दो राष्ट्राध्यक्ष तीन साल से चल रहे एक युद्ध को बंद कराने के कोई उपाय ढूँढने के लिए बातचीत करने बैठे हैं। एक युद्ध, जिसमें लोग मर रहे हैं, बेघर हो रहे हैं, बिजली, पानी, हॉस्पिटल और स्कूल जैसे बेसिक चीजें बर्बाद हो रही हैं। लेकिन यहाँ एक पत्रकार पूछता है आप सूट क्यों नहीं पहनते? क्या यह असंवेदनशीलता नहीं है? कुछ लोग तर्क दे रहे हैं कि बिना फॉर्मल कपड़ों के राष्ट्रपति से मिलना अमेरिका में अशिष्टता समझा जाता है। लेकिन अमेरिका के नियम कब से दूसरे देश पर लागू होने लगे? क्या भारत में आने वाले किसी राष्ट्राध्यक्ष से हम धोती-कुर्ता या साड़ी में आने की उम्मीद कर सकते हैं? कुछ लोग तर्क देते हैं कि यह जेलेन्स्की का दिखावा है। हो सकता है। पर यह सोचना उनके देश के नागरिकों का काम है, अमेरिका या किसी दूसरे देश का नहीं। जब लालू प्रसाद यादव गोल गले के स्वेटर और मंकी कैप पहन कर इंग्लैंड गए थे तब भी कुछ लोगों ने ऐसे विचार प्रकट किए थे। लेकिन हमारे प्रतिनिधि कैसा पहनावा रखे इस पर हम विचार कर सकते हैं, अगर इंग्लैंड करता तो यह अंतर्राष्ट्रीय शिष्टाचार के मान्य सिद्धान्त के विरुद्ध होता।
कुछ मीडिया रिपोर्ट ऐसे दिखा रहे हैं जैसे जेलेन्स्की ने ही पहले बहस शुरू किया हो और यह देख कर यूक्रेन की राजदूत ने अपना सिर पीट लिया हो। लेकिन चुनाव जीतने के बाद से ही ट्रम्प का रुख यूक्रेन के विरुद्ध रहा था। जेलेन्स्की को अमेरिका के मदद की जरूरत है, पर वह एक स्वतंत्र देश के राष्ट्रपति भी हैं। अपने देश की उन पर ज़िम्मेदारी है। इसलिए उन्होने हमेशा संयत प्रतिक्रिया ही दी है। वार्ता शुरू होने के साथ ही अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प और उपराष्ट्रपति वांस का बॉडी लैड्ग्वेज ऐसा लग रहा था जैसे वह अपने किसी एम्प्लोयी को उसकी गलतियों के लिए डांट रहे हों। दो राष्ट्राध्यक्षों के बीच बातचीत वाली कोई गरिमा या शिष्टाचार कहीं नहीं दिखा। यूक्रेन में चुनाव से पहले ही युद्ध छिड़ गया। एक युद्धरत देश अपने लोगों की रक्षा पहले करेगा या गिरते बमों के बीच चुनाव कराएगा? लेकिन ट्रम्प जेलेन्स्की को ‘तानाशाह’ की उपाधि से नवाजते हैं, युद्ध शुरू करने के लिए उन्हें जिम्मेदार मानते हैं। जेलेन्स्की जब युद्ध विराम (सीज फायर) की बात करते हैं तो गली के झगड़ों की तरह जेलेन्स्की की नकल कर उनका मज़ाक उड़ाते हैं।
शायद पहले विश्वयुद्ध में हारे हुए जर्मनी के बाद पहली बार है जब किसी राष्ट्राध्यक्ष का मीडिया के सामने ऐसी बेइज्जती की गई है। वह भी उस युद्ध के लिए जिसे शुरू करवाने के लिए जिम्मेदार स्वयं अमेरिका था। सोवियत संघ के टूटने के बाद भी रूस अपने पुराने घटक देशों पर अपना नियंत्रण रखना चाहता था। दूसरी तरफ अमेरिका रूस के आसपास के देशों पर अपनी नियंत्रण बढ़ाना चाहता था। इसी का नजीता था ‘नाटो’। यूक्रेन के खनिजों पर रूस और अमेरिका दोनों की नजर थी ही।
यूक्रेन से सोचा नाटो की शरण में ही चला जाता हूँ। कम से कम अपनी जमीन तो सुरक्षित रहेगी। उसके एक तरफ सांपनाथ तो दूसरे तरफ नागनाथ वाली स्थिति थी। रूस को यह पसंद नहीं आया। यही युद्ध की शुरुआत का कारण बना। जब रूस नाटो से नहीं डरा और युद्ध लंबा खींच गया। हथियार आदि यूक्रेन को जितना बेचना था उतना अमेरिका बेच चुका। अब वह अपनी सारी ज़िम्मेदारी यूक्रेन पर डाल कर बहाना कर पीछे हटना चाह रहा है।
शांति और लोकतंत्र अमेरिका का हमेशा से ही सबसे प्रिय हथियार रहा है। इसी के नाम पर वह सारी दुनिया में अपना नियंत्रण करता रहा है। जहां कहीं भी अशांति है वहाँ अमेरिका का हाथ जरूर रहा है। फिलिस्तीन हो, अफगानिस्तान हो या फिर ईरान- हर जगह अशांति को अमेरिका के सहयोग से ही शुरू हुआ। क्योंकि यहाँ आपसी झगड़े में बाहरी देशों की मदद लेना का प्रयास किया गया। जबकि इन सबसे बहुत कमजोर देश वियतनाम ने कभी अमेरिका की अकड़ कम कर दी थी अपनी जनता के सहयोग से। लेकिन वह किसी और देश के सामने झुकने को तैयार नहीं हुआ था।
दूसरी तरफ भारत अपने देश में मत प्रतिशत बढ़ाने के लिए अमेरिका से फ़ंड लेता रहा। यह भी जनता के सामने तब आया जब ट्रम्प ने इस पर रोक लगा दिया। यह किसी सरकार या पार्टी के लिए नहीं बल्कि देश के लिए शर्म की बात थी। हमारे देश में मत प्रतिशत बढ़ाना और मतदाताओं को जागरूक करना क्या अमेरिका की चिंता होनी चाहिए? स्वयं अमेरिका की जनता अपने राष्ट्राध्यक्ष का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से नहीं करती। वहाँ के मत प्रतिशत का इतना जटिल हिसाब है कि जनता का सही मत प्रतिशत पता ही नहीं चलता। फिर मत प्रतिशत लोकतंत्र की गारंटी नहीं है। बहुत से तानाशाही वाले देशों में मत प्रतिशत 90 से भी अधिक पहुँच जाता है। लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का दंभ भरने वाले भारत ने अपने लोकतंत्र के लिए अमेरिका से फंड लेकर देश को घाना, सूडान, पाकिस्तान जैसे देशों की कतार में ला खड़ा कर दिया। जेलेन्स्की की हालत भारत सहित सभी देशों के लिए अंतिम चेतावनी की तरह होनी चाहिए।दो राष्ट्राध्यक्ष तीन साल से चल रहे एक युद्ध को बंद कराने के कोई उपाय ढूँढने के लिए बातचीत करने बैठे हैं। एक युद्ध, जिसमें लोग मर रहे हैं, बेघर हो रहे हैं, बिजली, पानी, हॉस्पिटल और स्कूल जैसे बेसिक चीजें बर्बाद हो रही हैं। लेकिन यहाँ एक पत्रकार पूछता है आप सूट क्यों नहीं पहनते? क्या यह असंवेदनशीलता नहीं है। कुछ लोग तर्क दे रहे हैं कि बिना फॉर्मल कपड़ों के राष्ट्रपति से मिलना अमेरिका में अशिष्टता समझा जाता है। लेकिन अमेरिका के नियम कब से दूसरे देश पर लागू होने लगे? क्या भारत में आने वाले किसी राष्ट्राध्यक्ष से हम धोती-कुर्ता या साड़ी में आने की उम्मीद कर सकते हैं? कुछ लोग तर्क देते हैं कि यह जेलेन्स्की का दिखावा है। हो सकता है। पर यह सोचना उनके देश के नागरिकों का काम है, अमेरिका या किसी दूसरे देश का नहीं। जब लालू प्रसाद यादव गोल गले के स्वेटर और मंकी कैप पहन कर इंग्लैंड गए थे तब भी कुछ लोगों ने ऐसे विचार प्रकट किए थे। लेकिन हमारे प्रतिनिधि कैसा पहनावा रखे इस पर हम विचार कर सकते हैं, अगर इंग्लैंड करता तो यह अंतर्राष्ट्रीय शिष्टाचार के मान्य सिद्धान्त के विरुद्ध होता।
कुछ मीडिया रिपोर्ट ऐसे दिखा रहे हैं जैसे जेलेन्स्की ने ही पहले बहस शुरू किया हो और यह देख कर यूक्रेन की राजदूत ने अपना सिर पीट लिया हो। लेकिन चुनाव जीतने के बाद से ही ट्रम्प का रुख यूक्रेन के विरुद्ध रहा था। जेलेन्स्की को अमेरिका के मदद की जरूरत है, पर वह एक स्वतंत्र देश के राष्ट्रपति भी हैं। अपने देश की उन पर ज़िम्मेदारी है। इसलिए उन्होने हमेशा संयत प्रतिक्रिया ही दी है। वार्ता शुरू होने के साथ ही अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प और उपराष्ट्रपति वांस का बॉडी लैड्ग्वेज ऐसा लग रहा था जैसे वह अपने किसी एम्प्लोयी को उसकी गलतियों के लिए डांट रहे हों। दो राष्ट्राध्यक्षों के बीच बातचीत वाली कोई गरिमा या शिष्टाचार कहीं नहीं दिखा। यूक्रेन में चुनाव से पहले ही युद्ध छिड़ गया। एक युद्धरत देश अपने लोगों की रक्षा पहले करेगा या गिरते बमों के बीच चुनाव कराएगा? लेकिन ट्रम्प जेलेन्स्की को ‘तानाशाह’ की उपाधि से नवाजते हैं, युद्ध शुरू करने के लिए उन्हें जिम्मेदार मानते हैं। जेलेन्स्की जब युद्ध विराम (सीज फायर) की बात करते हैं तो गली के झगड़ों की तरह जेलेन्स्की की नकल कर उनका मज़ाक उड़ाते हैं।
शायद पहले विश्वयुद्ध में हारे हुए जर्मनी के बाद पहली बार है जब किसी राष्ट्राध्यक्ष का मीडिया के सामने ऐसी बेइज्जती की गई है। वह भी उस युद्ध के लिए जिसे शुरू करवाने के लिए जिम्मेदार स्वयं अमेरिका था। सोवियत संघ के टूटने के बाद भी रूस अपने पुराने घटक देशों पर अपना नियंत्रण रखना चाहता था। दूसरी तरफ अमेरिका रूस के आसपास के देशों पर अपनी नियंत्रण बढ़ाना चाहता था। इसी का नजीता था ‘नाटो’। यूक्रेन के खनिजों पर रूस और अमेरिका दोनों की नजर थी ही।

यूक्रेन से सोचा नाटो की शरण में ही चला जाता हूँ। कम से कम अपनी जमीन तो सुरक्षित रहेगी। उसके एक तरफ सांपनाथ तो दूसरे तरफ नागनाथ वाली स्थिति थी। रूस को यह पसंद नहीं आया। यही युद्ध की शुरुआत का कारण बना। जब रूस नाटो से नहीं डरा और युद्ध लंबा खींच गया। हथियार आदि यूक्रेन को जितना बेचना था उतना अमेरिका बेच चुका। अब वह अपनी सारी ज़िम्मेदारी यूक्रेन पर डाल कर बहाना कर पीछे हटना चाह रहा है।
शांति और लोकतंत्र अमेरिका का हमेशा से ही सबसे प्रिय हथियार रहा है। इसी के नाम पर वह सारी दुनिया में अपना नियंत्रण करता रहा है। जहां कहीं भी अशांति है वहाँ अमेरिका का हाथ जरूर रहा है। फिलिस्तीन हो, अफगानिस्तान हो या फिर ईरान- हर जगह अशांति को अमेरिका के सहयोग से ही शुरू हुआ। क्योंकि यहाँ आपसी झगड़े में बाहरी देशों की मदद लेना का प्रयास किया गया। जबकि इन सबसे बहुत कमजोर देश वियतनाम ने कभी अमेरिका की अकड़ कम कर दी थी अपनी जनता के सहयोग से। लेकिन वह किसी और देश के सामने झुकने को तैयार नहीं हुआ था।
दूसरी तरफ भारत अपने देश में मत प्रतिशत बढ़ाने के लिए अमेरिका से फ़ंड लेता रहा। यह भी जनता के सामने तब आया जब ट्रम्प ने इस पर रोक लगा दिया। यह किसी सरकार या पार्टी के लिए नहीं बल्कि देश के लिए शर्म की बात थी। हमारे देश में मत प्रतिशत बढ़ाना और मतदाताओं को जागरूक करना क्या अमेरिका की चिंता होनी चाहिए? स्वयं अमेरिका की जनता अपने राष्ट्राध्यक्ष का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से नहीं करती। वहाँ के मत प्रतिशत का इतना जटिल हिसाब है कि जनता का सही मत प्रतिशत पता ही नहीं चलता। फिर मत प्रतिशत लोकतंत्र की गारंटी नहीं है। बहुत से तानाशाही वाले देशों में मत प्रतिशत 90 से भी अधिक पहुँच जाता है। लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का दंभ भरने वाले भारत ने अपने लोकतंत्र के लिए अमेरिका से फंड लेकर देश को घाना, सूडान, पाकिस्तान जैसे देशों की कतार में ला खड़ा कर दिया। जेलेन्स्की की हालत भारत सहित सभी देशों के लिए अंतिम चेतावनी की तरह होनी चाहिए।