुद्धि को हमेशा प्रकृतिक बुद्धि एवं विवेक के अंदर ही होना चाहिए, उसके लिए ही होना चाहिए।
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